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Thursday, December 22, 2011

राजस्थान हॉर्टीकल्चर एंड नर्सरी सोसायटी 'राजहंस'


राजस्थान में उद्यानिकी विकास को गति प्रदान करने के उद्देश्य से वर्ष 1989-90 में उद्यानिकी विभाग की स्थापना की गयी। किन्तु सीमित बजट आंवटन एंव सरकारी नियमों की सीमाओं के कारण राज्य में उद्यानिकी का समूचित विकास नहीं हो सका। उद्यानिकी महत्वपूर्ण आदान अच्छी पौध का है। राज्य में 27 राजकीय नर्सरियां है, जिनका कुल क्षेत्रफल 325.44 हेक्टेअर है। राजस्थान में परम्परागत खेती अब व्यवसायिक खेती के रूप में परिवर्तित हो रही है। इसी के परिणाम स्वरूप राज्य में बेर, संतरा, किन्नू, आंवला, आदि फलों तथा जीरा, मेथी, धनियाँ, आदि मसालों के अतिरिक्त फूलों, सब्जियों तथा औषधिय फसलों ने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है। राज्य में अब कृषकों का ध्यान कम पानी तथा कम लागत से अधिक मुनाफा देने वाली फसलें लेने में लगा है।
राजकीय नर्सरियों पर पर्याप्त बजट के अभाव में पौध तैयार करने में कठिनाई आ रही थी। तथा राजकीय नर्सरियों पर पौधे तैयार करनें में अधिक व्यय हो रहा था। ग्यारवी पंचवर्षीय योजना में फलों के अन्तर्गत 10 हजार हेक्टेअर क्षेत्र में प्रतिवर्ष नये बगीचों के रोपण की योजना रखी गयी थी, जिसके लिये प्रति वर्ष राज्य में औसतन 30 लाख पौधों की व्यवस्था करनी होती है, जबकि राजकीय नर्सरियों पर उपरोक्त कमियों से केवल मात्र 10 से 12 लाख पौधे ही तैयार हो रहे थे। राज्य के कृषकों की मांग की पुर्ती करने के लिये राज्य के बाहर से भी पौधे खरीदने करने पडते हैं। जिनमें 50 प्रतिशत से भी अधिक मृत्यु दर रहती है। तथा राज्य में इनकी अनुकुलनता कम होने से क्षेत्र विकास में आशातीत सफलता नहीं मिल पा रही थी। बाहर से क्रय किये गये पौधे अपेक्षाकृत महंगे भी होते थे।
राज्य में फल, मसालों, फूल, सब्जियाँ तथा औषधिय फसलों का क्षेत्रफल 168000 हेक्टेअर क्षेत्रफल है। जो कि कुल कृषि योग्य क्षेत्रफल 206.61 लाख हेक्टेअर का मात्र 4.00 प्रतिशत है जो कि कम से कम 10 प्रतिशत होना चाहिए। उक्त फसलों के लिये भी उन्नत बीजों व पौध रोपण सामग्री का अभाव रहता है। सब्जी, मसाले आदि फसलों हेतु औसतन एक लाख कंवटल बीजों की आवश्यकता होती है। जबकि राज्य में 5000 किवटल बीज ही उपलब्ध हो पाता हैं। राजकीय नर्सरियों पर खाली जगह रहने के बावजूद भी इन बीज का उत्पादन बजट अभाव व वर्तमान सामान्य वित्तीय एंव लेखा नियमों के अन्तर्गत नहीं लिया जा सकता है। यह कार्य नर्सरियों को स्वायत्तता प्रदान करने के बगैर नहीं किये जा सकते थे। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि राजकीय नर्सरियों के व्यवसायिक रूप से पौधे उत्पादन हेतु स्वायत्तता प्रदान की जाए इसके लिये इन नर्सरियों को राजस्थान हॉर्टीकल्चर एण्ड नर्सरी सोसायटी (राजहंस) के रूप से कार्य करने हेतु स्वायत्तता प्रदान की गई है।
उद्देश्य
1. राज्य में उद्यानिकी विकास से संबंधित समस्त विषयों पर कार्य करना।
2. राज्य में उन्नत किस्मों के गुणवत्ता युक्त स्वस्थ बीजू, ग्राफ्टेड, बडेड एंव अन्य प्रकार से तैयार किये जाने वाले पौधे को कृषकों की मांग आपूर्ति हेतु उद्यानिकी किस्मों के अनुरूप तैयार करवाना।
3. राज्य में उद्यान विभाग के अधीन समस्त पौधशालाओं को सुदृढ करना, पौध उत्पादन एंव अन्य उद्यानिकी आदानों के कार्य में आत्मनिर्भर बनाकर उनकी भौतिक व वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु व्यवस्था एंव संचालन।
4. जैव तकनीकि आधार पर पौधे उत्पादन हेतु नवीन पौधशालाओं की स्थापना एंव विकास तथा जैविक खेती को बढावा देने का कार्य करना।
5. मान्ट उद्यानों का विकास, रखरखाव तथा प्राचीन मान्ट उद्यानों में प्रतातियों का पुनरुद्धार एंव नवीन प्रजातियों के रोपण हेतु प्रोत्साहन।
6. अनुबन्ध पद्धति पर निजी क्षेत्र के कृषकों के यहां पर विभिन्न प्रकार के पौधे उत्पादन कर राज्य की मांग राज्य से पूर्ति करना।
7. राज्य में विभिन्न स्तर की आधुनिक एंव उच्च तकनीकि पर आधारित व्यापारिक स्तर पर पौधे तैयार करने वाली पौधशालाओं की स्थापना करवाना तथा उन्हें पंजिकृत करना।
8. कृषकों, अन्य विभागों, स्वयंसेवी संस्थाओं, बोर्ड निजी व सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम आदि को सलाह- मशविरा देना एंव अन्य प्रचार-प्रसार माध्यम से व्यापारिक उद्यानिकी तकनीकी को कृषकों, अधिकारियों व जन सामान्य को प्रोत्साहन, प्रशिक्षण, प्रदर्शन, दक्ष विशेषज्ञों एंव श्रमिकों की सेवायें आदि देकर रोजगार के अवसर बढाना।
9. उद्यान उद्योग विकास हेतु फसलोत्तर प्रबंधन, परिरक्षण प्रयोगशालाओं, पैकिंग, ग्रेडिंग, वैल्यू एडिशन यूनिट स्थापना आदि कार्यक्रम आयोजित करना।
10. राज्य में एंव राज्य के बाहर से गुणवत्ता के पौधे व अन्य आवश्यक सामग्री क्रय कर कृषकों, जन सामान्य, विभिन्न संस्थाओं/विभागों आदि को आपूर्ति करना तथा राज्य में उपलब्ध उत्पाद एंव सेवाओं को अधिक मूल्य दिलाने हेतु कार्य करना।
11. राज्य में समस्त उद्यानिकी फसलों जैसे फल, सब्जी, मसाला, औषधीय एंव सुगंधित फसलों फूल सजावटी आदि का पौध उत्पादन सामग्री उत्पादन एंव अन्य प्रचार प्रसार के कार्यक्रम लेकर विभिन्न विभागों व कृषकों/ संस्थाओं आदि को उपलब्ध कराना।
12. विभिन्न संस्थाओं/निजी क्षेत्र से पौधे, मशीनरी, परिरक्षण पदार्थ, समस्त आदान (बीज, खाद, रसायन आदि), प्लास्टिकल्चर आदि को क्रय करना एंव इनको अन्य को उपलब्ध कराने हेतु एकीकृत संस्था के रूप में कार्य व आपूर्ति करना।

विवादास्पद बीज अनुसंधान करार रद्द


राजस्थान कृषि विभाग ने 27 जुलाई 2010 में बीज अनुसंधान के क्षेत्र में अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो सहित सात कंपनियों के साथ एक सहमती-पत्र (एमओयू) हस्ताक्षरित किया था, जिसके अनुसार बीजों पर अनुसंधान करने के लिए प्रदेश के दोनों कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विभाग और राज्य बीज निगम के पास मौजूद सुविधाओं और स्टाफ का पूरा उपयोग करने की छूट इन कंपनियों को देने का प्रावधान था। कृषि विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिक भी इन कंपनियों की देखरेख में अनुसंधान करते लेकिन सरकारी सुविधाओं और स्टाफ का पूरा उपयोग करने के बाद विकसित किए गए बीजों पर पेटेंट अधिकार इन बीज कंपनियों का होता। रिसर्च सीड को इन कंपनियां को अपनी ही दरों पर बेचने की इजाजत भी थी। अगर यह समझौता लागू हो जाता तो बीज के मामले में किसान पूरी तरह इन कंपनियों पर निर्भर हो जाता। सरकार के पूरे संसाधन लगने के बावजूद बीज विपणन और अनुसंधान में निजी कंपनियों का एकाधिकार हो जाता।
इस तरह के अलाभकारी समझौतों का किसान और सामाजिक संगठनों ने भारी विरोध किया। मामला यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी तक पहुंचने के बाद मुख्यमंत्री कार्यालय ने इसकी जांच करवाई। विवाद के बाद कृषि विभाग ने दिसंबर 2010 में इन विवादास्पद करारों के अमल पर रोक लगा दी और इनकी समीक्षा के लिए विशेषज्ञों की एक समिति भी बना दी।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर)द्वारा हाल ही में कृषि विभाग को लिखे एक पत्र में इन समझौतों पर सवाल उठाए। पत्र के अनुसार बीज अनुसंधान में निजी कंपनियों के साथ सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप- पीपीपी मॉडल) में भागीदारी के संबंध में आईसीएआर एक नीति बना रहा है जिसके घोषित होने तक कोई भी राज्य इस तरह के करार नहीं कर सकता। आईसीएआर के इस पत्र के बाद कृषि विभाग नें आनन-फानन इन विवादित करारों को रद्द करने का फैसला कर लिया है। आईसीएआर से मंजूरी के बिना किए इन समझौतों को कृषि विभाग के अफसरों ने रद्द करने के फैसले की पुष्टि हो चुकी है, केवल संबंधित कंपनियों को इसे रद्द करने की सूचना देना और आदेश जारी करने की औपचारिकता ही बाकी रह गई है।

यदि बाग ठेके पर देना हो


बाग मालिक किसान अकसर अपनी फल वाली फसलों को एकमुश्त बेचते हैं, इसे आम बोलचाल की भाषा में बाग ठेके पर देना कहते हैं। जो किसान अपने बाग ठेके पर देते हैं उनके लिए सबसे पहली सलाह तो यह है कि जो आदमी आपका बाग ठेके पर लेना चाहता है, उसके के बारे में पूरी जानकारी जरूर इक_ा करें। जैसे कि
(1) वह कहां का रहने वाला है?
(2) उसकी आर्थिक स्थिति कैसी है?
(3) उसका पूर्व अनुभव क्या है?
(4) पिछले बाग मालिक के साथ व्यवहार कैसा था?
(5) लेन-देन में उसका व्यवहार आदि।
बाग ठेके पर लेने वाले ठेकेदार और बाग मालिक किसान के बीच तय होने वाली सभी शर्तों एवं दशाओं को पहले मौखिक रूप से तैयार करें चूंकि मौखिक अनुबंध में हमेशा विवाद होने की संभावना बनी रहती है। अनावश्क विवादों से बचने के लिए सभी शर्तों पर सहमति होने के बाद उसे दो प्रतियों में लिख कर दोनों पक्ष उस पर अपनी सहमति के हस्ताक्षर जरूर करें, ताकि छोटी-मोटी बात पर भविष्य में विवाद न हो, अथवा विवाद की हालत में समझौते की शर्तों के अनुसार पंचाट करने में आसानी हो। यह लिखा-पढ़ी इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ज्यादातर फलों की फसलें वर्ष में एक ही बार आती हैं और विवाद की सूरत में किसान को बड़ा आर्थिक नुकसान हो सकता है।
संभावित लिखित समझौते में निम्न बातों का आवश्यक रूप से उल्लेख करें-
* इसमें बाग मालिक का पूर्ण विवरण, बाग का क्षेत्रफल एवं पौधों की संख्या आदि।
* तय रकम का भुगतान एक मुश्त होगा अथवा किस्तों में होगा, यदि किस्तों में होगा तो कितने अंतराल में होगा।
* यदि भुगतान के संबंध में यदि किसी तीसरे पक्ष की जिम्मेवारी है तो उसकी हस्ताक्षयुक्त सहमती।
* सारा भुगतान फलों को तोडऩे से पूर्व ही मिल जाने की सुनिश्चितता, अन्यथा नुकसान होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
* फलों के तुड़ाई पैकिंग एवं परिवहन का खर्चा किसका होगा।
* फलों की तुड़ाई किस अवधि में किस प्रकार की जाएगी व बा$ग की सुरक्षा की जिम्मेवारी किसकी होगी आदि। (आम चलन में बाग की सुरक्षा की जिम्मेदारी ठेकेदारी की होती है।)
* आगामी वर्ष की फसल को सुनिश्चित करने के लिए समस्त फलों की तुड़ाई की आखिरी तारीख।
* बाग में कृषि संबंधी अन्य कार्य किसके द्वारा किए जाएंगे। (चलन यह है कि यह कार्य बाग मालिक करता है।)
* फलों की कितनी मात्रा बाग मालिक व्यक्तिगत उपभोग के लिए मिलेगी आदी।


राष्ट्रीय बागबानी मिशन

भारत सरकार ने राष्ट्रीय बागबानी मिशन की शुरुआत दसवीं योजना में वर्ष 2005-06 के दौरान केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजना के रूप में की जिसका उद्देश्य बागबानी क्षेत्र में वृद्घि के साथ उत्पादन में वृद्घि करना है। दसवीं योजना के दौरान राज्य मिशन को 100 प्रतिशत वित्त सहायता दी जा रही थी और 11वीं योजना के दौरान भारत सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता 85 प्रतिशत तथा 15 प्रतिशत योगदान राज्य सरकारों का है। उत्तर पूर्व के आठ राज्यों को छोड़कर (इन राज्यों को 'उत्तर-पूर्व उद्यान विज्ञान के एकीकृत विकास हेतु चलाए जा रहे तकनीकी मिशन के तहत रखा गया है।) अन्य सभी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों को इस मिशन के अंतर्गत लाया गया। इसके तहत नारियल को छोड़कर सभी फसलें सहायता पाने की पात्र हैं, नारियल के लिए नारियल विकास बोर्ड अलग से कार्य कर रहा है।
राज्य में कहां मिलती है सहायता?
राष्ट्रीय बागबानी मिशन के तहत सहायता राज्य बा$गबानी मिशन द्वारा दी जाती है तथा इसके लिए मिशन निदेशक जिम्मेदार होते हैं। जिला स्तर पर कार्यक्रम को कार्यान्वित करने की जिम्मेदारी जिला स्तरीय समिति(डी एल सी) की है, जिसके सदस्य सचिव के रूप में जिला बागबानी अधिकारी, काम करते हैं। सहायता प्राप्त करने के लिए इनसे सम्पर्क किया जा सकता है। यह योजना देश के 18 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों के 367 जिलों में चलाई जा रही है।
क्या है सहायता?
राष्ट्रीय बागबानी मिशन के तहत अनेक घटकों के लिए सहायता दी जाती है। इसमें विशेष रूप से निजी क्षेत्र शामिल है। इसमें पौधशालाओं, प्रयोगशालाओं और क्लीनिक की स्थापना, शस्योत्तर प्रबंधन (पोस्ट हार्वेस्ट मैनेजमेंट) तथा विपणन पर बुनियादी ढांचे का विकास शामिल है जो क्रेडिट लिंक बैक एंडेड सब्सिडी के रूप में दी जाती है। इसमें राष्ट्रीयकृत बैंकों/वित्तीय संगठनों से लाभार्थी को ऋण प्राप्त करना शामिल है। इन राष्ट्रीयकृत बैंकों / वित्तीय संगठनों में नाबार्ड, आई.डी.बी.आई, सीबी, आइसीआइसीआई, राज्य वित्त निगम, राज्य औद्योगिक विकास निगम, एन.बी.एफ.सी, एन.ई.जी.एफ.आई, राष्ट्रीय एस.सी/एसटी/अल्पसंख्यक/ पिछड़े वर्ग वित्तीय विकास निगम, राज्य/केन्द्र शासित प्रदेश के अन्य ऋण देने के लिए निर्धारित संस्थान, व्यावसायिक  तथा कॉपरेटिव बैंक शामिल हैं। सामानरूपी घटकों जैसे भंडारण, पैक हाउस आदि के लिए सहायता सिर्फ एक स्रोत से प्राप्त की जा सकती है। एनएचएम योजना के अंतर्गत, 24 लाख रुपए तक की प्राथमिक/मोबाइल खाद्य प्रसंस्करण इकाई लगाने के लिए सहयोग दिया जाता है। इससे बड़ी इकाइयों के लिए खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय द्वारा सहयोग किया जाता है।
इस मिशन के तहत सिंचाई के लिए जल स्रोतों के सृजन के लिए सहायता उपलब्ध है। यह सहायता सिर्फ समुदाय आधारित परियोजनाओं/ पंचायती राज संस्थाओं/ किसान वर्गों को दी जाती है। विशिष्ट क्लस्टर (एक क्लस्टर में बागबानी फसल के तहत समग्र क्षेत्र 100 हेक्टेअर से ज्यादा नहीं होता)में फसल के समग्र विकास के लिए व्यापक अवधारणा पर काम किया जाता है, अत: किसानों को दो फसलों की बजाय मुख्य फसल के लिए सहायता दी जाती है। सन 2010-11 से, एकीकृत मशरूम इकाई के लिए अंडे, खाद उत्पादन और प्रशिक्षण, अंडे बनाने की इकाई, तथा खाद बनाने की इकाई जैसे कार्यों के लिए सहयोग उपलब्ध है। मधुमक्खी पालन गतिविधियों जैसे बी ब्रीड्स द्वारा मधुमक्खी कालोनियों का उत्पादन, मधुमक्खी कालोनियों का वितरण, छत्ते में शहद एकत्र करना और मधुमक्खी को पालने के औजार के लिए भी सहयोग उपलब्ध है।

फाइनैंशल लिटॅरॅसी एंड क्रेडिट काउंसॅलिंग

वर्तमान में देश के 28 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 640 जिले हैं। इन सभी जिलों में रिजर्व बैंक के एक आदेशानुसार वहां के लीड बैंकों द्वारा विदेशों की तर्ज पर फाइनैंशल लिटॅरॅसी एंड क्रेडिट काउन्सॅलिंग(एफएलसीसी) अथवा वित्तीय साक्षरता एवं साख परामर्श केन्द्र खोले जाने हैं। आइए बांचते हैं कि इन केंद्रों की जनम-पतरी और जानते हैं कि इनकी जरूरत क्यों पड़ी तथा इनके उद्देश्य एवं कार्य क्या हैं?
आरम्भ
रिजर्व बैंक द्वारा नियुक्त कृषि ऋणों की प्रक्रियाओं की जांच हेतु कार्यसमूह के अध्यक्ष सी. पी. स्वर्णकार ने अपनी अप्रैल 2007 की रिपोर्ट में यह अनुशंसा की थी कि ऋण एवं तकनीकी परामर्श हेतु एकल रूप से अथवा सामूहिक संसाधनों के साथ बैंकों को परामर्श केन्द्र खोलने हेतु सक्रियतापूर्वक विचार करना चाहिए। इससे किसानों में अपने अधिकार एवं दायित्व के प्रति बहुत हद तक जागरूकता आएगी। बैंक शाखाओं को जितनी अधिक हो सके उतनी जानकारियां किसानों के लिए उपलब्ध करानी चाहिए। इसके अतिरिक्त, आपदाग्रस्त किसानों की सहायता हेतु सुझाव के लिए रिजर्व बैंक द्वारा गठित एक अन्य कार्य समूह के अध्यक्ष एस. एस. जोल ने भी सुझाव दिया था कि ऋण की व्यवहार्यता को बढ़ाने के लिए वित्तीय एवं जीविका संबंधी परामर्श महत्वपूर्ण हैं। इन कार्यसमूहों के सुझावों पर आधारित तथा वर्ष 2007-08 के लिए वार्षिक नीति विवरण की घोषणा के रूप में रिजर्व बैंक ने सभी राज्यों में स्थित राज्य स्तरीय बैंक  समिति को जारी किए गए एक सर्कुलर द्वारा यह सलाह दी कि वे अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले राज्य अथवा केन्द्रशासित प्रदेश के सभी जिलों में वित्तीय साक्षरता एवं साख परामर्श केन्द्र की स्थापना करें।
साख परामर्श- वैश्विक परिदृश्य
साख परामर्श जिसे युनाइटेड किंगडम में ऋण परामर्श अर्थात डेब्ट काउंसलिंग कहते हैं यह एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा ग्राहकों को ऐसे ऋणों से बचने के बारे में सलाह दी जाती है जिसे चुकाया नहीं जा सकता। साख परामर्श के अंतर्गत प्राय: ग्राहक के लिए ऋण प्रबन्धन योजना अर्थात डेट मैनेजमेंट प्लान बनाने हेतु ऋण लेने वाले व्यक्तियों के साथ वार्ता शामिल है। ऋणदाता के साथ ऋण चुकाने की योजना बनाकर ऋण लेने वाले व्यक्ति को ऋण चुकाने में मदद करता है। ऋण प्रबन्धन योजनाओं में ग्राहकों को भुगतानों अथवा ब्याज में दी जाने वाली छूट का निर्धारण करने हेतु साख परामर्शदाता ऋणदाताओं द्वारा दी गई शर्तों के हवाले से अपने ग्राहकों को उनकी समस्याओं का वास्तविक समाधान ढूंढने में मदद करता है और उन्हें ऋणों के संभव भुगतान के लिए राजी करता है। साख परामर्श को गोपनीय रखा जाता है।
पहली ज्ञात साख परामर्श एजेंसी की स्थापना वर्ष 1951 में, अमेरिका में की गई, जब साख देने वालों ने नैशनल फाउंडेशन फॉर क्रेडिट काउंसॅलिंग (एनएफसीसी) का गठन किया था। उनका उद्देश्य था वित्तीय शिक्षा को बढ़ावा देना तथा उपभोक्ताओं को दिवालिया होने से बचाना। वहीं वर्ष 1968 में हाउजिंग एंड अरबन डिवेलपमेंट अधिनियम के पास होने के बाद साख परामर्श को पहचान मिली। अमेरिका में ही वर्ष 1993 में असोसिएशन ऑफ इंडिपेंडेंट कंज्यूमर साख काउंसॅलिंग एजेंसीज की स्थापना तथा बैंकरप्सी एब्यूज प्रिवेंशन एंड कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट 2005 ने साख परामर्श को अमेरिका में दिवालियापन के लिए कंज्यूमर डेटर फाइलिंग के लिए जरूरी बना दिया। जल्द ही इस संकल्पना को अन्य देशों में भी चलाया जाने लगा, तथा पिछले कुछ वर्षों में बहुत सारे देशों ने साख परामर्श की दिशा में अहम कदम उठाए। वर्ष 1993 में ब्रिटेन में स्थापित कंज्यूमर साख काउंसलिंग सर्विस उपभोक्ताओं को बजट बनाने तथा धन के बेहतर प्रबंधन के लिए मदद करती है। साथ ही एक राष्ट्रीय ऋण रेखा भी है, जिसके जरिए बैंक का ग्राहक नि:शुल्क वित्तीय परामर्श प्राप्त कर सकता है। वर्ष 2000 में कनाडा में एक गैर-लाभ वाले परामर्श संगठन की स्थापना की गई। टम्र्ड क्रेडिट काउंसलिंग कनाडा का उद्देश्य अपने सभी नागरिकों के लिए गैर-लाभ वाले साख परामर्श की गुणवत्ता तथा उपलब्धता को बढ़ावा देना है। द बैंक नेगारा, मलेशिया ने क्रेडिट काउंसॅलिंग एंड डेट प्रबंधन एजेंसी की स्थापना की है, तथा वर्ष 2003 में सिंगापुर क्रेडिट काउंसॅलिंग की स्थापना हुई, जिसका लक्ष्य है वित्तीय रूप से मुसीबत में पड़े उपभोक्ताओं का मदद करना।
साख परामर्श की आवश्यकता
हाल के वर्षों में व्यावसायिक बैंकिंग क्षेत्र में खुदरा ऋणों का चलन काफी बढ़ गया है तथा खुदरा ऋण बैंकों का मुख्य व्यवसाय बन गया है। उपभोक्ता ऋणों, गृह ऋणों, क्रेडिट कार्ड तथा व्यक्तिगत ऋणों में तेजी से वृद्धि हुई है। वर्ष 2001 में शहरी एवं महानगरीय क्षेत्रों के अंतर्गत हाउजिंग, कंज्यूमर ड्यूरेबल्ज तथा व्यक्तिगत ऋणों (क्रेडिट कार्ड सहित) के अंतर्गत 87.1 लाख खाते थे जिनके तहत ऋण 42 हजार 700 करोड रूपए था, वर्ष 2006 में यह बढ़कर 255 लाख खाते तथा ऋण राशि कुल 2 लाख 58 हजार करोड़ रूपए हो गयी। यह वृद्धि अन्य क्षेत्रों की 23.4 प्रतिशत की तुलना में 43.3 प्रतिशत चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर रही।
शहरी क्षेत्रों में बढ़ते हुए मध्यवर्ग और लोगों की बदलती जीवनशैली के कारण अधिक से अधिक लोग संपत्ति निर्माण के अतिरिक्त अपनी उपभोक्ता आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऋण लेने लगे हैं। बिना सही योजना के लिया गया ऋण और अचानक आई बीमारी, नौकरी छूट जाने जैसे कुछ आपात स्थितियों में उपलब्ध आय सीमा के अंतर्गत ऋण चुका पाना मुश्किल हो जाता है। व्यक्तिगत ऋणों के जबरदस्त विपणन एवं ऋण लेने वाले कमजोर वर्ग के हाथ में क्रेडिट कार्ड आने से ऋण ग्रस्तता एवं एनपीए (नॉन पर्फोमिंग असेट) में अच्छी-खासी वृद्धि हुई है। दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में, खासकर वर्षा आधारित कृषि वाले क्षेत्रों में मानसून की अनियमितता और जोखिम कम करने की उचित नीतियों के अभाव में वर्षा आधारित कृषक वर्ग को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। बिना सोचे-समझे ऋण लेने के मामले में ग्रामीण क्षेत्र, शहरी क्षेत्र से एक कदम आगे ही है उसका मुख्य कारण शहरी एवं ग्रामीण जनसंख्या में साक्षरता स्तर में भारी अंतर होना भी है। वर्ष 2001 में देश भर की औसत साक्षरता दर केवल 65.4 प्रतिशत थी। किसानों पर किए गए परिस्थिति मूल्यांकन सर्वेक्षण (सिचुएशन असेसमेंट सर्वे) के अनुसार वर्ष 2003 में 893.3 लाख किसान परिवारों में से 434.2 लाख (48.6 प्रतिशत) किसान परिवार ऋण के बोझ तले दबे थे। औसत बकाया ऋण प्रति किसान परिवार 12,585 रु. था। राज्यवार विश्लेषण से स्पष्ट हुआ कि वर्ष 2003 में ऋणग्रस्तता की घटना ऐसे राज्यों में अधिक हुई जहां अधिक लागत वाली खेती की जाती थी अथवा जहां की कृषि विविधतापूर्ण थी। 2003 में किसान परिवारों के कुल ऋण की राशि 1.12 लाख करोड़ रु. थी; जिसमें से 65,000 करोड़ रु. संस्थागत स्रोतों से एवं 48,000 करोड़ रु. गैर-संस्थागत एजेंसियों से दिए गए थे। व्यक्तिगत महाजनों और सूद व्ययापारियों द्वारा 29,000 करोड़ रु. तथा मंडी में कारोबार करने वाले व्यापारियों द्वारा 6,000 करोड़ रु, दिए गए। गैर-संस्थागत स्रोतों से प्राप्त लगभग 18,000 करोड़ रु. के ऋण का एक बड़ा भाग ऐसे महाजनों द्वारा दिया गया था जिन्होंने 30 प्रतिशत से अधिक ब्याज दर रखी थी। जून 2004 के बाद से, यद्यपि कृषि क्षेत्र को बैंकिंग व्यवस्था से मिलने वाले ऋणों में अच्छी खासी वृद्धि हुई है, अनौपचारिक वित्त पौषण आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। आर. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में गठित कृषि ऋणग्रस्तता पर विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट के अनुसार किसानों की ऋणग्रस्तता की स्थिति को आपदाकारी घटना के रूप में देखा गया है। अकसर ऐसा तब होता है जब लिए गए ऋण को उत्पादक कार्यों में इस्तेमाल न किया जाए। ऋण लेना उस स्थिति में भी आपदाकारी घटना बन जाती है जब ऋण लेने वाले किसान की फसल प्राकृतिक आपदाओं, कीटों, नकली बीजों, गैर-बुद्धिमत्तापूर्ण निवेशों अथवा अन्य अप्रत्याशित कारणों से बरबाद हो जाए या उच्च उत्पादन लागत, पिछड़ी हुई तकनीक के कारण उपज अलाभकारी हो जाए तथा बाजार में मिलने वाला मूल्य इतना अपर्याप्त हो कि किसान के लिए ऋण की मूल राशि और उसका ब्याज चुका पाना असंभव हो जाए।
इस संदर्भ में वित्तीय साक्षरता एवं साख परामर्श अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आपदाग्रस्त कर्जदारों को ऋण-बकाया की स्थिति से उबरने में सक्षम बनाने के लिए फॉलोअप सेवाओं को विकसित किए जाने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। ऐसे में साख परामर्शदाता कर्जदार एवं संबंधित बैंक के बीच अस्थाई मध्यस्थ की भूमिका निभाता है। अनेक स्थितियों में, खासकर अधिक कमजोर वर्गों के लोग बैंकों को अपनी वित्तीय स्थिति के बारे में साफ-साफ बताकर कोई समझौता कर पाने में सक्षम नहीं होते। इसलिए, यह खुद बैंकों के हित में होगा कि वे उचित वित्तीय शिक्षा एवं वित्तीय परामर्श के द्वारा अपने कर्जदारों की मदद करें। ज्ञात रहे ऋण परामर्श व्यक्तिगत कर्जदारों के लिए है, संस्थागत कर्जदारों के लिए नहीं।
भारतीय रिजर्व बैंक उठाए गए कदम
रिजर्व बैंक ने एक परियोजना अपने हाथ में ली है जिसका नाम 'परियोजना वित्तीय साक्षरताÓ है। इस परियोजना का उद्देश्य है केन्द्रीय बैंक तथा सामान्य बैंकिंग अवधारणाओं से संबंधित जानकारियों को विभिन्न लक्षित समूहों, जैसे स्कूल एवं कॉलेज जाने वाले छात्र-छात्राओं, महिलाओं, ग्रामीण एवं शहरी गरीबों, रक्षाकर्मियों तथा वरिष्ठ नागरिकों में प्रसारित करना। लक्षित समूहों तक जानकारियों का प्रसार अन्य माध्यमों के साथ-साथ बैंकों, स्थानीय सरकारी तंत्र, एनजीओ, स्कूलों तथा कॉलेजों द्वारा प्रस्तुतिकरणों, पर्चों, पुस्तिकाओं, फिल्मों तथा रिजर्व बैंक के वेबसाइट के जरिए किया गया है। रिजर्व बैंक ने इसके लिए अपनी वेबसाइट में एक लिंक आम लोगों के लिए बना रखा है जिसके माध्यम से उन्हें अंग्रेजी, हिन्दी तथा भारत की 12 अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में वित्तीय जानकारी प्राप्त हो सकती है। अभी हाल में रिजर्व बैंक ने अंतर-स्नातक छात्रों में बैंकिंग क्षेत्र तथा रिजर्व बैंक के बारे में जागरूकता एवं दिलचस्पी पैदा करने के लिए 'आरबीआई युवा विद्वत् पुरस्कार योजना आरंभ की है जिसके अंतर्गत 150 युवा विद्वानों का देशव्यापी प्रतियोगिता परीक्षा के जरिए चयन किया जाएगा और रिजर्व बैंक पर छोटी अवधि की परियोजनाओं पर कार्य करने के लिए उन्हें स्कॉलरशिप प्रदान की जाएगी
बैंकों द्वारा उठाए गए कदम
हाल ही में साख परामर्श पहल के अध्ययन हेतु रिजर्व बैंक द्वारा एक आंतरिक समूह के गठन के बाद कुछ राज्यों में कुछ परामर्श केन्द्रों स्थापित किए गए हैं जैसे- बैंक ऑफ इंडिया द्वारा 'अभय; इसीआइसीआइ का 'दिशा ट्रस्ट तथा बैंक ऑफ बड़ौदा की पहल ग्रामीण परामर्श केन्द्र 'सारथी के अतिरिक्त सभी लीड बैंकों द्वारा अपने-अपने जिलों में ऐसे केंद्र आरम्भ किए हैं। इन केन्द्रों पर परामर्शदाता लोगों को आमने-सामने की प्रत्यक्ष सलाह देकर तो मदद करते ही हैं, इसके अतिरिक्त लोगों की सहायता उनके द्वारा टेलीफोन, ई-मेल अथवा पत्राचार के जरिए भी की जाती है।
कार्य क्षेत्र
यद्यपि साख परामर्श सेवाएं बैंकों द्वारा ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में प्रदान की जा सकती हैं, इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारतीय जनसंख्या का विशाल भाग ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है जिनकी साक्षरता का स्तर शहरी जनसंख्या की साक्षरता स्तर से निम्न है। ग्रामीण जनसंख्या अपनी वित्तीय जरूरतों के लिए अनौपचारिक क्षेत्रों पर अधिक निर्भर है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित केन्द्र कृषक समुदायों तथा कृषि से संबंधित व्यवसायों से जुड़े लोगों की वित्तीय साक्षरता एवं परामर्श पर केन्द्रित हो सकते हैं। महानगरों व शहरी क्षेत्रों में स्थापित केन्द्र ऐसे लोगों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं जिनपर क्रेडिट कार्ड, व्यक्तिगत ऋण, गृह ऋण इत्यादि बकाया हों। अपने नेटवर्क और पहुंच के अनुसार राजकीय क्षेत्र के बैंक ग्रामीण क्षेत्रों पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे जबकि निजी एवं विदेशी बैंक अपने परामर्श केन्द्र शहरी क्षेत्रों में स्थापित करेंगे।
केंद्रों का संचालन
एफएलसीसी के संचालन के लिए, बैंकों द्वारा एकल रूप से अथवा अन्य बैंकों के साथ संयुक्त रूप से ट्रस्टों अथवा सोसाइटियों की स्थापना की गई है। बैंक ऐसे ट्रस्ट अथवा सोसाइटी के बोर्ड में स्थानीय सम्मानित नागरिकों को शामिल कर सकता है तथापि, कार्यरत बैंककर्मी बोर्ड में शामिल नहीं किए जा सकते। आरंभ में लीड बैंकों द्वारा जिला मुख्यालयों में एफएलसीसी की स्थापना के लिए कदम उठाए गए हैं अधिकाधिक विस्तार हेतु एफएलसीसीज की स्थापना सभी स्तरों अर्थात प्रखंड, जिला, शहर तथा महानगर स्तरों पर की जा सकती है। परामर्श केन्द्रों को बैंक के साथ नजदीकी संबंध बनाए रखना चाहिए और यथासंभव इन्हें बैंक परिसरों में स्थित नहीं होना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में यदि लागत कम करने की दृष्टि से बैंक शाखा के परिसर का उपयोग किया जाता है तो इसे पूरी तरह अलग होना चाहिए। इसके पीछे यह धारणा है कि इन केन्द्रों को संबद्ध बैंकों के वसूली अथवा विपणन एजेंटों के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए और बैंक के ग्राहक वर्ग, यहां तक कि दूसरे बैंकों के ग्राहक वर्ग भी स्वयं अपनी इच्छा से इन केन्द्रों से संपर्क करने में सुविधा अनुभव कर सके। परामर्श एवं ऋण प्रबन्धन सेवाएं ग्राहकों को नि:शुल्क उपलब्ध कराई जाएंगी ताकि उन पर कोई अतिरिक्त बोझ न पड़े।
साख परामर्श तथा ऋण निपटारे की प्रणाली
बैंकों को मुसीबत में पड़े अपने ग्राहकों को या किसी भी बैंक के ग्राहकों को एफएलसीसी में संपर्क करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। एफएलसीसी समूह परामर्श के लिए खुले सेमिनार का आयोजन कर सकता है, जिन्हें या तो केंद्र पर या जिले के विभिन्न स्थानों पर आयोजित किया जा सकता है। सिंगल क्रेडिटर-डेट के लिए एफएलसीसी उधारकर्ता को संबंधित बैंक से साथ मोल-भाव करने में मदद कर सकता है। व्यक्तियों द्वारा उपलब्ध बहु-प्रायोजन ऋण की स्थिति में खुद भी  बैंक/बैंकों के साथ मोल-भाव कर सकता है, जो उधार राशि को पुनर्गठित करने के लिए व्यापक फैलाव वाले हों, तथा पुन: वसूली को यथा अनुपात (प्रो-रेटा) आधार पर साझा किया जाए। हालांकि एफएलसीसी स्वयं को धन की वसूली तथा वितरण में शामिल नहीं करेगा। यह कार्य संबंधित बैंक का होगा या उस व्यक्ति या संस्था का जिसे बैंकों की तरफ से नियुक्त किया गया हो।
शिक्षा तथा प्रशिक्षण- परामर्शदाता
चूंकि परामर्श केंद्र परेशान उधारकर्ता को मदद करने तथा मार्गदर्शन देने में अहम और जिम्मेदार भूमिका निभाता है, अत: यह आवश्यक है कि केवल सुशिक्षित/सुप्रशिक्षित परामर्शदाताओं का ही चयन इन केंद्रों पर फुल टाइम कर्मचारी के रूप में किया जाए। वर्ष 2008-09 के अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री ने यह संकेत दिया कि ऐसे व्यक्ति जो सेवा-निवृत बैंक अधिकारी, या पूर्व सेवाकर्मी इत्यादि हैं, भी प्रमाणित परामर्शदाता के रूप में नियुक्त किए जाएंगे। साख परामर्शदाता को बैंकिंग, कानून, वित्त के अनुभव होने चाहिए तथा वे बातचीत के बेहतरीन हुनर तथा टीम बनाने की क्षमता वाले होने चाहिए। वर्तमान में व्यक्तिगत परामर्शदाता के लिए क्षमता तथा ज्ञान को अद्यतन करना काफी अहम हो गया है। इस कार्य के लिए बैंकों द्वारा कुछ प्रशिक्षण भी दिया जाता है, पर यह वित्तीय प्रबंधन पर समग्र कोर्स न होकर केवल दी जाने वाली सेवाओं पर ही केंद्रित होता है। परामर्शदाताओं को बैंकिंग उद्योग की हालिया प्रगति के बारे में अद्यतन जानकारियां होनी जरूरी हैं। निरंतर रूप से अपने ज्ञान में इज़ाफा करने के लिए भी परामर्शदाताओं को अपडेट रहने की जरूरत होती है। प्रशिक्षित परामर्शदाता की नियमित आपूर्ति के लिए इंडिअन इंस्ट्यिूट ऑफ बैंकिंग एवं फिनैंस द्वारा साख परामर्श और ऋण प्रबंधन पर विशेष कोर्स का आयोजन किया जाना तथा व्यावसायिक संस्थानों द्वारा बैंकिंग तथा वित्त से जुड़े कोर्सिज किए हुए लोगों को लेना भी उपयोगी हो सकता है।
प्रचार
सभी संस्थानों लोगों को विभिन्न योजनाओं/सुविधाओं के बारे में जागरूक बनाने पर जोर देने के लिए प्रचार के सभी रूपों, जैसे प्रेस कॉन्फे्रंस, वर्कशॉप, प्रकाशन, वेबसाइट, रोड शो, मोबाइल यूनिट, ग्राम मेला इत्यादि का इस्तेमाल करेंगे। योजनाबद्ध तरीके से आगे बढऩे के लिए वित्तीय साक्षरता तथा परामर्श पर एक स्थायी समिति का गठन रिजर्व बैंक द्वारा किया गया है, जिसमें रिजर्व बैंक के सदस्य, नाबार्ड, आइबीए, बीसीएसबीआइ, सीआइबीआइएल, तथा उस क्षेत्र में कार्य करने वाले एनजीओ तथा अन्य उपभोक्ता संगठन शामिल हैं। बैंक के विभिन्न उत्पादों एवं सेवाओं के लिए ग्राहकों में जागरूकता लाने हेतु कृषि अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है तथा बचत एवं क्रेडिट कार्ड की अवधारणा, न्यूनतम शुल्कों का प्रभाव इत्यादि से लोगों को परिचित कराने हेतु उन्हें शिक्षित करने के लिए प्रशिक्षण एवं जागरूकता कैम्पों का आयोजन किया जाता है। ये परामर्श केन्द्र मुख्य रूप से बैंकों के परिसरों न होकर वहां होने चाहिए जहां किसानों एवं व्यापारियों को पहुंचने में सुविधा हो।
साख परामर्श केन्द्रों से जुड़ी परेशानियां
हालांकि यह प्रयास बहुत अच्छा है, इन केंद्रों के साथ कुछ व्यवहारिक अड़चने भी हैं। पहली और बड़ी परेशानी तो इन केंद्रों के पास किसी तरह का अधिकार न होना है। बैंक या ग्राहक दोनों ही इनकी सलाह मानने इंकार कर दें तो ये केंद्र कुछ नहीं कर सकते। एक ऐसे ही केंद्र में लम्बे समय से काम करने वाले एक अधिकारी के अनुसार 'भारत जैसे देश में नि:शुल्क सलाह किसी को नहीं चाहिए, इन परेशान लोगों को और पैसा या सौ प्रतिशत ऋण माफी चाहिए हमारी सलाह नहीं। इन प्रयासों को लोकप्रिय बनाने हेतु भी कोई प्रचार-प्रसार नहीं किया जा रहा है, कुछ केंद्रों को खुले तीन से चार माह हो चुका है मगर वहां आज तक एक-दो लोग ही बहुत मुश्किल से पहूंचे हैं। इन केंद्रों में ऐसे सेवा-निवृत अधिकारियों को बैठा रखा है जिनमें न तो ज्यादा भाग-दौड़ करना उत्साह है और न ही समस्या को सुलझाने की बेहतर समझ। खुद लीड बैंकों की भी ये प्रथमिकता में नहीं है, इसलिए ही तीन साल में 640 केंद्रों की बजाए देशभर में 100 से भी कम केंद्र ही खोले गए हैं। बेहतर होता कि इन केंद्रों में राजस्व विभाग का भी एक अधिकारी बैठाया जाता जो किसानों के विवादों और विभाग की कार्रवाही को समझकर उचित समाधान दे सकता था।

Monday, December 5, 2011

हल्का-फुल्का बाट-माप विभाग

भू-मीत के पिछले अंक में सावधान स्तंभ के लिए बाट-माप विभाग से कुछ जानकारी चाहिए थी। मकसद था पाठकों को नाप-तौल के बारे में सही जानकारी और कानूनी अधिकार के बारे में बताना। दो-तीन कोशिशों के बाद आखिर जिले के एकमात्र निरीक्षक बी आर जांगिड़ से बात हुई। वांछित जानकारी मिल गई और पाठकों तक पहुंच भी गई। इन सब में बातों में एक ही परेशानी आई, बाट-माप अधिकारी से बात करने में। देरी का कारण निरीक्षक जांगिड़ ने बताया कि उनके पास इस जिले के अलावा हनुमानगढ़ का भी अतिरिक्त कार्यभार है। इतने बड़े क्षेत्र में मात्र एक निरीक्षक से सारा काम व्यवस्थित नहीं हो पाता इसलिए मुख्यालय पर कम ही रह पाता हूं।
इससे पहले कि हम गोरखबाबा की पहेली में उलझ जाएं जानते हैं कि इस विभाग का काम और अधिकार क्या हैं? हर वह वस्तु जो तौलकर या नापकर बेची जाती है वो खरीददार तक सही व पूरी पहुंचे इसके लिए सरकार ने यह विभाग बनाया है। इस विभाग का काम है उन सब व्यापारियों को जो वस्तुएं तौल या नाप कर बेचते हैं को साल में एक बार उनके नाप-तौल के उपकरणों का निर्धारित शुल्क लेकर सत्यापन करना। यह शुल्क साल भर का सौ-दो सौ रूपए से लेकर दो-तीन हजार तक हो सकता है। जो व्यापारी ऐसा नहीं करते उन्हें 500 से 25 हजार तक जुर्माना तथा 5 साल तक की जेल भी हो सकती है। सत्यापन के अलावा इनका काम है शिकायत मिलने पर या स्वयं अचानक जांच करने की और यह देखने की, कि विक्रेता पूरा नाप या तौल रहा है। इसमें चूक होने पर भी जुर्माने और सजा का प्रावधान है।
इसमें गौरखधंधा क्या हो सकता है, सिवाए छोटी-मोटी रिश्वत और कामचोरी के? सवाल यहां रिश्वत या कामचोरी का नहीं है, इस गोरखधंधे में यह समस्या तो बहुत ही छोटी और आखिरी है। बड़ी समस्या तो यह है कि 16लाख की आबादी वाले इन दोनों जिलों में सब्जी बेचने वालों से लेकर शॉपिंग मॉल, सुनार, पेट्रोल पंप, किराना व कपड़े की दुकानें, कृषि उपज मंडियां आदि मिलाकर करीब तीन लाख संस्थान हैं। इन सबके उपकरणों का सत्यापन तो दूर उन्हें देखने भर के लिए एक आदमी को सात जन्म कम पड़ जाएं। यह हाल अकेले इस जिले और राज्य का ही नहीं सीमावर्ती राज्यों हरियाणा और पंजाब का भी है। होना यह चाहिए कि वे सभी संस्थान जो नापने-तौलने का काम करते हैं, या नाप-तौल के उपकरण बेचते या ठीक भी करते हैं उन्हें इस विभाग के पास निर्धारित समय पर जाकर स्वंय ही अपने उपकरणों का सत्यापन करवाना होता है, और मजे की बात यह कि 80 प्रतिशत दुकानदार इस विभाग और कानून के बारे में जानते तक नहीं।
राजस्व उगाहने वाले इस विभाग में इतना कम स्टाफ क्यों है? के जवाब में राज्य के बाट-माप विभाग के संयुक्त निदेशक पी एन पांडे का जवाब था कि- हमारे विभाग का पहला उद्देश्य राजस्व कमाना नहीं है, फिर भी इस स्टाफ के साथ हमने गत वर्ष 5 करोड़ रूपए का राजस्व जमा किया है। जब उनसे पूछा गया कि राजस्व कमाना न सही पर खरीददार को पूरा सामान मिले, उसके हितों की रक्षा के लिए क्या स्टाफ पूरा है? का जवाब था-नई भर्ती करना राज्य सरकार का काम है, फिलहाल हमारे पास 34 निरीक्षक हैं और 30 नई भर्तियां हो चुकी हैं।
गोरखबाबा की पहेली यह है कि राजस्थान की 6करोड़ 86लाख की आबादी, लाखों तौल-माप कर बेचने वाले संस्थान और मात्र 60 से 65 निरीक्षक। एक अनुमान के अनुसार राजस्थान में इस विभाग के नीचे आने वाले व्यापारियों की संख्या लगभग 90 लाख है। आदर्श स्थिति के अनुसार 15 सौ संस्थानों पर एक निरीक्षक होना चाहिए, इस हिसाब से विभाग को 6हजार तो निरीक्षक ही चाहिएं। छोटे-बड़ों से विभिन्न दरों के अनुसार होने वाली मासिक आय होनी चाहिए करीब 45 करोड़ और सालना 540 करोड़। अगर वेतन और अन्य खर्च निकाल कर साल के 2 सौ करोड़ भी बच जाएं तो फायदा किसका है और नहीं हो रहा तो नुकसान किसका है?
अप्रेल 2011 से लागू विधिक माप विज्ञान अधिनियम 2009 के अनुसार, पहले जो सत्यापन साल में एक बार होता था अब वह दो साल में एक बार हुआ करेगा। इसके अलावा इस कानून में नाप-तोल के उपकरण जांचने से रोकने पर या जांच न करवाने पर बड़े जुर्माने और लम्बी सजा का प्रावधान है। जब 90 प्रतिशत लोग कानून तोडऩे वालें हों तो जुर्माना होता ही रहता है, लेकिन इक्के-दुक्के अपवाद को छोड़कर आज तक किसी एक भी व्यापारी सजा नहीं हुई। जबकि नए कानून में प्रावधान यह है कि लगातार कानून तोडऩे वाले को जेल तो होनी ही चाहिए। खैर यह एक अलग बहस का मुद्दा है कि आम भारतीय की नजर में कानून तोडऩा भोजन करने जैसा जरूरी काम है।
पहेली का यह पेच समझ नहीं आ रहा कि राजस्थान सरकार एक तरफ बेरोज़गारों को नौकरी देने का वादा करती है और दूसरी तरफ अपने वेतन से सौ गुणा ज्यादा कमाकर देने वाले पद खाली पड़े हैं। जहां दक्षिणी राज्यों में इस विभाग के पास पूरा स्टाफ ही नहीं, वाहन आदि की भी सुविधाएं हैं, वहीं हमारे यहां साइकिल तक का तोड़ा है। हालांकि इस विभाग में भर्ती करने पर सरकार को तिहरा फायदा है- बेरोज़गारी कम होगी, राज्य को अतिरिक्त आय होगी और ग्राहक हितों की रक्षा होगी। ऐसा कब तक हो पाएगा का जवाब शायद गोरख बाबा ही दे सकते हैं।

Friday, December 2, 2011

बाग की बारहखड़ी

हमारे देश के आम किसानों की धारणा है कि फलों की खेती फायदे का सौदा नहीं है, तभी तो हमारे देश में कुल खेती में बागबानी 4 प्रतिशत से भी कम है। इस उदासीनता का कारण जानने से पहले इन दो प्रश्नों का उत्तर जानने का कौशिश करें: 1-क्या बाग लगाना वास्तव में घाटे का घर है? 2-या बाग लगाने वालों में ही कुछ कमियां हैं?
पहले खोजते हैं दूसरे सवाल का जवाब। बाग लगाने से पहले अकसर लोग इस बात पर विचार ही नहीं करते कि किस मिट्टी, किस जलवायु और किस पानी के साथ किस किस्म के फलदार पेड़ लगाने चाहिए। वे यह भी ध्यान नहीं देते कि फल विशेष के पौधों में दूरी कितनी होनी चाहिए। बिना भूमि को सुधारे, मिट्टी की जांच करवाए फलों के पेड़-पौघे लगा दिए जाते हैं। एक बार बाग लगा देने के बाद वे उसकी देखभाल पर ध्यान भी नहीं देते। समय पर खाद और दवा पानी नहीं दिया जाता। इन्हीं सब कारणों से एक बाग घाटे का सौदा बन जाता है, दूसरी तरफ इन बातों को ध्यान में रखते हुए उचित ढंग से बाग लगाया जाए और ठीक से उसकी देखभाल करने वाले किसान को कभी नुकसान नहीं होता। अत: हमारा पहला सवाल ही गलत है। इस गलत सवाल का सही जवाब यह है कि बाग लगाना कभी घाटे का घर नहीं होता। आइए जानते हैं एक कामयाब और लाभदायक बाग लगाने के लिए किन बातों का ध्यान रखा जाना जरूरी है।
स्थान चुनते समय
हमेशा ऐसी ज़मीन बाग लगाने के लिए चुनें जो उपजाऊ हो। कंकड़ पत्थरवाली और ऊँची-नीची उबड़-खाबड़ ज़मीन बाग लगाने के लिए उपयुक्त नहीं होती। क्षारवाली, जिसमें नमक ज्यादा हों, और रेतीली ज़मीन भी बाग लगाने के लिए उचित नहीं होती। हल्की दोमट मिट्टी, जिसमें पानी का निकास अच्छा हो, सब प्रकार की फसलों के लिए उत्तम होती है।
सिंचाई का समुचित प्रबंध होना भी जरूरी है केवल नहर के भरोसे बड़ा बाग लगाना सही निर्णय नहीं है। जरूरत के समय अगर नहर से पानी न मिले तो बड़ा नुकसान हो सकता है। इसलिए बाग में कम से कम मीठे पानी का एक कुआँ होना बेहद जरूरी है। यदि 15 एकड़ का बाग लगाना हो और सिंचाई का प्रबंध केवल छ: एकड़ का हो तो पाँच पाँच एकड़ करके तीन या चार बार में पानी लगाना चाहिए, क्योंकि जब पेड़-पौधे बड़े और पुराने हो जाते हैं, तब उन्हें धरातली सिंचाई की ज्यादा जरूरत नहीं होती, वे भूमिगत जल भंडार से अपनी जरूरत का अधिकांश पानी खुद-ब-खुद खींच लेते हैं।
बाग हमेशा सड़क, परिवहन के लिए सुविधाजनक स्थान या रेलवे स्टेशन के पास लगाना चाहिए, ताकि उसकी उपज समय पर बाजार या मंडी में बिकने के लिए पहुँच सके। शहर से बहुत दूर गाँव के अंदर बाग लगाने से फसलों को मंडी तक पहुँचाने में बहुत परेशानी होती है और खर्चा तथा समय भी अधिक लगता है। अधिक समय लगने के कारण फल बाजार तक पहुंचते पहुंचते खराब होने लगते हैं। जहाँ तक हो, बाग किसी जंगल के पास नहीं लगाना चाहिए क्योंकि जंगल पास में होने के कारण नील गाय, सुअर, हिरन और चिडिय़ों आदि फसल को नष्ट करते हैं। इससे बाग की रखवाली पर अधिक खर्चा भी होता है। बाग लगाने से पहले एक बात और ध्यान में रखें कि समय पर स्थानीय मजदूर भी मिल सकें।
किस्म चुनते समय

बाग में लगाए जाने वाले वाली फसल की किस्मों का चुनाव करने के लिए निम्र बातों को ध्यान रखना चाहिए।
(1) फसल की किस्मों का चुनाव हमेशा भूमि के अनुसार होना चाहिए। कम उपजाऊ और पत्थरीली भूमि में आम नहीं लगाना चाहिए, वहां अमरूद जैसी कठोर किस्में ही लगानी चाहिए। इसी प्रकार थोड़ी रेह वाली और खराब ज़मीन में लसूड़ा, बेर, आँवला आदि के पेड़ ही लगाए जा सकते हैं। पानी ठहरनेवाले स्थान पर संतरा, माल्टा, नींबू आदि नहीं लगाने चाहिए, क्योंकि पानी के ठहरने से पेड़ों की जड़ें गलकर खराब हो जाती हैं। ऐसी जगह पर भी अमरूद किसी हद तक कामयाब हो सकता है।
(2) किस्मों का चुनाव करते समय उस स्थान की जलवायु को भी ध्यान में रखना चाहिए। ठडें इलाकों में सेब, खूबानी, नाशपाती आदि, और गर्म मैदानी भाग में केला, पपीता, आम, अमरूद, संतरा आदि लगाए जाते हैं तथा अधिक वर्षावाले क्षेत्रों में अंगूर नहीं लगता।
(3) फल की वे ही किस्में लगानी चाहिएं जिसकी माँग बाजार में हो और भाव भी अच्छे मिलने की उम्मीद हो। सस्ते और हर जगह लगाए जा सकने वाली किस्में ज्यादा फायदा नहीं देती। किस्म का चुनाव करते समय उद्यान विभाग के अधिकारियों से भी सलाह लेनी फायदेमंद रहती है।
बाग की तैयारी करते समय
जिस ज़मीन पर बाग लगाना है यदि उसमें पहले से खेती हो रही है, तो उसे ठीक करने में अधिक कठिनाई नहीं होती। भूमि कैसी है, यह जानने के लिए मिट्टी की जांच करवा लेनी चाहिए। उसके बाद ज़मीन उगे फालतू झाड़-झंखाड़ की सफाई करनी चाहिए। बबूल आदि जंगली पेड़ों और झाडिय़ों को जड़ सहित उखाड़ देना चाहिए, केवल ऊपरी हिस्सा काट देने से ये दोबारा बढ़ जाती हैं। एक दो छायादार पेड़ रहने-बैठने के स्थान पर, छोड़े भी जा सकते हैं। इस सफाई के बाद भूमि की सतह को समतल करें। यदि सतह समतल नहीं हो तो सिंचाई करने में असुविधा भी होती है और सब पेड़ों-पौघों को समान मात्रा में पानी नहीं पहुंचता। बरसात का पानी भी नीचे स्थानों में भर जाता है और बा$ग को नुकसान होता है। अत: भूमि का स्तर सिंचाई की सुविधा के अनुसार करना चाहिए।
यदि सारी ज़मीन को एक सा चौरस करना संभव न हो, तो उसे दो या अधिक भागों में बाँटकर हर भाग को अलग-अलग समतल कर लेना चाहिए। पर्वतीय क्षेत्रों में, जहाँ बड़े समतल मैदान नहीं होते वहा इसीलिए सीढ़ीदार खेत बनाए जाते हैं। इसके बाद पूरे खेते की एक गहरी जुताई कर दें जिससे ज़मीन भुरभुरी हो जाए और वर्षा का पानी भी ज़मीन में भली प्रकार पहुंच सके। सपाट ज़मीन में अधिकतर वर्षा का पानी बह जाता है। यदि संभव हो तो पूरे खत में हरी खादवाली फसल, जैसे सनई आदि, बोकर जोत देने से भूमि को अच्छी खाद मिल जाती है। इसके बाद पूरी भूमि में पेड़-पौधे लगाने के स्थानों पर निशान लगाने से पहले, कागज पर उसका नक्शा बना लें जिससे वांछित जगहों पर आसानी से सही-सही निशान लग सकें। यह रेखांकन या ले-आडट वर्गाकार, षट्भुजाकार, आयताकार आदि कैसा भी हो सकता है किन्तु वर्गाकार रेखांकन सुगम और सबसे अधिक प्रचलित है। इस विधि में एक पेड़ से दूसरे पेड़ के बीच का फासला और लाइन से लाइन के बीच का फासला एक समान होता है और आसपास के चार पेड़ों को सीधी रेखा से मिलाने पर एक वर्ग बन जाता है। निशान लगाना शुरू करने से पहले एक सीधी आधारभुजा डाल लेनी चाहिए। यह आधारभुजा पास की पक्की सड़क, अथवा इमारत या पास लगे हुए बाग, के समांतर डाली जा सकती है, अथवा भूमि का आकार देखकर उसके अनुसार डाली जा सकती है।
पेड़ों के बीच की दूरी
पेड़ों को उचित फासले पर लगाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्राय: भूमि में अधिक से अधिक पेड़ लगाने के लालच में लोग पेड़ पास-पास लगा देते हैं जबकि सच्चाई यह है कि निर्धारित दूर से कम दूरी पर पेड़ लगाने से उनको फैलने की जगह पूरी नहीं मिलती, और बढऩे पर वे आपस में मिल जाते हैं। घने बाग में पेड़ों को उपयुक्त मात्रा में धूप और हवा भी नहीं मिलती जो उनके उचित विकास और फलन के लिए जरूरी होती है। फलत: पेड़ों से अच्छी फसल नहीं मिलती। केवल चोटीवाले भाग में, जहाँ थोड़ी धूप तथा हवा पहुँचती है, वहां थोड़े-बहुत फल लगते हैं, जिनकी रखवाली करना और तोडऩा दोनों कठिन होता है। जानते हैं कुछ फलदार पेड़-पौधों के बीच कितना फासला होना चाहिए-
देशी आम                    40 फुट
कलमी आम                35 फुट
अमरूद                       25 फुट
नीबू/संतरा/किन्नू        20 फुट
लीची                           30 फुट
लुकाट                         25 फुट
पपीता                          8 फुट
कैसे लगाएं पेड़-पौधे?
पेड़ों लगाने के निशान ज़मीन पर लगा देने के बाद वहाँ तीन फुट चौड़े तथा तीन फुट गहरे गोल गड्ढे खोदने का काम जून तक कर लें, ताकि बरसात होने से पहले गड्ढों की मिट्टी को कम से कम 15-20 दिन हवा लग जाए। गड्ढों की मिट्टी में से कंकड़ पत्थर आदि निकाल कर उसमें लगभग 2 भाग सड़े गोबर की खाद मिला दें। गड्ढों में पानी भरने से मिट्टी बैठ जाती है, इसलिए गड्ढों को भरते समय मिट्टी को ज़मीन की सतह से लगभग दो इंच ऊँचा रखें। एक दो बार जब अच्छी वर्षा हो जाए, तब गड्ढों के बीचोबीच पौधे लगा दें। पौधे लगाते समय यह ध्यान रखें कि वे उसी गहराई तक लगे, जितना वह पहले क्यारी या गमले में लगा था। अधिक गहरा लगा देने से तना मिट्टी में दब जाता है और उसके सडऩे का अंदेशा रहता है। इसी प्रकार धरातल से ज्यादा ऊपर लगाने से पौधे की जड़ें खुली रह जाती हैं और उसे हानि पहुँचती है। यदि वर्षा न हो रही हो तो पौधे लगाने के बाद तुंरत पानी दें।
एक विशेष बात का हमेशा ख्याल रखें कि पौधे हमेशा किसी विश्वसनीय और प्रमाणिक नर्सरी या सरकारी पौधशाला से ही लें, चाहे उनका मूल्य कुछ अधिक देना पड़े। यदि शुरूआत ही गलत किस्मों से हो जाए तो नुकसान होना लाजमी है। फल आने पर जब मालूम पड़ता है कि खराब और गलत किस्मों के पेड़ लग गए हैं उस समय सिवा उन पेड़ों को निकालकर नए पेड़ लगाने के और कोई उपाय नहीं रहता और तब तक काफी समय और रुपया बेकार हो चुका होता है।
कैसे करें बाग की देखभाल
बाग लगाने के साथ आपका काम खत्म नहीं बल्कि शुरू होता है। इतनी मेहनत से लगाए गए बाग को एक छोटे बच्चे की परवरिश जितनी सार-संभाल चाहिए। जानते हैं बाग की देखभाल के तरीके।
लू एवं पाले से बचाव

गर्म हवाएं सदा पश्चिम से और ठंढी हवाएँ हमेशा उत्तर से चलती हैं। इन तेज, गर्म और ठंढी हवाओं को रोकने के लिए बाग की उत्तर और पश्चिम दिशा में ऊँचे बढऩे वाले पेड़ों की घनी पंक्ति लगा देनी चाहिए। इस पंक्ति को विंड ब्रेकर कहते हैं। हवा रोकने के लिए शीशम, देशी आम, जामुन आदि भी लगाए जा सकते हैं। इन पेड़ों का फासला लगभग 10-15 फुट तक रखा जाता है, जिससे वे घने होकर सीधे और लंबे बढ़ते रहें। लू एवं पाले से छोटे पेड़ों को बचाने के लिए गर्मी और सर्दी के मौसम में प्रत्येक पेड़ के चारों ओर फूस की छोटी टाट पूर्व दिशा में खुली लगाएं, जिससे पेड़ को धूप और हवा मिलती रहे। टाट्टियाँ केवल उन्हीं पेड़ों को बाँधते हैं जिन्हें लू एवं पाले से मरने का अंदेशा रहता है, जैसे आम, पपीता, लुकाट आदि। गरमी और जाड़ों में गहरी सिंचाई करने से भी लू और पाले से बचाव होता है।
जंगली जानवरों से रक्षा
बाग में जंगली जानवर, चौपाए आदि को रोकने के लिए बाग के चारों ओर कांटेदार बाढ़ लगाना आवश्यक है। इसका एक तरीका यह है कि चारों ओर लगभग तीन फुट गहरी एक खाई खोदें और उसकी मिट्टी बाग के अंदर की ओर खाई के किनारे एक चौड़ी और ऊँची मेड़ के रूप में जमा दें। यह खाई और ऊँची मेड़ अच्छी रोक का काम करती है। आजकल काँटेदार तार लगाने का भी प्रचलन है, पर यह जरा मंहगा सौदा है। यदि इस मेड़ के ऊपर थूहर या नागफनी आदि लगा दें तो यह ज्यादा रक्षात्मक है। इसके अलावा बाग के चारों और काँटेदार घनी झाड़ी जैसे खट्टी, बबूल आदि भी लगा सकते हैं। बाग की बाड़ से आप अतिरिक्त कमाई भी कर सकते हैं जैसे करौंदा या सागरगोटा जिसे कट-करंज भी कहते हैं लगा कर। करौंदा आचार आदी डालने के काम आता है तथा सागर गोटे के बीज दो-अढ़ाई सौ रूपए किलों तक बिक जाता है।
फलों को हानि पहुँचाने वाले जीव-जतुंओं, पक्षी एवं बंदर आदि से रक्षा के लिए आदमी ही रखना पड़ता है, जो पटाखे, गुलेल आदि चलाकर फसल की रक्षा करता है।
पेड़ों की कटाई छँटाई
जाड़े में पत्ती गिरानेवाले कुछ पेड़ों, जैसे फालसा, अंजीर, शहतूत आदि की सालाना कटाई-छँटाई करनी पड़ती है। इनकी छँटाई करने से नई शाखाएँ खूब फूटकर निकलती हैं और फल भी अच्छे लगते हैं। सालाना कटाई न करने से इनमें केवल गिनी चुनी शाखाएँ निकलती हैं, जिनमें थोड़े से फल लगते हैं। इनकी कटाई-छँटाई उस समय करते हैं, जब जाड़ों में ये पत्ती गिरा देते हैं।
पेड़ लगाने के बाद प्रारंभ के दो तीन साल तक सभी पेड़ों को सुंदर और सुदृढ़ बनाने के लिए कटाई-छँटाई की आवश्यकता होती है। भूमि से लगभग दो तीन फुट की ऊँचाई तक तने को साफ कर लेना चाहिए। तने के ऊपरी भाग में तीन या चार मजबूत भिन्न भिन्न दिशाओं में बढ़ती हुई शाखाओं को चुन लेना चाहिए और केवल उनको ही बढऩे देना चाहिए अन्य शाखाओं को तने के पास से काट देना चाहिए।
जैसे-जैसे पेड़ बढ़ते जाएँ, उनके थाले बढ़ाते जाना चाहिए। प्रति वर्ष थालों की गोड़ाई करके उनमें खाद देनी चाहिए। यह कार्य अक्टूबर तथा नवंबर के महीने में करें। बाग की सफाई का सदा ध्यान रखें। जंगली घास फूस साफ करते रहें। उचित सिंचाई का विशेष ध्यान रखें विशेषकर ग्रीष्म काल और फल लगने के बाद। किसी भी बीमारी अथवा कीड़ों के लगते ही उनको रोकने के लिए किसी अनुभवी बाग मालिक या फल-वैज्ञानिक की सलाह से उचित दवा का छिड़काव करें।

Wednesday, November 30, 2011

बागबानी से होंगे बाग-बाग

पिछले साल नवंबर माह में हॉर्टीकल्चरल सोसाइटी आफ इंडिया और नैशनल स्किल्ज फाउंडेशन आफ इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ था -भारतीय बागबानी कांग्रेस। उद्घाटन अवसर पर अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कृषि वैज्ञानिक, नीति नियोजक तथा चिंतक प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन ने 'बागबानी, व्यापार और आर्थिक समृद्धि'  विषय पर बोलते हुए कहा कि- बागबानी में कुपोषण और भूख से संबंधित भारतीय समस्याओं को हल करने की पर्याप्त क्षमता है, बस जरूरत है किसानों में बागबानी तकनीकों और फल, सब्जियों आदि की नई किस्मों के विषय में जागरूकता पैदा करने की। इसी कार्यक्रम में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डॉ. एस. अय्यप्पन ने भी इस बात की ताइद की- भारत में बागबानी एक विशाल क्षमता वाला क्षेत्र है, जहां खेती मशीनीकरण, गुणवत्तायुक्त बीज और रोपण सामग्री जैसे कुछ आवश्यक निवेश उपलब्ध करवा कर बहुत कुछ किया जा सकता है।
इन दोनों बयानों का महत्त्व कुछ और बढ़ जाता है, खासतौर पर उस समय जबकि पिछले कुछ सालों में कृषि क्षेत्र में विकास दर महज दो से तीन प्रतिशत के बीच रही हो। वर्ष 2002-03 में तो यह शून्य से भी कम थी, हालांकि अगले ही साल इसमें ज़बरदस्त उछाल आया और यह 10 फीसदी हो गई, और 2004-2005 में यह फिर लुढ़क कर महज 0.7 फीसदी रह गई। आर्थिक प्रगति में इस विसंगति को केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री पवनकुमार बंसल भी स्वीकार करते हैं। वे भी कहते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं कि हम कृषि क्षेत्र में पिछड़े हैं। अगर हमें विकास दर को 10 फीसदी करना है तो कृषि में भी चार फीसदी की दर से विकास जारी रखना होगा।
कृषि के क्षेत्र में हाल चाहे जो भी रहा हो पर लोगों को रोज़गार अवसर मुहैया करवाने, किसानों की स्थिति बेहतर बनाने और निर्यात बढ़ाने में बागबानी क्षेत्र का बड़ा हाथ रहा है। वर्ष 2003-04 में फलों और सब्जियों की पैदावार में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर था। फलों में आम, केला और नींबू का भी सबसे बड़ा उत्पादक देश भारत प्रति इकाई उत्पादकता के मामले में दुनिया में अग्रणी है। दुनिया का 39 प्रतिशत आम और 23 प्रतिशत केला भारत में ही उत्पादित किया जाता है। अंगूर के मामले में इसका नाम प्रति इकाई सर्वोच्च उत्पादकता के लिए दर्ज है और सुपारी तथा काजू उत्पादन में भी भारत पहले स्थान पर हैं। बागबानी फसलों के कुल उत्पादन में 2003-04 की तुलना में 8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है, इस अवधि के दौरान फल उत्पादन में 1.5 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। विश्व में सबसे बड़े चाय और कॉफी उत्पादकों में से भारत एक है तथा नारियल का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है।
इन सारी अच्छी-बुरी खबरों के बावजूद हमारी कुल खेती में बागबानी 4 प्रतिशत से भी कम है। इसलिए वैज्ञानिकों को फलों की उन्नत किस्मों के विकास तथा उनके गुणवत्ताशील बीज उत्पादन को प्राथमिकता देनी होगी, क्योंकि चीन और ब्राजील के 14, साढ़े 14 टन प्रति हेक्टेअर के मुकाबले हमारा उत्पादन मात्र 9 टन प्रति हेक्टेअर है। इस क्षेत्र में निवेश को प्रोत्साहन देने के लिए महत्त्वपूर्ण नीतिगत बदलाव करने होंगे क्योंकि इस क्षेत्र में विदेशी मुद्रा अर्जित करने की और रोज़गार सृजन की अपार संभावनाएं हैं और यह क्षेत्र देश में पोषण संकट से निपटने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

Saturday, October 29, 2011

कैसे लगेंगे बेहतर डॉपलर रेडार?

मौसम की अद्यतन जानकारी और अपेक्षाकृत सटीक पूर्वानुमान के लिए मौसम विभाग अब देश भर के मौसम केन्द्रों पर ऐसे डॉपलर वैदर रेडार लगाने जा रहा है जो 400 किलोमीटर के दायरे में हुए किसी भी बदलाव को दर्ज कर लेंगे तथा बारिश, ओलावृष्टि, आंधी-तूफान का छ: घंटे पहले अनुमान लगा लेंगे ताकि समय रहते बचाव के लिए जरूरी कदम उठाए जा सकें। यह प्रक्रिया कई राज्यों में तो आरम्भ हो चुकी है पर राजस्थान में इसकी शुरुआत नवंबर में जयपुर से होगी,जिसके बाद कोटा, जोधपुर, जैसलमेर व श्रीगंगानगर में नए वैदर रेडार लगाए जाएंगे।
135 साल पुराने यंत्रों के भरोसे चलने वाले मौसम विभाग और मौसम के भरोसे रहने वालों के लिए यह घोषणा किसी लॉटरी से कम नहीं है। हालांकि दो वैदर रेडार सेना के उपयोग के लिए देश की अंतरराष्ट्रीय सीमा के पास जैसलमेर व गंगानगर में लगे हुए हैं, यह अलग बात है कि गंगानगर का रेडार खराब हुए एक साल से ऊपर हो गया है। इस घोषणा से गत वर्ष अक्टूबर में इसरो के अध्यक्ष डॉ. के. राधाकृष्णन द्वारा जयपुर में की गई वह घोषणा याद आ गई जिसके अनुसार अगले दो माह में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के सहयोग से तहसील स्तर पर किसानों की सुविधा के लिए करीब 300 स्वचालित मौसम तंत्र लगाए जाएंगे जो इसरो के सैटेलाइट सूचना से सीधे जुड़े होंगे। राजस्थान क्षेत्रीय कार्यालय के महाप्रबंधक डॉ. जे.आर. शर्मा से जब इसकी प्रगति के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि  अब तक मात्र 51 ही मशीनें ही लग पाई हैं। क्योंकि तहसील स्तर पर इतने मंहगे यंत्र किस विभाग की सुपुदर्गी में रहेंगे, इस पर फैसला करने में राज्य सरकार समय ले रही है। 
मौसम विज्ञान विभाग के महानिदेशक डॉ.अजित त्यागी के अनुसार एक जगह डॉप्लर वैदर रेडार लगाने पर लगभग 20-25 करोड़ का खर्च होगा। इसके लिए कम से कम 3 - 4 मंजिला कम से कम 16 मीटर ऊंची इमारत भी बनानी होगी। जयपुर में इमारत बन चुकी है, वहां इसे नवंबर में चालू कर दिया जाएगा। अन्य क्षेत्रों के लिए जगह का चयन किया जा रहा है। आप सोच रहे होंगे कि अरबों रूपए की इस महती योजना में क्या गोरखध्धे वाली बात क्या है? पहेली में गांठ यह है कि एक आयातित रेडार 10 से 12 करोड़ का आएगा और उसे लगाने का खर्च आएगा 15 से 20 करोड़। राजस्थान में ऐसी स्थिति पर तीन कहावतें है- कपड़े से मंहगी सिलाई, दाढ़ी से बड़ी मूछें और टके की डोकरी और एक आना सिर मुंडाई।
इस बात को समझने के लिए गंगानगर का अकेला उदाहरण ही काफी है। भारत-पाक सीमा पर बसे सामरिक महत्त्व का यह जिला देश में कृषि के लिए भी अपनी अलग पहचान रखता है। तभी तो मौसम विभाग ने बहुत पहले ही यहां एक मंहगा रेडार लगा दिया था। इस क्षेत्र के मौसम विभाग का कार्यालय आज से 25-30 वर्ष पहले कृषि विज्ञान केन्द्र और कृषि अनुसंधान केन्द्र के कार्यालय के पास ही खुले वातावरण में स्थित था। उस समय शहर के विस्तार के लिए सैंकडों हेक्टेअर में कुछ नई आवासिय कॉलोनियों की योजना बनाई गई, बिना यह सोचे कि इन कॉलोनियों में बसने के लिए इतने लोग कहां से आएंगे? राजनैतिक रास्ता यह निकाला गया कि यहां-वहां बिखरे कुछ सरकारी कार्यालयों को यहां लाकर बसा दिया जाए। इसी 'बुद्धिमत्ता पूर्णनिर्णय के परिणामस्वरूप मौसम विभाग का कार्यालय हरे-भरे खुले वातावरण से उठाकर आबादी क्षेत्र में लाया गया। उस दूरदर्शी निर्णय का परिणाम आज भुगतना पड़ रहा है कि करोडों रुपए का नया डॉपलर रेडार लगाने के लिए इस कार्यालय में उचित जगह ही नहीं है,और आसपास की घनी आबादी की वजह से वायु और तापमान संबंधी आंकड़े हमेशा गलत होते हैं। नया डॉपलर रेडार लगाने के लिए में आसपास में अव्वल तो जमीन है ही नहीं अगर आबादी को हटाकर जमीन खरीदनी पड़े तो वह इतनी मंहगी साबित होगी कि उस कीमत में 10-15 डॉपलर रेडार आ जाएं। उस समय के नगर विकास न्यास के अध्यक्ष और आज के विधायक श्री राधेश्याम से उनके 30 वर्ष पहले किए गए इस निर्णय के बारे में जब पूछा तो उनका जवाब था- मैं संबंधित विभाग के अधिकारियों से इस बारे में पूछ कर बताऊंगा। जब उनसे यह पूछा गया कि जिस मौसम विभाग को आप शहर के बाहर से अंदर लाए थे आज वहां आबादी ज्यादा हो गई है, आसपास में पेड़ बहुत हैं,  तथा ऊंची-ऊंची इमारतें के कारण सही आंकड़े नही मिल पाते इस का क्या उपाय है?तब उनका जवाब था पेड़ कटे भी सकते हैं। पर इमारतों का क्या करेंगे? तब उनका जवाब था इस विभाग को एकबार फिर कहीं और स्थानांतरित कर देंगे।
पहेली की अगली गुत्थी सुलझाने के लिए राजस्थान मौसम विभाग के निदेशक श्री एस.एस. सिंह से बात की तो उनका कहना था कि पुरानी इमारत इस लायक है कि नई मशीन का चार-पांच टन वजन झेल सकती है, हमने इस विषय मे पीडब्ल्यूडी के तकनीकी अधिकारियों से सलाह लेली है। परन्तु पीडब्ल्यूडी के अधीशाषी अभियंता सुशील विश्रोई से जब पूछा गया कि क्या मौसम विभाग ने उनसे इमारत की क्षमता का निरीक्षण करवाया है? क्या यह इमारत चार-पांच टन वजन उठाने के लायक है? तो उनका कहना था कि उनके विभाग से इस तरह की कोई जानकारी विगत एक वर्ष में नहीं ली गई। उलझन यहीं समाप्त नहीं हो जाती मौसम विभाग के स्थानीय कार्यालय से जब इस बारे में पूछा गया तो उनका कहना था- इस इमारत में नहीं हमारी दूसरी इमारत में लगेगा डॉपलर रेडार। हकीकत क्या है यह तो ईश्वर जाने। अब डॉपलर रेडार लगने के बाद पता लगेगा कि गोरखबाबा के इस पहेली का सही जवाब क्या है?

Wednesday, October 19, 2011

सब्जी की खेती

साग-सब्जियों का हमारे दैनिक जीवन में कितना महत्त्व है यह किसी से छुपा नहीं हैं। दरअसल शाक-सब्जी भोजन के ऐसे स्रोत है जो न केवल हमारे भोजन का पोषक मूल्य बढ़ाते हैं बल्कि उसको स्वादिष्ट भी बनाते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो एक वयस्क व्यक्ति को संतुलित भोजन के लिए प्रतिदिन 85 ग्राम फल और 300 ग्राम साग-सब्जियों का सेवन करना चाहिए। हमारे देश में सब्जियों की औसत उपलब्धता मात्र 120 ग्राम से भी कम है, यानी सब्जी उत्पादन के व्यवसाय में अभी बहुत अवसर हैं।

सब्जी का बगीचा कहां लगाएं?
अगर सब्जी सिर्फ अपने परिवार के लिए ही चाहिए हो तो बगीचा के लिए स्थान घर का पिछवाड़ा हो सकता है जिसे आप लोग बाड़ी  भी कहते हैं। यह सुविधाजनक स्थान है क्योंकि परिवार के सदस्य खाली समय में साग-सब्जियों पर ध्यान दे सकते हैं तथा रसोईघर व स्नानघर से निकले पानी आसानी से सब्जी की क्यारियों में लगाया जा सकता है। इससे एक तो एकत्रित अनुपयोगी जल का निष्पादन हो सकेगा और दूसरे उससे होने वाले प्रदूषण से भी मुक्ति मिल जाएगी। साथ ही, सीमित क्षेत्र में साग-सब्जी उगाने से घरेलू आवश्यकता की पूर्ति भी हो सकेगी। सबसे अहम् बात यह कि सब्जी उत्पादन में रासायनिक पदार्थों का उपयोग करने की जरूरत भी नहीं होगी। अत: यह एक सुरक्षित पद्धति है तथा उत्पादित साग-सब्जी कीटनाशक दवाईयों से भी मुक्त होंगे। चार या पाँच व्यक्ति वाले औसत परिवार के लिए 1/20 एकड़ जमीन पर की गई सब्जी की खेती पर्याप्त हो सकती है। अगर आपने सब्जी को खेती के साथ-साथ अतिरिक्त कमाई के लिए लगाना चाहते हैं तो घर की बाड़ी इसके लिए छोटी रहेगी।
सब्जी उत्पादन के लिए खेत तैयार करना
सबसे पहले तो खेत से पत्थर, झाडिय़ों एवं बेकार के खरपतवार हटा दें और 30-40 सेंमी की गहराई तक कुदाली या हल की सहायता से जुताई करें। जमीन समतल करने के बाद आवश्यकता के अनुसार 45 सेंमी या 60 सेंमी की दूरी पर मेड़ या क्यारी बनाएँ। खेत में अच्छे ढंग से निर्मित 100 कि. ग्राम कृमि खाद चारों ओर फैला दें।
बुआई और पौध रोपण
सीधे बुआई की जाने वाली सब्जियां जैसे - भिंडी, सोयाबीन एवं लोबिया आदि की बुआई मेड़ या क्यारी बनाकर की जा सकती है। दो पौधे के बीच 30 सेंमी की दूरी रखें। प्याज, पुदीना एवं धनिये आदि को खेत के मेड़ पर उगाया जा सकता है।
प्रतिरोपित फसल, जैसे - टमाटर, बैंगन और मिर्ची आदि को एक महीना पूर्व नर्सरी बेड या मटके में उगाया जा सकता है। बुआई के बाद मिट्टी से ढ़क कर उसके ऊपर 250 ग्राम नीम की फली का पाउडर बनाकर छिड़काव किया जाता है ताकि इसे चीटियों आदि से बचाया जा सके। टमाटर के लिए 30 दिनों की बुआई के बाद तथा बैंगन, मिर्ची और बड़े प्याज के लिए 40-45 दिनों के बाद पौधे को नर्सरी से निकाल देना चाहिए। टमाटर, बैंगन और मिर्ची को 30-45 सेंमी की दूरी पर मेड़ या उससे सटाकर रोपाई की जाती है, जबकि बड़े प्याज के लिए मेड़ के दोनों ओर 10 सेंमी की जगह छोड़ी जाती है। रोपण के तीसरे दिन पौधों की सिंचाई करें। प्रारंभिक अवस्था में इस प्रतिरोपण को दो दिनों में एक दिन बाद पानी दिया जाए तथा बाद में 4 दिनों के बाद पानी दिया जा सकता है।
सब्जी के बगीचे का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है तथा वर्ष भर घरेलू साग-सब्जी की आवश्यकता की पूर्ति करना है। कुछ पद्धतियों को अपना कर यह लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।
बगीचे के एक छोर पर बारहमासी पौधों को उगाया जाना चाहिए जिससे इनकी छाया अन्य फसलों पर न पड़े तथा अन्य साग-सब्जी फसलों को पोषण दे सकें।
बगीचे के चारों ओर तथा आने-जाने के रास्ते का उपयोग विभिन्न अल्पावधि हरी साग-सब्जियों जैसे- धनिया, पालक, मेथी, पुदीना आदि उगाने के लिए किया जा सकता है।
बारहमासी खेत
सहजन की फली, केला, पपीता, कढ़ी पत्ता : उपरोक्त फसल व्यवस्था से यह पता चलता है कि वर्षभर बिना अंतराल के प्रत्येक खेत में कोई न कोई फसल अवश्य उगाई जा सकती है। साथ ही, कुछ खेत में एक साथ दो फसलें (एक लम्बी अवधि वाली और दूसरी कम अवधि वाली) भी उगाई जा सकती है।
सब्जी बगीचे के निर्माण से आर्थिक लाभ
व्यक्ति पहले अपने परिवार का पोषण करता उसके बाद आवश्यकता से अधिक होने पर उत्पाद को बाजार में बेच देता है या उसके बदले दूसरी सामग्री प्राप्त कर लेता है। कुछ मामले में घरेलू बगीचा आय सृजन का प्राथमिक उद्देश्य बन सकता है। अन्य मामले में, यह आय सृजन उद्देश्य के बजाय पारिवारिक सदस्यों के पोषण लक्ष्य को पूरी करने में मदद करता है। इस तरह, यह आय सृजन और पोषाहार का दोहरा लाभ प्रदान करता है।

राजीव गाँधी कृषक साथी योजना

राजस्थान में 30 अगस्त, 1994 से कृषि कार्य करते समय दुर्घटनाग्रस्त होने वाले किसानों व खेतीहर मजदूरों को आर्थिक सहायता देने के लिए 'कृषक साथी योजना राजस्थान राज्य कृषि विपणन बोर्ड द्वारा शुरू की गई थी जो 22 दिसम्बर, 2004 से 'किसान जीवन कल्याण योजना के नाम से जारी रही। राज्य सरकार ने 9 दिसम्बर 2009 को इस योजना का नाम संशोधित कर 'राजीव गांधी कृषक साथी योजना 2009 कर दिया गया है। इस योजना में राज्य के किसानों, खेतीहर मजदूरों, पंजीकृत पल्लेदार/हमाल/मजदूरों का खेत और मण्डी प्रांगण में कार्य करते समय, गाँव से मण्डी तक आते और लौटते समय दुर्घटना में मृत्यु या अंग-भंग होने पर कृषि उपज मण्डी समितियों के जरिये सहायता प्रदान की जाती है। आइए जानते हैं योजना में मिलने वाला लाभ किन परिस्थितियों में दिया जाता है-
  • किसानों और खेतीहर मजदूरों द्वारा कृषि कार्य के दौरान कृषि उपकरणों व यंत्रो का उपयोग करते हुए।
  • सिंचाई हेतु कुआं खोदते समय, ट्यूबवेल स्थापित करते समय एवं उसे संचालित करते समय बिजली का करन्ट लगने पर या खेत पर से गुजरने वाली विद्युत लाइन के क्षतिग्रस्त हो कर गिरने से मृत्यु या अंग-भंग होने पर भी।
  • फसलों पर रासायनिक दवाइयों का छिड़काव करते समय।
  • किसी भी मण्डी प्रांगण व राज्य सरकार द्वारा समय-समय पर घोषित क्रय केन्द्रों पर आते-जाते अथवा कृषि यंत्रों का उपयोग करते समय।
  • मण्डी में बोरियों की धांग लगाते समय।
  • मण्डी प्रांगण या खेत में ट्रैक्टर ट्रॉली, ऊँट, बैल या भैंसा गाड़ी के उलट जाने पर।
  • मण्डी प्रांगण में कार्यरत पल्लेदार/हमाल/ मज़दूर की मण्डी प्रांगण में कृषि विपणन कार्य करते समय।
  • अपने या किराये के साधन जिसमें काश्ताकार स्वयं हो, मण्डी में कृषि उपज लाते या ले जाते समय।
  • काश्तकार/खेतीहर मज़दूर के कृषि प्रयोजनार्थ टै्रक्टर, बैलगाड़ी, ऊँटगाड़ी आदि से खेत से घर लौटते या जाते समय।
  • कुट्टी/कुत्तर काटने की मशीन अथवा कृषि संयंत्रों से किसान व मज़दूर, पुरूष या महिलाओं के केश (बाल) मशीन में आने से हुई दुर्घटना पर।
  • खेत पर कार्य करते हुए साँप, जहरीले जानवर या ऊँट के काटने पर।
  • कृषि कार्य करते हुए आकाशीय बिजली गिरने से मृत्यु या अंग-भंग होने पर।
  • कृषि अथवा कृषि विपणन कार्य करते समय रीढ़ की हड्डी टूट जाने या सिर में चोट लगने से कोमा में जाने या इससे दो अंगों के स्थायी रूप से नाकारा होने पर।
  • कृषि सुरक्षा, पशु चराई हेतु पेड़ों की छंगाई या फसल की रखवाली करते समय दुर्घटना में काश्ताकार या मज़दूर की मृत्यु या अंग-भंग होने पर।
सहायता समिति
सहायता राशि स्वीकृति हेतु मण्डी समिति स्तर पर एक सहायता समिति का गठन किया गया है जिसमें कृषि उपज मण्डी समिति का अध्यक्ष, सचिव, स्थानीय प्रशासन प्रतिनिधि और राज्य बीमा विभाग का एक प्रतिनिधि (पूर्व में राज्य बीमा विभाग के प्रतिनिधि की उपस्थिति अनिवार्य नहीं थी जिसे अब राज्य बीमा के प्रतिनिधि एवं सचिव मण्डी समिति की उपस्थिति अनिवार्य की गयी है ताकि प्रकरणों का शीघ्र एवं विवाद रहित निष्पादन हो सके।) होती है। समिति की बैठक मण्डी समिति स्तर पर प्रतिमाह आवश्यक रूप की जाती है। यह योजना सामाजिक सरोकार से सम्बन्धित है इसलिए एक बार प्रकरण सहायता समिति द्वारा निरस्त किये जाने के बाद किसी भी स्तर पर पुनर्विचार नहीं किया जाता तथा इस समिति का निर्णय अन्तिम होता है।
दावे के निपटाने की प्रक्रिया एवं समयावधि
दुर्घटना घटित होने के पश्चात यथाशीघ्र सहायता राशि प्राप्त करने के लिए संबंधित कृषि उपज मण्डी समिति के कार्यालय में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया जाना चाहिए, क्योंकि दुर्घटना के 6 माह पश्चात प्रस्तुत प्रार्थना पत्र पर किसी भी स्थिति कोई विचार नही किया जाता।
पुनर्भरण प्रक्रिया
सहायता समिति की बैठक में निपटाए गए मामले के पुनर्भरण हेतु मण्डी समिति के सचिव द्वारा राज्य बीमा विभाग को एक सप्ताह में आवश्यक रूप से भेजे जाते हैं। इलाज के खर्च का पुनर्भरण करवाने का दायित्व राज्य बीमा विभाग का होता है, क्योंकि यह विभाग ही इस योजना का सेवा प्रदाता है। मण्डी समिति के सचिव निस्तारित प्रकरणों की पत्रावली पुनर्भरण से पूर्व जिला मुख्यालय पर पदस्थापित उप/सहायक निदेशक राज्य बीमा विभाग को भेजते हैं और उप/सहायक निदेशक राज्य बीमा विभाग द्वारा पुनर्भरण की कार्यवाही सम्पादित की जाती है तथा पुनर्भरण की राशि सम्बन्धित मण्डी समितियों को सीधे ही राज्य बीमा विभाग द्वारा भिजवाई जाती है।
पुनर्भरण प्रकरणों की हेतु समिति
निदेशालय स्तर पर प्रत्येक माह की 20 तारीख अथवा उस दिन अवकाश होने पर अगले कार्य दिवस में प्रकरणों के पुनर्भरण की समीक्षा हेतु राज्य बीमा विभाग के अतिरिक्त निदेशक के साथ एक बैठक आयोजित की जाती है, जिसमें निदेशालय स्तर पर मुख्यलेखाधिकारी, उप निदेशक (राजीव गांधी कृषक साथी योजना) की सदस्यता वाली एक समिति बनी हुई है जो यह समीक्षा करती है कि कोई प्रकरण अनावश्यक रूप से लम्बित न रहे।
सहायता हेतु आवेदन प्रक्रिया
इस योजना के अन्तर्गत सहायता प्राप्त करने के लिए प्रार्थी को अपने क्षेत्र से सम्बन्धित कृषि उपज मण्डी समिति में आवेदन करना होता है। योजना में आवेदन-पत्र के साथ निम्र कागजों की आवश्यकता होती है:
  •  दावा करने वाले द्वारा भरा गया एक दावा प्रपत्र।
  • मण्डी समिति स्तरीय समिति द्वारा भुगतान का सिफारिशी प्रपत्र।
  • चिकित्सा अधिकारी द्वारा जारी प्रमाण-पत्र।
 
(सर्पदशं एवं कीटनाशक दवाइयों के छिड़काव के कारण मृत्यु होने की स्थिति में राजकीय चिकित्सक का प्रमाण-पत्र एवं पोस्टमार्टम रिपोर्ट अथवा मौके पर तैयार पंचनामे पर दो सरकारी कर्मचारियों एवं सम्बन्धित चिकित्सक जिसने चिकित्सा प्रमाण-पत्र जारी किया है, के हस्ताक्षर आवश्यक होते हैं। ज्ञात रहे मृत्यु का कारण गलत साबित होने पर पंचनामें पर हस्ताक्षरकर्ता व्यक्तियों का समान रूप से व्यक्तिगत उत्तरदायित्व होता है तथा मृत्यु का कारण गलत साबित होने पर पंचनामे पर हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी/कर्मचारी के विरूद्ध कार्यवाही करने हेतु सम्बन्धित विभाग को मंडी समिति सचिव द्वारा लिखा जाता है।)
जांच सूची-
  •  प्रथम सूचना रिपोर्ट -अगर नहीं है तो कारण
  •  पोस्टमार्टम रिपोर्ट - अगर नही है तो कारण
  •  पंचनामा
  •  साँप/जहरीला जानवर काटने पर मृत्यु होने पर सरकारी चिकित्सक का प्रमाण-पत्र या  चिकित्सालय के ओ.पी.डी.रजिस्टर का क्रमांक व दिनांक।
  • दावेदार किसान या मज़दूर द्वारा उपज बेचकर वापस जाते वक्त मृत्यु होने पर मण्डी का गेट पास/विक्रय पर्ची/ अमानत पर्ची।
  • रसायनिक दवाइयों के प्रभाव से मृत्यु होने पर विसरा (एफ.एस.एल.) भेजने के रजिस्टर में क्रमांक और दिनांक।
  • विधिक दावेदार कृषक का 10 रू. के नॉन ज्यूडिशिअल स्टाम्प पर शपथ-पत्र।
  • अंग-भंग होने की स्थिति में दावेदार का सरकारी अस्थि रोग विशेषज्ञ का चिकित्सा प्रमाण-पत्र मय सत्यापित फोटो/डाक्टर की पर्ची/दवाइयों के बिल आदि।
  • दावेदार कृषक व उससे संबंधित भूमि की खसरा, गिरदावरी रिपोर्ट।
  • दावेदार का फोटो।
  •  अगर मृतक मज़दूर है तो जिसके खेत में कार्य कर रहा था उसके मालिक का शपथ-पत्र एवं खसरा गिरदावरी।
  • दावेदार कृषक की पहचान हेतु राशनकार्ड, वोटर पहचान-पत्र, बैंक पासबुक, जमीन पासबुक, नरेगा जॉब कार्ड आदि की सत्यापित फोटोप्रति।
  • मृत्यु होने की स्थिति में कृषि कार्य करते हुए मृत्यु होने का संबंधित उपखण्ड अधिकारी द्वारा जारी मृत्यु प्रमाण-पत्र।

भावी किसान जरूर आएं मंडी


दुनिया के किसी भी देश में एक भी ऐसा स्कूल नहीं बना जो छात्रों को मात्र किताबी पढ़ाई से खेती-बाड़ी के विषय में पारंगत बना दे। यह ज्ञान किताबों में जितना है उससे कहीं ज्यादा खेत और बाजार में है। वर्तमान में हमारे किसान के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि वह अपने बच्चों को स्कूलों से किताबी ज्ञान तो दिलवा देता है लेकिन उसे खेत की 'ज़मीनी हकीकत से दूर रखता है। इसका एक दुष्परिणाम यह है कि आज खेत में 50 साल से कम उम्र के किसान गिने-चुने ही नजर आते हैं। इसका दूसरा नुकसान यह हुआ कि बच्चे पढ़-लिख कर अपना खेत होते हुए भी बेरोज़गारों की कतार में खड़े हैं। इस बात का यह अर्थ कतई न निकाला जाए कि किसान अपने बच्चों को पढ़ाए-लिखाए नहीं, बल्कि उसे अपने बच्चों को जरूर पढ़ाना चाहिए ताकि कृषि कार्यों में दुनिया भर में जो बदलाव आ रहे हैं वह उन्हें समझ सके। आइए जानते हैं कि इसकी शुरूआत घर से कैसे की जाए-
घर से करें आरम्भ
एक मान्यता के अनुसार, बिल्ली अपने बच्चों साथ ले जाकर 9 अलग-अलग घर दिखाती है और उनके बारे में जानकारी देती है। बिल्ली ऐसा करके अपने मातृत्व धर्म का निर्वाह तो करती ही है साथ ही अपने बच्चों को भविष्य के लिए तैयार भी करती है। किसान को भी चाहिए कि वह अपने बच्चों को न सिर्फ खेती-किसानी की बारीकियां खेत में लेजाकर सिखाए बल्कि, उन्हें अपने साथ ले जा कर बाज़ार, मंडी और बैंक की कार्य पद्धतियों से भी परिचित करवाए।
बच्चे बनेंगे समझदार
सभी जानते हैं कि हम उन बातों को ज्यादा बेहतर ढ़ंग से और आसानी से सीखते हैं जिन्हें हम अपनी आखों से देख लेते हैं। जाहिर सी बात है आपके बच्चे भी आपको काम करता हुआ देखकर बेहतर ही सीखेंगे। आज के पढ़े-लिखे बच्चे जिन्हें अंग्रेजी भी आती है और कंप्यूटर भी जानते हैं। किताबी ज्ञान के साथ अगर व्यवहारिक ज्ञान भी मिल जाए तो वे बेहतर किसान के साथ-साथ अच्छे व्यवसायी भी बनेंगे।
शहर को बनाये पाठशाला
किसान शहर को अपने बच्चे के लिए पाठशाला समझें। जहां मंडियां तथा बैंक ऐसी पाठशालाएं है जो व्यवहारिक ज्ञान, धन और धन प्रबंधन के गुर एक साथ देती है। शहर में ही कृषि विभाग के कार्यालय हैं जहां सरकारी योजनाओं और अनुदान के बारे में नित-नई जानकारियां उपलब्ध रहती हैं। बीज, खाद और कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों के अधिकारी/कर्मचारी हैं जो इस क्षेत्र में दुनिया भर में होने वाले बदलाओं के बारे में आपका ज्ञान बढ़ाते रहते हैं।
नए रिश्ते भी बनेंगे
पहले तो किसान और आढ़तिये के बीच व्यवसाय के अतिरिक्त एक और पारिवारिक रिश्ता होता था। ये दोनों एक-दूसरे के सुख-दु:ख काम आते थे, पर समय के साथ यह रिश्ता अब कुछ अपवादों को छोड़कर बहुत औपचारिक रह गया है। किसान और बाज़ार दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और किसी एक का गुजारा दूसरे के बिना नहीं चल सकता। अत: जिस आढ़तिये या दुकान पर खरीद-फरोख्त करते हैं वहां अपने बच्चों को भी लाएं, ताकि यह संबंध प्रगाढ़ हो और आगामी पीढ़ी के लिए परस्पर लाभदायक हो सके।

मण्डी पर मंडराते खतरे

हमारे देश में किसानों और अनाज व्यापारियों के सम्बन्ध वर्षों पुराने हैं। इन संबंधों में सहजता बनी रहे और किसान को उपज का सही भाव मिल सके इसके लिए यहां विगत लगभग पांच-छ:दशकों से कृषि उपज मण्डी व्यवस्था है। पिछले 10 वर्षों से इस व्यवस्था में तेजी से बदलाव आया है। आज आइटीसी, कारगिल और दूसरी कई कम्पनियों नें मण्डियों के समानान्तर अपनी व्यवस्था खड़ी कर दी है। ये कम्पनियां किसान के खेत से या मण्डी और मण्डी क्षेत्र से बाहर कहीं भी बड़ी मात्रा में ज्यादा पारदर्शी तरीके से सीधी खरीदी कर रही हैं। क्या मात्र यह कम्पनियां मंडी पर मंडराता एकमात्र खतरा हैं? जानने का प्रयास करते हैं कि और कौनसे कारण हैं जो मंडी के आस्तिव पर एक बड़ा सा सवाल बनकर खड़े हो गए हैं...  
क्या सरकार है खतरा?
इस व्यवस्था का आरम्भ सन 2000 में हुआ। मध्यप्रदेश की दिग्विजयसिंह सरकार ने आंशिक रूप से 1970 के राज्य कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम में संशोधन किया था, जिसके कारण निजी खरीददारों को मंडी प्रांगण के बाहर खरीद केंद्र स्थापित करने के लिये मंडी समितियों द्वारा लाइसेंस देने का प्रावधान किया गया। उसके बाद सितंबर 2003 को केंद्र सरकार ने विभिन्न राज्य सरकारों से परामर्श से एक मॉडल कानून 'राज्य कृषि उत्पाद विपणन (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 2003 तैयार किया। इस अधिनियम के तहत देश में कृषि बाज़ारों के प्रबंधन एवं विकास में सार्वजनिक व निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने, निजी मंडियां व सीधे खरीद केंद्र स्थापित करने के प्रावधान किए गए। साथ ही अनुबंध खेती की व्यवस्थाओं को प्रोत्साहन देने व नियंत्रित करने के कानून भी इसमें शामिल किए गए। जाहिर है यह कानून मौजूदा कृषि उपज मंडी समिति की भूमिका को भी पुनर्भाषित करता है,ताकि नई विपणन व्यवस्था तथा अनुबंध खेती के साथ इसका तालमेल बैठ सके।
क्या निजी कम्पनियां हैं खतरा ?
हमारे अर्थशास्त्री मानते हैं कि इस नई व्यवस्था से किसानों को बेहतर और उचित दाम मिल रहे हैं। इनका मानना है कि अगर सरकारी प्रणाली सही ढ़ंग से काम न करे तो उसे सुधारने की बजाए उसके समानान्तर निजी ढांचा खड़ा कर दो। आज देश भर में इन निजी कम्पनियों ने लगभग 25 प्रतिशत बाज़ार पर अपनी पकड़ बना ली है। सरकार भी शायद शक्ति संतुलन के नियम पर कार्य कर रही है उसकी नीतियां धीरे-धीरे मण्डी व्यवस्था को खत्म करने की दिशा में बढ़ रही है। कम्पनियों को किसानों से सीधे अनाज खरीदने की अनुमति देने का एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि अपनी ही जरूरतें पूरी करने के लिए सरकार को दो गुना दामों पर 53 लाख टन अनाज आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूक्रेन से खरीदना पड़ा। पिछले 4 वर्षों में अनाज की खुले बाज़ार में कीमतें 70 से 120 प्रतिशत तक बढ़ीं पर किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य महज 20 प्रतिशत ही बढ़ा। वर्तमान में ये निजी और विदेशी संस्थान किसानों के साथ बहुत ही सलीके से पेश आ रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अभी किसानों के पास कृषि उपज मण्डी का विकल्प मौजूद है। कल्पना करें कल जब यह विकल्प खत्म हो जाएगा या कम प्रभावी हो जाएगा तब भी क्या इन कम्पनियों का व्यवहार किसान के साथ यही रहेगा?

क्या आढ़तिया खुद है खतरा ?
मण्डी व्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले आढ़तिये पर लूट-खसोट के इल्जाम लगते ही आएं हैं,पर एक आढ़तिया कितना कमाता या लूटता है जरा एक नज़र इस गणित पर भी डाल लेते हैं। एक औसत आढ़तिये के माध्यम से साल भर में एक से डेढ़ करोड़ के सौदे होते हैं, जिसका 2 प्रतिशत कमीशन बनता है 2 से 3 लाख रूपए सालाना। इस राशि में उसे दुकान के सारे खर्च जैसे मुनीम और नौकर का वेतन, किराया-भाड़ा, बिजली-पानी और चाय-नास्ते आदि चुकाने होते हैं। एक पंजाबी कहावत के अनुसार 'अगर मुनाफा घुटने-घुटने तक हो तो टखने-टखने तक ही रह जाता है। यानी इस 2 प्रतिशत एक बड़ा भाग तो खर्च हो जाता है दुकान चलाने के आधारभूत खर्चों में ही। उसे अतिरिक्त कमाई होती है किसान को वक्त-जरूरत दिए गए रूपयों के ब्याज से,और कुछ व्यापारियों को वजन में कम-ज्यादा करने और अपने जानकारों से किसान को सामान दिलवाने से। हालांकि सारे व्यापारी ऐसा नहीं करते और नही मोटा ब्याज नहीं लेते और वजन में लंगड़ी भी नहीं लगाते। शायद ही कोई आढ़तिया है जिसके रूपए इस ब्याज कमाने के चक्कर में डूबे न हों। आजकल जब किसान को बैंक से 3-4 प्रतिशत पर पैसा मिल जाता है तो कौन आढ़तिये से 15 से 24 प्रतिशत पर पैसा उधार लेगा? लगातार घटती कमाई और डूबती पूंजी के कारण खुद आढ़तिया भी मण्डी छोडऩे को तैयार बैठा है।
तो क्या किसान है यह खतरा?
अब बात करें मण्डी के सबसे मज़बूत स्तम्भ यानी किसान की। अब उसके भी खाते-बही देख लेते हैं। दु:ख इसी बात का है कि किसान खाते-बही जैसी कोई चीज रखता ही नहीं है। उसका हिसाब तो आढ़तिये, बैंक  और कोर्ट-कचहरियां रखती है। मान लें एक किसान के पास दस बीघा जमीन है। वह उस पर बैंक से कर्ज लेता है 30 से 40 हजार रूपए प्रति बीधा, आढ़तिये से उसी एक बीघे पर ले लेता है 10 से 15 हजार रूपए। खाद बीज वाले से करीब 5 हजार, कुल औसत हुआ 50 हजार। अब अगर ट्रैक्टर या अन्य कोई उपकरण ले रखा है तो यह कर्ज बढ़कर हो जाएगा करीब 80 हजार रूपए प्रति बीघा तथा ब्याज व खेत का खर्च अलग।अब एक नजर प्रति बीघा कमाई भी देख लें। एक बीघा में गेहूं होता है अधिकतम 10 क्विंटल बाजार भाव के अनुसार अधिकतम 11 हजार का, सरसों 8 क्वि. 20 हजार और नरमा/कपास 8 से 10क्विं अधिकतम 32 हजार रूपए। ज्ञात रहे सरसों या गेहूं दोनों में से एक ही फसल ली जा सकती है, यानी किसान की किस्मत अच्छी हो और मौसम की मार न पड़े तो सारी उपज को मिलाकर ज्यादा से ज्यादा कमाई कर सकता है 60 हजार और कर्ज है 80 हजार तथा उसका ब्याज व अन्य खर्च। एक साल का औसत घाटा होता है करीब 20 हजार रूपए प्रति बीघा।
इसके बावजूद किसान बैंक और आढ़तिये से ज्यादा कर्ज के लिए झगड़ते देखे जा सकते हैं। उनका तर्क होता है 5 से 7 लाख रूपए प्रति बीघा वाली मेरी जमीन पर बस 30-40 हजार कर्ज? सच्चाई तो यह है कि एक बीघा जमीन का ठेका जो वर्तमान में 8 से 10 हजार रूपए है, उतना ही कर्ज ले तो कोई भी किसान कमाई कर सकता है,उसके उपर लिया गया सारा पैसा जमीन पर भार है। अब आप स्वंय ही अंदाज लगा लें कि इस लाभ की खेती को किसान कितने साल और कैसे करेगा।
क्या चाहती है सरकार?
अंत में बात कर लेते हैं मण्डी के आखरी पहरेदार यानी हमारी सरकार की। केन्द्रीय वित्तमंत्री के आर्थिक सलाहाकार कार्तिक बसु जो खुदरा व्यापार मे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की पुरजोर वकालत कर रहे हैं। आज सरकार का प्रयास खाद्य प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) के जरिये दूसरी हरित क्रांति लाने का है। जिसका फायदा किसान नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों व उत्पादन तंत्र पर नियंत्रण करने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियां उठाएंगी। सरकार अगले दो सालों में इन कम्पनियों के लिए 120करोड डॉलर का निवेश खाने-पीने का सामान बनाने वाले उद्योग में करने वाली है और साथ ही पहले 5 वर्षो तक उनके पूरे फायदे पर 100फीसदी आयकर में छूट और अगले पांच वर्षो तक 25फीसदी छूट देती रहेगी। इनके लिए उत्पाद शुल्क (एक्साइज ड्यूटी) को भी आधा कर दिया गया है यानी सरकार के बजट में कंपनियों को ज्यादा से ज्यादा फायदा दिया जा रहा है। सरकार को अनाज की कम खरीद करना पड़े और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गरीबों को अनाज कम देना पड़े इसलिए गरीबी रेखा का दायरा छोटा किया जा रहा है। यह इसलिये भी किया जा रहा है ताकि कम्पनियों को किसानों से मनमानी कीमत पर अनाज खरीदने का मौका मिल सके और इस अतिरिक्त अनाज का उपयोग निर्यात और प्रसंस्करण दोनों के लिए भी किया जा सके।
इस प्रस्तावित और लगभग सर पर खड़ी व्यवस्था को किसान और व्यापारियों को एक चेतावनी की तरह लेना चाहिए। इस चौतरफा हमले के बाद भी अगर मण्डी बच जाए तो किसी आश्चर्य से कम नहीं होगा।

संविदा खेती या कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग


शुरू-शुरू में संविदा खेती तथा कारपोरेट कृषि केवल वृक्षारोपण कार्यक्रम और बेकार पड़ी जमीन के विकास तक ही सीमित थी, लेकिन सन 2000 में जारी पहली नई कृषि नीति की घोषणा के बाद बुनियादी क्षेत्र में भी इसे अमल में लाया जा रहा है। कृषि क्षेत्र से जुड़ी निजी कंपनियों के सामने पैदावार की गुणवत्ता बरकरार रखना एक बड़ी चुनौती थी क्योंकि इसका निर्धारण खरीदार करते हैं। इसके अलावा दूसरा महत्त्वपूर्ण मामला है समय पर माल की आपूर्ति करना।
इस ओर पहला कदम पंजाब ने बढ़ाया जब पेप्सी फूड्स लि. ने वहां बाईस करोड़ रूपयों की लागत से टमाटर से विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए कारखाना लगाया। चूंकि टमाटर पूरी मात्रा में उपलब्ध नहीं हो रहे थे इसलिए पेप्सीको ने अनुबंध-खेती की शुरूआत की। पेप्सीको ने इस सिलसिले में कई महत्त्वपूर्ण पहल करते हुए अनुबंध कृषि को नए आयाम दिए। इस कंपनी ने पंजाब के संगरूर जिले में संसाधनों पर आधारित अनुबंध के तहत कृषि समझौते किए तथा किसानों को बाजार मुहैया कराने के साथ पैदावार में सुधार के उपाय भी सुझाए, जिससे किसानों को अच्छे खरीदार भी मिले और उन्हें अपनी पैदावार का उचित मूल्य भी मिलने लगा। बाद में कुछ और कम्पनियों ने बासमती चावल, मिर्च, मूंगफली, धनिया और आलू भी इसी आधार पर देश के विभिन्न प्रदेशों में उगाने आरम्भ किए। इसी तरह टै्रक्टर निर्माण करने वाली प्रमुख कंपनी महिंद्रा एंड महिंद्रा ने भारतीय किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए शुभ-लाभ सेवा आरम्भ की। जिसमें सामुदायिक कृषि को बढ़ावा दिया गया तथा एक ही केन्द्र पर किसानों की आवश्यकताओं के अनुरूप जरूरी सभी सुविधाएं भी उपलब्ध करवाई गईं।
हमारे देश में खेती हमेशा जीविका चलाने और जीवन का एक हिस्सा जरूर थी, पर कभी वस्तु, बाजार या व्यवसाय नहीं थी। आज की कंपनियों की पहली शर्त खेती को वस्तु बनाकर व्यवसाय के लिए बाजार तक पहुंचाना है। इसलिए आज की संविदा खेती का मूल आधार ही लाभ है। इसके लिए हमारी सरकार ने डब्लू.टी.ओ. तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय दवाब में नई-नई कृषि नीतियों की घोषणा की है। प्रचारित किया जा रहा है कि अनुबंध या ठेका-खेती अपनाने से ही भारतीय गांव और किसान सुखी होंगे। भारत की नई राष्ट्रीय कृषि नीति के मसौदे में फसलों के विभिन्नीकरण (डायवर्सीफिकेशन) की वकालत की गई है। इसके तहत किसान खाद्यान्न फसलों को पैदा करने के स्थान पर नकद फसलों का उत्पादन करेंगे तथा उनके उत्पादित माल का निर्यात होगा। लिहाजा विदेशी मुद्रा में इजाफा होगा, साथ ही किसानों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। फसल विभिन्नीकरण के लिए बड़ी पूंजी की जरूरत होगी जिसकी आपूर्ति निजी क्षेत्र से की जाएगी, इसलिए बड़ी-बड़ी कंपनियां और बैंक तथा विशेषज्ञों के गठजोड़ संविदा खेती के सहायक बनेंगे।
सिक्के के इस उजले पहलू के बाद अब एक नजर सिक्के के दूसरे पहलू पर भी डाल लेते हैं, जिसके अनुसार संविदा खेती में किसानों के साथ एक अनुबंध किया जाएगा जिसके तहत पहले से तय कीमतों पर उन्हें अपनी फसलें कंपनियों को बेचनी पड़ेगी। इस अनुबंध में एक शर्त गुणवत्ता की भी होती है, जिसका निर्धारण खरीदने वाली कम्पनी ही करती है। बहुत बार कम्पनी उपज को गुणवत्ता के अनुरूप नहीं है कह कर नहीं भी खरीदती या बहुत कम भाव में खरीदने का प्रयास करती है। इसमें दिक्कत यह है कि संविदा खेती का अभी कोई नया कानून नहीं बनाया गया है, जिससे किसान व अन्य पक्षों को अदालत से न्याय प्राप्त करने में परेशानी का सामना करना पड़ेगा। इन मुकद्दमों का परिणाम क्या होगा जिनमें एक तरफ संसाधन विहीन गरीब किसान होगें और दूसरी तरफ धन/सुविधा संपन्न कंपनियां। विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के चाल्र्स ईटन और एंडयू डब्लू शेफर्ड ने 'कांट्रेक्ट फार्मिंग पार्टनरशिप्स फॉर ग्रोथ नामक पुस्तक में विस्तार से समझाया है कि किसानों और ठेके पर खेती करने की इच्छुक कंपनियों के बीच हुए करार के अनुसार किसान अपनी जमीन उन्हें बेच देंगे या लगान की तय दर पर दे देंगे, फिर चाहें तो वे किसान कंपनियों के इन खेतों पर मजदूर के रूप में काम करें। इस प्रकार कृषि पारिवारिक न होकर पूरी तरह पूंजीवादी हो जाएगी। पैदावार संबंधी सारे फैसले जैसे- क्या उगाएं? कैसे उगाएं? और किनके लिए उगाएं? आदि कंपनियां तय करेंगी। जाहिर है इन सब निर्णयों का आधार मुनाफा बढ़ाना ही होगा।
आदि काल में भी इस तरह की खेती की शर्तें और तौर-तरीके शोषणकारी और अमानवीय होते थे और भविष्य में भी लाभ कमाने के लिए शायद वही तरीके अपनाए जाएं, बस फर्क इतना होगा कि पहले शोषण स्थानीय और स्वदेशी जमींदार करते थे अब यह काम स्थानीय लोगों से बहुराष्ट्रीय कम्पनियां करवाएंगी। संविदा खेती को बढ़ावा देने के लिये कृषि सुधार प्रस्ताव 2004 में केन्द्रीय कृषि मंत्री के नेतृत्व में सभी प्रदेशों के कृषि मंत्रियों के बीच हुई बैठक के नतीजे के अनुसार कृषि सुधार प्रस्ताव में तीन प्रमुख बातें हैं, पहला, कार्य मंडियों का निजीकरण, दूसरा, अनुबंध खेती या लीज खेती में मौजूद भूमि हदबंदी कानून को खत्म करना और तीसरा, भूमि साझा करने वाली कंपनियों का उदय। इस कानून से भारत में लगभग पचास करोड़ से ज्यादा छोटे किसानों यानी 1 से 5 एकड़ खेती वाले किसानों को अपने पुश्तैनी धन्धे से बेदखल होना पड़ेगा।

क्या है ई-चौपाल?

चौपाल की अवधारणा भारतीय किसानों के लिए नई नहीं है। आइटीसी द्वारा उठाया गया शुरुआती कदम आज हजारों गांवों में अपनी छाप छोड़ रहा है। आज बहुत सारे सरकारी विभाग और नैस्कॉम 'प्रत्येक गांव में एक कंप्यूटर के लक्ष्य को हासिल करने के लिए जोरशोर से लगे हुए हैं। वर्तमान में 11 राज्यों और 42 हजार गांवों में तकरीबन 7000 ई-चौपालों का फायदा लगभग 40 लाख किसान उठा रहे हैं वे उसकी मदद से सोयाबीन, मसाले, कॉफी, गेहूं, चावल, मक्का, दालें और अन्य अनाज उपजा रहे हैं। देश में सबसे पहले आइटीसी ने 1500 ई-चौपाल नेटवर्क बनाया, जिसमें बैटरी से चलने वाला कंप्यूटर, एक संचालक और सैटेलाइट संचार की व्यवस्था की गई थी। इसी तर्ज पर रिलायंस इंडस्ट्री भी अपना सामाजिक आधारभूत ढ़ांचा बना रही है ताकि वो किसानों तक अपनी पहुंच बना सकें। आंध्रप्रदेश, पंजाब और हरियाणा से दूध की खरीद के लिए इस मॉडल को शुरू किया गया है, जल्द ही इसमें और भी वस्तुएं शामिल की जाएंगी। डीसीएम श्रीराम कंसल्टेंसी लिमिटेड (डीएससीएल) ने अपने तरीके का ई-चौपाल मॉडल बनाया है जिसे नाम दिया गया है हरियाली किसान बाजार (एचकेबी)। इस मॉडल का लक्ष्य गांव के लोगों, खासतौर पर किसानों के लिए बाजार बनाना है। सन 2002 में शुरू हुए इस हरियाली मॉडल के 160 बूथ है और एक बूथ के जरिए 20,000 किसानों के परिवार तक पहुंच बनाई गई है। आइटीसी के एक अधिकारी के अनुसार 'किसान की सारी जरूरतें कोई एक आदमी पूरी नहीं कर सकता, इसलिए ई-चौपाल की जरूरत महसूस हुई, पर अभी यह शुरूआत है अभी बहुत काम होना बाकी है। दरअसल आम किसान के लिए ई-चौपाल एक ऐसा जादू का पिटारा है, जिससे फसलों की सही कीमत और जरूरत के सामान के साथ कई और महत्त्वपूर्ण खबरें और नसीहतें उपलब्ध होती हैं, जैसे- 
फसलों का डाटाबेस
आपको अगली बार कौन सी फसल उगानी है यह निरधारण करने में कृषि वैज्ञानिकों द्वारा बनाया गया डाटाबेस आपकी मदद करेगा। यह आपको सलाह देगा कि कौन सी फसल उगाना फायदेमंद और घरेलू परिस्थितियों के अनुरूप सही है। एचकेबी ने अपने यहां 2-3 कृषि वैज्ञानिकों को रखा है जो सभी केन्द्रों पर किसानों को 24 घंटे अपनी सेवा देते हैं।
बिचैलियों से  मुक्ति
वस्तु (कमोडिटी) बाजार से कंप्यूटर के माध्यम से सीधे जुडऩे पर आपको बिचौलियों के बगैर उपज की बेहतर कीमत मिलेगी। इस समय देश में करीब 25 वस्तु विनमय केन्द्र (कमोडिटी एक्सचेंज) है जिनमें चार राष्ट्रीय स्तर के हैं जैसे- नैशनल मल्टी-कमोडिटी एक्सचेंज ऑफ इंडिया (एनएमसीई), नैशनल बोर्ड ऑफ ट्रेड (एनबीटी), नैशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव एक्सचेंज (एनसीडीइएक्स) और मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज (एमसीएक्स)।
अन्य सुविधाएं
इन केन्द्रों से पेट्रोल पंप, एलपीजी गैस कनेक्शन और बैंक भी जुड़े हुए हैं। भारत पेट्रोलियम के साथ एचकेबी ने अपने केन्द्र के नजदीक एक पेट्रोल पंप खोलने के लिए गठजोड़ भी किया है और अब तक 16 पेट्रोल पंपों ने काम करना शुरू भी कर दिया है तथा साल के अंत तक 60 और पेट्रोल पंप के शुरू होने की उम्मीद है। आइसीआइसीआई और एचडीएफसी बैंक ने भी अपने काउंटर यहां खोले हैं। इनमें से कुछ केन्द्रों पर शॉपिंग मॉल और सुपर बाजार भी है जहां घरेलू उपभोक्ता वस्तुएं जैसे टीवी, फ्रिज आदि भी खरीदे जा सकते हैं।
ज्ञात रहे कि 'विलेज कंप्यूटर को चलाने के लिए ज्यादा पढ़ा होना या वैज्ञानिक होना जरूरी नहीं है। मात्र 15 से 20 दिन का प्रशिक्षण लेने के बाद आप पंचायत के कंप्यूटर रूम को संभाल सकने में सक्षम हो सकते हैं। यही नहीं, इन कोर्सेज में प्रशिक्षण के लिए आप दसवीं कक्षा की परीक्षा पास करने के बाद आवेदन भी कर सकते हैं। भारत में तकरीबन छ: लाख गांवों में इस रोजगार की विपुल संभावनाएं हैं।

जानें सीधी खरीद के बारे में

सरकार का हमेशा से प्रयास रहा है कि किसानों को उनकी उपज का पूरा व सही भाव मिले। इसी नीति के क्रियान्वयन में धान मण्डियों का विकास हुआ। देश भर की छोटी-बड़ी मिलाकर लाखों मण्डियों को बसाने और वहां किसानों के लिए उचित सुविधाएं जुटाने के लिए खरबों रूपए विगत साठ वर्षों में खर्च किए गए और यह प्रक्रिया आज भी जारी हैं। इन दिनों व्यापार के वैश्विक दबाव में सरकार यह मानने लगी है कि इसके सामान्तर कोई दूसरा विकल्प भी होना चाहिए। तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे   किसानों को उचित भाव मिलेगा और बड़ी कम्पनियों को सस्ता कच्चा माल मिलेगा।
कैसे होती है सीधी खरीद?
पांच सात किलोमीटर के दायरे में कम्पनी उपज खरीद के लिए एक प्रतिनिधि नियुक्त करती है, जिसके पास एक इंटरनेट युक्त कम्प्युटर होता है। इस कम्प्युटर की मदद से उस संचालक को अगले दिन उपज खरीदने का एक भाव मिलता है जिसे वह किसानों तक पहुंचाता है। जो किसान उस भाव पर उपज बेचने का इच्छुक होता है, वह अपनी उपज का अनुमानित वजन लिखवा कर एक पर्ची बनवा लेता है। इस तरह के सारे किसान कम्पनी द्वारा स्थापित नजदीक के केन्द्र पर अपनी उपज लेकर पहुंच जाते हैं, जहां झार लगा कर साफ उपज का वजन किया जाता है। इस खरीद के कुछ मानदंड हैं जैसे- हेक्टोलीटर जांच। इसमें एक लीटर के बर्तन में गेहूं भरकर तौला जाता है, अगर उसका वजन 790 ग्राम से ज्यादा हो तो कोई कटौती नहीं होती। दूसरी जांच में उपज की नमी देखी जाती 10 प्रतिशत से कम नमी पर भी कटौती नहीं होती। तीसरी जांच में दानें अगर 3 प्रतिशत से कम टूटे हो तो भी कोई काट नहीं लगती। चौथी और पांचवी जांच में अनाज सफेद, फफूंद लगा और भीगा हुआ न हो तो तय कीमत ही अदा की जाती है। अगर इनमें से किसी भी जांच में उपज मानक स्तर पर खरी न हो तो भी सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम भाव नहीं दिए जाते।
क्या है सीधी खरीद का नफा-नुकसान?
इस तरह की खरीद में किसान को कई लाभ हैं, जैसे- किसान को पहले ही पता होता है कि उसकी उपज किस भाव पर बिकेगी। उपज बेचने के लिए नीलामी का लम्बा इंतजार नहीं करना पड़ता और तुरंत भुगतान मिल जाता है। पर इस व्यवस्था में कुछ नुकसान भी हैं जैसे-एकबार कीमत तय हो गई वही मिलती है, चाहे उस दिन बाजार में कोई भी भाव हो। मण्डी में दस-बीस व्यापारी बोली लगाकर उपज खरीदते हैं, उसमें सम्भावना रहती है कि भाव ज्यादा भी मिल सकता है, साथ ही तसल्ली भी होती है कि भाव सही मिला है। जबकि सीधी खरीद में एक ही आदमी भाव लगाता है। सीधी खरीद में तय भाव में नमी, दाना छोटा या टुकड़ों में होने पर भाव में कुछ प्रतिशत की कमी हो जाती है। अब किसान के पास दो ही विकल्प हैं या तो कम्पनी के प्रस्तावित मूल्य पर उपज बेचे या किए गए खर्च को भूल कर घर लौट आए। सीधी खरीद एक सीमित समय के लिए होती है अब अगर फसल पहले तैयार हो जाए तो इंतजार करें और अगर फसल निकालने में देरी हो जाए  
तो किसान क्या करे?
आढ़तिये और किसान में बरसों साथ काम करने से एक संबंध बन जाता है जो किसान को मण्डी के बाहर भी कई तरह की सुविधाएं दिलवाता है, पर कम्पनी के अधिकारी अपनी नौकरी की वजह से बदलते रहते हैं तथा वे इस तरह के व्यक्तिगत संबंधों में विश्वास भी नहीं रखते। किसान किसी भी वजह से खरीद केन्द्र पर शाम के बाद पहुंचे तो उसे वहां कोई नहीं मिलता, जबकि आढ़तिये को आधी रात में भी किसान के लिए खाने और सोने का इंतजाम करना पड़ता है। सबसे बड़ी असुविधा यह है कि बिना फसल लाए या उपज का भुगतान लेने के बाद भी केवल आढ़तिया ही जरूरत पर रूपए-पैसे से इमदाद करता है, कम्पनियों में यह सुविधा नहीं है।

Tuesday, September 13, 2011

अनाड़ी हाथों में है जहर का व्यापार

हम सब जानते हैं कि हमारे खेतों में डाले जाने वाले कीटनाशक दुनिया के तेजतरीन जहर होते हैं। इनमें से कुछ तो इतने खतरनाक हैं कि जिन्हें महज सूंघने भर से मौत हो सकती है। इन कीटनाशकों के लगातर इस्तेमाल से कीट-पतंगों में प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो गई है, इसलिए इन जहरीली दवाओं को और तेज, और मारक और खतरनाक बनाया जा रहा है। सवाल यह नहीं है कि हम इस जहर को और कितना तेज बनाएंगे, बल्कि यह है  कि इसे बेच कौन रहा है? गांव में इन जानलेवा रसायनों को खाद-बीज के व्यापरियों के अलावा राशन बेचने वाले वो दुकानदार भी बेच रहे हैं, जो इनके घातक परिणामों के बारें में कुछ नहीं जानते। बात यहीं खत्म हो जाए तो भी ठीक नहीं है पर इससे भी चार कदम आगे चली जाए तो साक्षात यमराज के दरवाजे पर दस्तक दे सकती है। कीटनाशक बेचते-बेचते ये लगभग अनपढ़ दुकानदार वैज्ञानिक भी हो जाते हैं, ये किसानों को दो या चार दवाएं मिलाकर छिड़कने की सलाह भी देने लगते हैं। हालांकि दवाइयों के साथ कई भाषाओं में छपे चेतावनी और इस्तेमाल के तरीको के पर्चे आते हैं, लेकिन ये इतने छोटे-छोटे और अस्पष्ठ अक्षरों में छपे होते हैं कि इन्हें पढऩा लगभग नामुमकिन है।
विडम्बना देखिए कि हमारे देश का औषधि नियंत्रण कानून भी इन्सानों और पशुओं की दी जाने वाली उन दवाइयां तक ही सीमित जिन्हें खाकर भी इन्सान तुरंत मरता नहीं है। आश्चर्य यह है कि इन दवाओं को बेचने के लिए फार्मास्सिट की डिग्री लेनी पड़ती है, जबकि घातक जहर बेचने वालों को कृषि विभाग का उपनिदेशक कार्यालय विक्रय लाइसेंस महज कुछ ही रुपयों में जारी कर देता है, और यह भी नहीं पूछता कि विक्रय लाइसेंस लेने वाला कभी स्कूल भी गया है या नहीं? यह सब उसी देश में हो रहा है जहां बिना डॉक्टर की पर्ची दवा बेचना तक जुर्म है। यह अलग बात है कि गावं का झोलाछाप डॉक्टर की दवा की पुडिय़ा में पता नहीं क्या डाल कर खिला रहा है? 
अनाडिय़ों की ये जमात महज गांव तक ही सीमित नहीं है। छोटी-बड़ी मिलाकर 300 से ज्यादा कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों के पास देश भर में हजारों सेल्समैन हैं जिनमें ज्यादातर कला, वाणिज्य या विज्ञान के स्नातक हैं। विक्रय प्रतिनिधियों की इस फौज को अपने-अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के अलावा कोई दूसरा रसायनिक ज्ञान नहीं है। हालांकि कुछ कम्पनियां इस नौकरी के लिए बीएससी एग्रीकल्चर को प्राथमिकता देती हैं, पर दुर्भाग्य से वे ही लोग इस व्यवसाय को चुनते हैं जिन्हें कोई दूसरा ढ़ंग का काम नहीं मिलता।
सार यह है कि इस बेहद घातक और खतरनाक व्यापार की बागडोर कम से कम निचले स्तर पर तो शत प्रतिशत अनाड़ी हाथों में है। इस कारोबार और हमारी  खेती-बाड़ी के भविष्य का एक सहज अनुमान केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि इस जहर को बेचने और इस्तेमाल करने वाले दोनो पक्ष ही नासमझ हैं।

Tuesday, September 6, 2011

खेत से बेदखल किया जाता किसान

आजकल सबसे ज्यादा चर्चा में है उत्तर प्रदेश का कृषि भूमि अधिग्रहण विवाद। इस से विवाद में प्रभावित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिले गौतमबुद्धनगर और अलीगढ़ में हुए एक जनमत सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि 48 प्रतिशत किसान अपनी जमीन बेचने के इच्छुक हैं। वे खेती-बाड़ी छोड़ कोई भी और व्यवसाय करना चाहते हैं, उन्हें बस इंतजार है अच्छे दाम देने वाले खरीदार का। इस सर्वेक्षण से पूर्व में हुए नेशनल साम्पल सर्वे ऑर्गनाइजेशन के सर्वेक्षण को और बल मिलता है, जिसमें 42 प्रतिशत से ज्यादा किसानों ने बेहतर विकल्प मिलने पर खेती-बाड़ी छोडऩे की इच्छा जाहिर की थी। इसका प्रमाण यह भी है कि देश की आय में कृषि का हिस्सा घटकर 14.5 प्रतिशत से भी कम हो गया है। एनएसएसओ के अनुसार खेती से जुड़े एक परिवार की मासिक आय मात्र 2400 रूपए है, ऐसे में यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि इतनी कम आदमनी के बदले किसान अपनी जमीन सुरक्षित रखेंगे।
महज यही एक कारण नहीं है कि किसानों खेतों से दूर हो रहा है। एक और शक्ति भी है जो इस कार्य में किसानों की इच्छा-अनिच्छा के बावजूद इसे बढ़ावा दे रही है। बिल्डर-उद्योगपतियों-राजनेताओं और भूमाफियाओं का जो गठजोड़ हमेशा जमीन हथियाने के अवसरों की तलाश में रहता है। दूसरे रीयल इस्टेट कंपनियां और उनके लाखों दलाल अधिकतम सम्भव भूमि हथियाने के प्रबंध में जुटे हुए हैं। अब उन्हें तीसरे सहयोगी के रूप में अर्थशास्त्री भी मिल गए हैं, जो ग्रामीण आबादी को शहरी इलाकों में स्थानान्तरित करने पर जोर दे रहे हैं। उनका तर्क है कि भूमि लाभ कमाने वाली एक आर्थिक सम्पत्ति है, लेकिन दुर्भाग्य से वह असक्षम लोगों के हाथ में है। उनके आर्थिक विकास विश्लेषन का सार यह है कि किसानों के पास जो थोड़ी-बहुत जमीन बची है, उन्हें उससे भी वंचित कर दिया जाए। हमारी सरकारें भी उनके कन्धे से कन्धा मिलाकर इस षडय़ंत्र में शामिल हैं, जो कहती हैं भूमि का अधिग्रहण अपरिहार्य और अवश्यम्भावी है, क्योंकि आर्थिक विकास के लिए भूमि की जरूरत है। इस सारी अव्यवस्था के बीच एक नया भूमि अधिग्रहण विधेयक लाया जा रहा है। जिसमें शायद पुनर्वास से सम्बंधित उपयुक्त और उन्नतिशील प्रावधानों का समावेश होगा, हो सकता है वह किसानों की चिन्ताओं को दूर करने में कामयाब हो। आर्थिक क्षतिपूर्ति का पैकेज क्या हो, कैसा हो, इसे लेकर आन्तरिक रूप से विचार-मंथन का दौर शुरू हो गया है।
कुछ बातें हैं जिन पर चर्चा किए बिना प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण विधेयक हमें समझ ही नहीं आएगा। जैसे (1)अच्छी उपजाऊ जमीन, जिसे गैर कृषि उद्देश्यों के लिए परिवर्तित करने से पूर्व इस बात का कोई ध्यान ही नहीं रखा गया कि इसका परिणाम क्या होगा? (2)आजतक कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया गया जिससे यह पता लगे कि उद्योगों के लिए कितनी कृषि भूमि की जरूरत है और अब तक कितनी भूमि का अधिग्रहण किया जा चुका है। (3)देश में कुकरमुत्तों की तरह उगी छोटी-छोटी कॉलोनियों का जिक्र छोड़ भी दें तो उत्तर प्रदेश में प्रस्तावित यमुना एक्सप्रेस वे के तहत 44 हजार हेक्टेयर उपजाऊ कृषि भूमि टाउनशिप, औद्योगिक समूहों, गोल्फ कोर्सेज आदि के लिए अधिग्रहीत की जा रही हैं के बारे में क्या कहेंगे? (4) इस जैसी कितनी योजनाएं हमारी राज्य सरकारों के दिमाग में पनप रहीं है। (5)किसी विशेष उद्देश्य की खातिर कितनी जमीन की जरूरत है। जैसे एक विश्वविद्यालय, स्कूल या निजी हस्पताल स्थापित करने के लिए कितने हजार एकड़ भूमि की जरूरत होगी? यहां सवाल यह नहीं है कि कोई कितनी भी भूमि खरीद सकता है। सवाल यह है कि वह कितनी भूमि खरीद सकने में समर्थ हैं? ऐसा नहीं है कि किसान इस मामले में भोला-भाला है, वह भी बेहतर दाम मिलने पर अपनी भूमि को दोनों हाथों से बेचने के इच्छुक दिखाई देता हैं। उसका तर्क है कि अब जमीन से उसे परिवार पालने लायक आमदनी नहीं होती।
इस विवाद का एक संभावित हल यह हो सकता है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक से ज्यादा हमें किसान आय आयोग का गठन करने पर जोर देना चाहिए। यह आयोग प्रत्यक्ष आय तंत्र के जरिए किसानों की आय बढ़ाने की दिशा में काम करे जिससे खेती को आगे बढऩे के लिए पीछे से वित्तीय समर्थन मिले और किसान बंजर जमीनों को खेती योग्य भूमि में विकसित कर सके। अमरीका में किसानों को अपनी भूमि के संरक्षण और विकास के लिए हर साल कुछ राशि का भुगतान किया जाता है। जिसके दो फायदे होते हैं। पहला खेती बची रहती है और दूसरा खाद्य सुरक्षा मामले में देश आत्मनिर्भर रहता है। हमें याद रखना होगा कि किसी भी राष्ट्र के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए खाद्य सुरक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है। एक दूसरा उपाय यह भी है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारों को आवास नीति एकरूपता लानी होगी, जैसे कालोनियों श आवासिय भवनों को लम्बे-चौड़े भूखण्डों में पसरने देने की बजाय बहुमंजिला भवनों को प्रोत्साहन देना हो सकता है। और तीसरा यह कि ग्रामीण क्षेत्र की अर्धशिक्षित भीड़ जो गांव में रहना नहीं चाहती और शहर में जिनके लिए मनचाहा काम नहीं है , के लिए गावं में मजदूरी के अतिरिक्त काम के अवसर पैदा किए जाएं, न उन्हें मुफ्त में रोटियां तोडऩे की आदत डाली जाए।

Wednesday, August 31, 2011

कैसे बिकता है प्रतिबंधित कीटनाशक?

आपसे बेहतर इस तथ्य को कौन समझ सकता है कि खेती के मामले में जहर पर हमारी निर्भरता कितनी बढ़ चुकि है। फसल उगाने से पहले खेत में जहर डालना शुरू करते हैं तो भण्डारण तक नहीं रूकते। बात यहीं खत्म हो जाती तो गनीमत था, अब तो फल-सब्जियों को पकाने और देर तक ताजा रखने के लिए भी जहर का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। एक आश्चर्यजनक सच्चाई यह भी है कि दुनिया भर में प्रतिबंधित कीटनाशकों को भारत में खुलेआम बेचा और प्रयोग किया जा रहा है। फल-सब्जियों पर इनके प्रयोग से न केवल कैंसर जैसी जान लेवा बीमारियों को सीधे न्योता दिया जा रहा है, बल्कि अल्सर, चर्म रोग, हृदय रोग, रक्तचाप जैसी बीमारी भी तेजी से फैल रही हैं।
फल-सब्जियों पर जहर के प्रयोग को रोकने के लिए राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद दिल्ली अब तक 27 से ज्यादा कीटनाशकों पर आंशिक या पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा चुकी है। इसके बावजूद पूरे देश में ऐसे कीटनाशकों की बिक्री बेरोकटोक जारी है। हालांकि राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद ने देशभर के कृषि व फल वैज्ञानिकों को इन प्रतिबंधित दवाओं की सूची उपलब्ध करावा दी है। परिषद ने यह जिम्मेवारी कृषि वैज्ञानिकों को सौंपी हे कि वे किसानों को ऐसे कीटनाशकों के प्रयोग से होने वाले नुकसान से अगाह करें।
राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 27 कीटनाशकों व कीटनाशक मिश्रण को जिनका प्रयोग भारत में होता है को प्रतिबंधित कर दिया है। इसके अलावा दो कीटनाशक ऐसे जिनका भारत में उपयोग प्रतिबंधित कर दिया गया है, पर इनका उत्पादन निर्यात के लिए किया जा सकता है। चार कीटनाशक मिश्रण ऐसे भी हैं जिनके उपयोग, उत्पादन व आयात को भी प्रतिबंधित किया गया है। सात कीटनाशकों को कंपनियों अथवा निर्माताओं द्वारा बाजार तक पहुंचने के पहले ही हानिकारक मानकर वापस ले लिया गया तथा 18 कीटनाशकों का तो निबंधन करने तक से मना कर दिया गया है। इसके अलावा 13 कीटनाशक वो हैं जिन्हें देश में कम इस्तेमाल करने की नसीहत दी गई है।
आपकी सुविधा के लिए उन 27 कीटनाशकों व कीटनाशक मिश्रण की सूची प्रकाशित है जिनके प्रयोग पर देश में प्रतिबंध लगाया गया है। इनमें एल्ड्रिन, बेंजीन हेक्साक्लोराइड, कैल्शियम साइनाइड, क्लोरडेन, कापर एसीटोरसेनाइट, ब्रोमोक्लोरोप्रोप्रेन, एन्ड्रिन, इथाइल मरकरी क्लोराइड, इथाइल पैराथियान, हेप्टाक्लोर, मेनाजोन, नाइट्रोफेन, पांराक्वेट डाईमिथाइल सल्फेट, पेंटाक्लोरो नाइट्रोबेंजीन, पेंटाक्लोरोकेनोल, फिनायल मरकरी एसिटेट, सोडियम मैथेन अर्सोनेट, टेट्राडिफोन, टांक्साफेन ,एल्डीकार्ब, क्लोरोबंजिलेट, डाइब्रोमाइड, ट्राईक्लोरोएसिटिक एसिड, मेटोक्सारांन, क्लोरोकेनविनकांस है।
आंशिक प्रतिबंधित रसायन -मिथइल पैराथियान दो प्रतिशत धूल या 50 प्रतिशत ईसी फल व सब्जियों पर, मिथाक्सी इथाइल मर्करी क्लोराइड का प्रयोग आलू और गन्ने के बीज के लिए प्रयोग किया जाएगा, शेष पर प्रतिबंध, मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत सब्जियों पर और सोडियम साइनाइड केवल कपास के गूलर के लिए प्रयोग होगा, वह भी विशेषज्ञ की मौजूदगी में। डीटीटी सभी फसलों पर प्रतिबंधित, एल्यूमीनियमफास्फाइड 56 प्रतिशत के उत्पादन और बिक्री पर प्रतिबंध, आल्डिन बेंजिन हैक्सा क्लोराइड, केल्सियम साइनाइड, क्लोरोडेन, डाइब्रोमा प्रोपेन, इन्डिन 20 ईसी, इथाइल मर्करी क्लोराइड, हप्टा क्लोर, मेनाजोन नाइटोफेन, क्लोरोबेन्जीलेट, केप्टाफाल 80 फीसदी चूर्ण, मैथेमिल 125 प्रतिशत, एल फास्फोमिडान 85 प्रतिशत, कार्बोफ्यूरान 50 प्रतिशत के अलावा लिण्डेन और इण्डोसल्फान पूरी तरह से प्रतिबंधित।
धड़ल्ले से बिक रहे प्रतिबंधित कीटनाशक
कृषि विशेषज्ञों से मिली जानकारी अनुसार बिटाबैक्स नामक दवाई अमेरिका में प्रतिबंधित है और वहां से तैयार हो कर भारत में आ रही है। इसका प्रयोग यहां गेहूं में कीड़ा न लगने के लिए किया जाता है।  प्रतिबंध के बावजूद कुछ रसायनों की बिक्री नाम बदलकर धड़ल्ले से हो रही है। इनमें से कुछ रसायन ऐसे हैं जो तत्काल और कुछ लंबे समय बाद अपना असर दिखाते हैं। जानते हैं उनके टेक्निकल नाम और वो नाम जिससे ये रसायन बाजार में बेचे जा रहे-
1. इथाइल मर्करी क्लोराइड--एगिसान, बैगलाल-6
2. मेथोमिल--रनेट, लैनेट, क्रिनेट
3. कार्बोफयूरॉन--प्यूराडान, अनुक्यूरान, डायफ्यूरॉन, सूमो, प्यूरी
4. फोरेट 10 प्रतिशत दानेदार--घन 10जी, अनुमेट फोरिल, फोरोटाक्स, बुकेर जी, पैराटाक्स, बेज इनमेट, वीरफोर
5. लिण्डेन गामा--लिसटाफ, देवीगामा, लिनडस्ट, केनोडेन, रसायन लिण्डेन, हिलफाल कैल्थेन, फलश कमाण्डो मेगाएडा
6. मिथाइल पैराथियान--पेरासिड 50, थानुमार, मेटासिड, फामिडाल चूर्ण, पैराटॉफ, धानुडाल, क्लोफॉस, क्लोरिसिड
7. मोनो क्रोटोफॉस-- विलकॉस, मोनोसिड, गार्जियन, मोनोधन, बलवान मनोहर, रसायन फॉस, लूफास, मोनोसिल आदि।
क्या कहता है कानून?
भारत सरकार ने प्रतिबंधित व निषिद्ध रसायनों की बिक्री रोकने के लिए सख्त कानून बनाएं हैं। कीटनाशक एक्ट 1968 की धारा 29 के तहत ऐसे रसायन बेचने वालों को दस से पचास हजार रुपये तक का जुर्माना या दो साल की कैद हो सकती है।

Tuesday, August 30, 2011

किस कीमत पर चाहिए फसलें?

आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में कीटनाशक  एंडोसल्फान की विक्रय और उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने के निर्देश केंद्र और राज्य सरकारों को जारी कर दिए हैं। दुनिया के लगभग 82 देशों में इस पर पूर्ण प्रतिबंध है। एक अकेले एंडोसल्फान की क्या बात करें, तमाम कीटनाशकों का नासमझी भरा प्रयोग जीव-जंतुओं और पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। हमें ज्यादा कमाई के लिए ज्यादा उत्पादन चाहिए। ज्यादा उत्पादन के लिए हम कितना भी खर्चा कर सकते हैं, जेब में न हो तो कर्ज लेकर  भी कर सकते हैं। हमारे खेत, फसल और किसान पूरी तरह से घातक रसायनों में ही डूबे हुए हैं। हमारे यहां एक हेक्टेयर में 600 से 800 किलोग्राम रासायनिक उर्वरक तथा 7 से 10 लीटर रासायनिक कीटनाशक छिड़के जा रहे है। रसायनों  का  भारत में औसत उपयोग 94.5 किलो है, जबकि पंजाब 209.60 किलो और आंध्रप्रदेश 219.48 तथा तमिलनाडु 186.68 किलो रसायनों का छिड़काव करते हैं।
दरअसल ये शुरूआत तो 70 के दशक से हरित क्रांति नाम पर हुई, जिसने हमें उन्नत बीज, रासायनिक पदार्थ और ट्रेक्टर-थ्रेशर जैसी मशीन आधारित तकनीकें दी पर भारतीय किसान और सरकार से यह निर्णय करने का अधिकार छीन लिया कि वह कैसे खेती करना चाहते हैं। इस तकनीकि उन्नति ने किसानों को उनकी सालाना आय से चार गुना ज्यादा कर्जदार कर दिया है और उसके खेतों का उपजाऊपन भी छीन लिया है। आज किसान जिस स्थिति में पहुंच गया है उसे खेती का संकटकाल कहा जा सकता है। आज वह पारम्परिक,  कम ऊर्वरक, कम कीटनाशक और कम पानी वाली फसलों को छोड़कर नकद फसलों  के मकडज़ाल में फस गया है, इसका एक प्रमाण तो यह है कि जहां 1991 में किसान पर औसत कर्ज ढाई हजार रूपये था वह आज बढ़कर 35 हजार रूपये के पार जा चुका है।
सवाल यह है कि आखिर हमें किस कीमत पर फसलें चाहिएं? अपनी जान की कीमत पर या बैंक और साहूकारों के यहां खुद को गिरवी रख कर? ईमानदारी भरा जवाब तो यह है कि हमें और हमारे कृषि वैज्ञानिकों तथा खेती के लिए योजनाएं बनाती सरकार किसी को भी नहीं मालूम कि होना क्या चाहिए। कीटनाशकों का इस्तेमाल बिना विकल्पों के छोड़ा नहीं जा सकता और जो विकल्प हैं वे या तो आजमाए हुए नहीं हैं या भरोसे के  लायक नहीं हैं। किसान आज इन स्थितियों से बाहर निकलना भी चाहे तो आर्थिक परेशानियां, सरकारी नीतियां और बाजार का दबाव उसे निकलने नहीं देगा। एक राजस्थानी कहावत की अर्थ यह है कि विधवा तो किसी तरह अपना समय गुजार भी ले पर समाज के दुश्चरित्र लोग उसे ऐसा करने नहीं देते।

-भू-मीत, १५ सितम्बर-१६ अक्तूबर का सम्पादकीय

Friday, August 12, 2011

विकलांग बच्चों के परिजनों हेतु विशेष बीमा योजना


क्या है इस योजनाओं में
ये बीमा योजनाएं केवल उन लोगों के लिए है,जिनके बच्चे विकलांगता के शिकार हैं और जिन्हें जीवन भर विशेष देखभाल की जरूरत पड़ेगी। ऐसे बच्चों के माता-पिता को हमेशा यह चिंता भी सताती रहती है कि उनके बाद इन बच्चों का देखभाल कौन करेगा। ऐसे लोगों के लिए ये बीमा योजनाएं एकदम उपयुक्त है। दरअसल ये सभी ग्रूप बीमा योजनाएं है जिनके तहत ऑटिज्म (आत्मकेन्द्रित), सेरेब्रल पॉल्सी (मस्तिष्क पक्षाघात), मेंटली रिटार्डिड (मंदबुद्धि) और बहु विकलांगता से ग्रसित बच्चों के माता-पिता, अभिभावक और उनका पालन-पोषण करने वाले लोगों का बीमा किया जाता है। उल्लेखनीय है कि देश में इस समय इस तरह की विकलांगता से ग्रसित करीब 22लाख लोग हैं। अन्य बीमा कंपनियों के पास भी इस तरह की पॉलिसी उपलब्ध हैं, लेकिन वे नेशनल ट्रस्ट की इन योजनाओं के मुकाबले में काफी महंगी हैं, जिन्हें एक सामान्य व्यक्ति नहीं खरीद सकता।
योजना का लाभ क्या हैं?
अस्मिता योजना के तहत विशेष देखभाल की जरूरत वाले विकलांग बच्चों और उनके माता-पिता या अभिभवकों का एक से दस लाख रुपए का जीवन बीमा किया जाता है। योजना के तहत केवल एक ही व्यक्ति को फायदा मिल सकता है। एक बच्चे के साथ केवल माता-पिता या अभिभवक में से किसी एक को ही सम्मिलित किया जाएगा। दुर्भाग्य से किसी दम्पती के दो बच्चे विकलांगता से पीडि़त हों तो वे दो पॉलिसी ले सकते हैं। अगर बीमित व्यक्ति की मृत्यु दुर्घटनावश या स्वत:हो जाती है तो बीमा कम्पनी बीमा राशि के रुपए नेशनल ट्रस्ट को देगी,जो कि बीमा के तहत नॉमिनी भी है। आत्महत्या की स्थिति में बीमा राशि नहीं मिलती। ट्रस्ट कुछ विशेष मामलों में बीमा राशि का पैसा अपने पास ही रखता है, ताकि उसके ब्याज से बच्चे की सही से देखभाल की जा सके। नेशनल ट्रस्ट इन पैसों को उन परिजनों को किस्तों में भी दे सकता है, जो उस बच्चे की देखभाल माता-पिता के गुजरने के बाद करेंगे। एक बार जब इस तरह की योजना के तहत किसी ने फायदा उठा लिया हो, तो वह दोबारा उसे योजना के तहत लाभ नहीं ले सकता। इन योजनाओं का लाभ लेने के लिए माता-पिता या अभिभावक की न्यूनतम आयु 18साल होनी चाहिए और पॉलिसी नवीनीकरण की आयु 59 साल।
कैसे लें यह बीमा?
इन बीमा योजनाओं को लेने के लिए विकलांग बच्चों के माता-पिता या अभिभावक को उन संस्थाओं में आवेदन करना होगा, जो नेशनल ट्रस्ट के तहत पंजीकृत हैं। संस्थाओं का पता और आवेदन फार्म ट्रस्ट की साइट http://www.thenationaltrust.in/ से डाउनलोड किया जा सकता है। ट्रस्ट से पंजीकृत संस्था लोगों के आवेदन करने की प्रक्रिया को पूरा करने से लेकर भविष्य में किसी अनहोनी की स्थिति में क्लेम दिलवाने तक का कार्य करेगी।
आवश्यक प्रपत्र
आवेदन फार्म के साथ आवेदकों को बच्चे का विकलांगता प्रमाण पत्र, आय प्रमाण पत्र, माता-पिता या अभिभवक के साथ विकलांग बच्चे का फोटो और कानूनी अभिभावक होने का प्रमाण संलग्न करना होगा। माता-पिता को अभिभावक प्रमाण पत्र संलग्न करने की आवश्यकता नहीं है। इस आवेदन के साथ किस्त राशि का ट्रस्ट के नाम देय एक चैक भी संलग्र करना होता है। बीमा राशि के भुगतान के समय क्लेम प्रपत्र, मृत्यु प्रमाण-पत्र तथा दुर्घटना मृत्यु होने पर पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भेजनी होती है। बीमा राशि का भुगतान पांच सप्ताह में हो जाता है।
कितनी होगी किस्त?
इस योजना को भी बाकी बीमा योजनाओं की तरह छोटी उम्र में ही लेने पर ज्यादा लाभ है। निरामय योजना में 250रूपए एक लाख के बीमें पर लिए जाते हैं। फिलहाल बाजाज एलियंस की बीमा स्कीम अस्मिता किन्हीं कारणों से कार्य नहीं कर रही है। अधिक जानकारी के लिए अपने क्षेत्र में बीमा कम्पनी या नेशनल ट्रस्ट के सहयोगियों से सम्पर्क कर सकते हैं।
सम्पर्कद नेशनल ट्रस्ट
ऑटिज्म (आत्मक केन्द्रित), सेरेब्रल पॉल्सी (मस्तिष्क पक्षाघात), मेंटली रिटार्डिड (मंदबुद्धि) और बहु विकलांगता से ग्रसित लोगों के कल्याण हेतु संस्था।
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार।
16-बी, बड़ा बाजार मार्ग, ओल्ड राजेन्द्र नगर,
नई दिल्ली-110060,
फोन: 011-43187878 फैक्स : 011-43187880

या

अर्थ आस्था बस्ती विकास केन्द्र
बालमुकन्द खण्ड, गिरीनगर, कालकाजी, नई दिल्ली-19
फोन नं: 011-26449029, 26227720
टॉल फ्री नं. : 1800-11-6800
e-mail : info@asthaindia.inasthaindia@rediffmail.com
web :    http://www.asthaindia.in/