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Thursday, April 28, 2011

ये सेंट कॉन्वॅन्ट, इन्टॅरनैशनल, ग्लोबल, एकेडमी, पब्लिक स्कूल!

शिक्षा में धन खूब है, जितना चाहे लूट, अंत काल पछताएगा, प्राण जाएंगे छूट... की भावना से रातों रात बनाए गए कथित पब्लिक स्कूलों में से 98 प्रतिशत अपने बढ़ा चढ़ा कर किए गए दावों पर किसी भी लिहाज से खरे नहीं उतरते। न तो उनके पास पर्याप्त भौतिक संसाधन होते हैं और न ही वांछित शैक्षिक मानसिकता।  इंग्लिश मीडिअम से पढ़ाई करवाने वाले ये स्कूल अकसर दो-चार गलतियों के साथ अंग्रेजी में इश्तिहार छपवाते हैं या चौराहों पर बड़े बड़े हॉर्डिंग्ज लगवाते हैं। हालांकि पढ़ाई इन स्कूलों में हिन्दी, पंजाबी या किसी अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में ही होती है। कुछ अति उत्साही स्कूलों द्वारा छात्रों से हिन्दी में बोलने पर जुर्माना वसूला जाता है जबकि इनके अध्यापक कक्षा के बाहर हिन्दी या अन्य स्थानीय भाषा का प्रयोग धडल्ले से करते देखे जा सकते हैं। ये अन्तर्राष्ट्रीय स्कूल अकसर किराए पर लिए गए ढ़ाई कमरों के विशाल भवन में चलते हैं। कुछ मामलों में, दूरदर्शी उत्साही धनपति शहर से थोड़ा दूर मुख्यत: राजमार्गों पर, 5 से 10 बीघा जमीन लेकर उस पर शानदार इमारत इसलिए खड़ी करते हैं कि उसे दिखा कर मोटा लाभ कमा सकें। किन्तु जैसाकि $कैद के दौरान अंग्रेज कवि रिचॅर्ड लवलेइस ने अपनी प्रेमिका को संबोधित एक कविता में लिखा है: (Stone walls do not a prison make,/Nor iron bars a cage/Minds innocent and quiet take/That for an hermitage.) पत्थर की दीवारें कारागार नहीं बनातीं, और न ही लोहे सींखचों से कोई पिंजरा बनता है। उसी तरह सिर्फ ऊँची और ठोस इमारतों से ही स्कूल तामीर नहीं होते, एक अच्छे स्कूल की बुनियाद में और भी बहुत कुछ चाहिए।
इंगलैण्ड की ऑक्सफॅर्ड यूनिवर्सिटी हो या कैम्ब्रिज, ईटन स्कूल हो या हैरो, भारत का  दून स्कूल हो या लोरेटो या शेरवुड आप अपने शहर-कस्बे के छोटे-छोटे से स्कूलों पर इन नामों को साइन बोर्डों पर देख सकते हैं। ऐसे स्कूल चलाने वाले सेंट, कॉन्वेंट, ब्लॉसम, जेनेसिस, अकेडमी, यहां तक कि पब्लिक स्कूल जैसे शब्दों के अर्थ तक भी नहीं जानते, जो सेंट कबीर, होली ड्रीम्स, कॉन्वेंट, गंगा ब्लॉसम, गुरूनानक जेनेसिस, सेंन्टरल अकेडमी, लाल पब्लिक स्कूल आदि से स्पष्ट हो जाता है। फिर भी यदि कोई कसर रह जाए तो शब्द विशेष का अशुद्ध उच्चारण उसे पूरा कर देता है। कोई भी अंग्रेज जैसा लगने वाला व्यक्ति नाम, जाति नाम या पशु पक्षी का नाम, इन के हिसाब से लोगो में इंग्लिश मीडिअम स्कूल का आकर्षण पैदा करने के लिए काफी है। सौफीअ को सोफिया तथा मेअरी (Mary) ज्यादातर मेरी (Merry) या मैरी (Marry) ही लिखा बोला जाता है, होपकिन्स या डोलफिन जैसे शब्द कथित अंग्रेजी माध्यम स्कूल के नाम का हिस्सा हो सकते हैं। एनी बेसेन्ट, टैगोर, विवेकानन्द, नेहरू, गांधी, कस्तूरबा, सुभाष, भगतसिंह, मौलाना आजाद, जाकिर हुसैन, लालबहादूर शास्त्री, ललिता शास्त्री, दीनदयाल उपाध्याय, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, आदि किसी भी राष्ट्रीय स्तर की शख्सियत से हमारी राष्ट्र प्रेम भावनाओं का न केवल शोषण करते हैं बल्कि अपने माता पिता या पितामह के नाम को भी हमारे सामान्य ज्ञान का हिस्सा बनाने से नहीं चूकते। बेशक किसी महापुरुष या शिक्षाविद के नाम पर किसी स्कूल के नामकरण में कोई बुराई नहीं है लेकिन इन स्कूलों का इन महापुरूषों के आदर्शों या सिद्धांतों से कोई वास्ता नहीं होता। क्या यह उचित है कि एक तरफ तो अपने किसी पूर्वज का नाम रौशन करने के लिए उसके नाम पर स्कूल खोला जाता और दूसरी ओर उसी स्कूल को बेहिसाब काली कमाई का धंधा बना लिया जाए?
शिक्षा नहीं रही समाजसेवा
हालत यह है कि आज शिक्षा व्यापार बन गई है, कुछ शोहरतयाफ्ता संस्थानों ने अपनी सदिच्छा (गुडविल) को बेचना और गांठ के पूरे महत्वाकांक्षियों ने उसे फ्रैंचाइज (विशेषाधिकार) के रूप में खरीदना भी शुरू कर दिया है। देखते ही देखते चन्द ही सालों में कुछ स्कूलों ने किराए के एक दो कमरे वाले मकानों से दीन-हीन शुरुआत करके अपने निजी विशाल और भव्य शाला भवन खड़े कर लिए हैं उस से हर व्यापारी मानसिकता वाला व्यक्ति इस चोखे धंधे में कूद पडऩे को आतुर हो गया है। अडमिशन, री-अडमिशन, शाला विकास कोष आदि के नाम पर मनमानी फीस वसूल कर जिस तरीके से अनाप-शनाप कमाई के नैतिक व्यापार की श्रेणी में तो नहीं माना जा सकता। उस पर दादागिरी यह कि मनमर्जी की डिजाइन वाली स्कूल यूनीफॉम, जूते जुराब बैग टाई और कशीदाकारी वाले स्कूल मोनोग्रैम बिल्ले आदि को इनकी अधिकृत दुकान से ही खरीदना जरूरी होता है।-स्व-चयनित अ-स्तरीय पाठ्य पुस्तकें और स्कूल नाम छपी सजिल्द कापियां भी इन्हीं से खरीदनी पड़ती हैं। हर सत्रारंभ पर पुराने छात्रों का पुन: प्रवेश, री-अडमिशन यानी एक फर्जी मद के नाम पर अभिभावकों को दो-चार हजार रुपए की एक और चपत। छात्र ढोने वाले इनके निजी वाहन जिन्हें ये -’बाल वाहिनी’ कहते हैं समझ से परे हैं। शायद इन्हें पता ही नहीं कि वाहिनी का अर्थ सेना से होता है। वैसे इस पर ज्यादा अचरज करना भी बेकार है-भगवद् लीला की तरह इनकी भी अनेक बातें आम आदमी की समझ से परे हैं। जैसे जिला या राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में पुरस्कृत विजेता, उप विजेता टीमों को अपने पीछे खड़ा करके, आगे बैठे प्रबंधक मंडल बड़े-बड़े रंगीन चित्र क्यों छपवाते हैं? अपूर्ण पाठ्यक्रम आधारित सामयिक एवं वार्षिक गृह परीक्षाओं में छात्र लगभग शतप्रतिशत अंक कैसे लाते हैं? महीने में एक बार पी टी ए बैठक, जिसमें अभिभावकों की सुनी ही नहीं जाती का ढोंग भी क्यों करते हैं? आपत्ति यह नहीं है कि ये सब स्कूल दुकानों में तब्दील क्यों हो गए। विरोध इस बात का है कि ये दुकानें न तो पूरा तोलती हैं और न ही सामान ही असली देती हैं। कोई भी स्कूल अपनी प्रचारित सामग्री में किए गए दावों पर खरा नहीं है तो यह अभिभावक-उपभोक्ताओं के साथ धोखा ही है।
खेदपूर्ण तथ्य यह है कि आज अधिकांश स्कूलों द्वारा यही किया जा रहा है। इन छल-कपट की दुकानों में पैसे तो पूरे लिए जाता हैं मगर इश्तिहार या हॉर्डिंग्ज द्वारा प्रचारित सामान एक चौथाई भी नहीं देते, जैसे- समुचित अर्हताधारी प्रशिक्षित पूरा स्थायी स्टाफ, प्रभावी तार्किक शिक्षण और कारगर अधीक्षण (Supervision), पुस्तकालय और खेल मैदान, पुस्तकालयाध्यक्ष, खेल, चित्रकला और संगीत के विषय शिक्षक तथा साप्ताहिक बाल सभा जैसे कार्यक्रम इनके यहां होते ही नहीं। शानदार चिकने कागज पर स्कूल भवन की बहुरंगी फोटो सहित विवरणिका जिसमें होते हैं स्कूल में घुड़सवारी, स्विमिंग पूल, एसी रूम्ज और स्मार्ट क्लासिज वगैरह वगैरह के दावे जबकि असल में न तो घोड़ा होता है और न ही स्विमिंग पूल, और स्मार्ट क्लासिज का तो इन्हें अर्थ भी नहीं मालूम होता, अगर कहीं घोड़ा या स्विमिंग पूल हैं भी तो स्कूल मालिक के व्यक्तिगत उपयोग के लिए है या शाला विवरणिका के लिए अपने चहेते बच्चों के साथ फोटो खिचवाने के लिए होते हैं। इन सारी बातों की पोल तो इनके हर सत्रारंभ पर निकलने वाले "आवश्यकता है " के विज्ञापन ही खोल देते हैं जिसमें, प्रिंसीपल, आया, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर सभी विषयों के सभी ग्रेड्ज के अध्यापक चाहिए होते हैं, और लिखा होता है वेतन योग्यतानुसार (यानी प्रबंधकों द्वारा आंकी गई योग्यतानुसार)। सवाल उठता है कि जब सारा स्टाफ ही चाहिए तो फिर आपके पास था क्या?
फिर भी क्यों बढ़ रहें है ये स्कूल?
अब एक बड़ा सवाल यह है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी हर साल इन स्कूलों की संख्या बढ़ क्यों रही है? जानने का प्रयास करते हैं कि वजह क्या है- इसकी एक बड़ा कारण तो है अधिकतर अभिभावकों में ज्ञान का अभाव और अंग्रेजी का दंभ मूल्य /टोर (Snob Value) तथा अंग्रेजी के प्रति उन्माद की हद तक आकर्षण। दूसरा मुख्य कारण है अपनी बिरादरी में यह प्रदर्शन भाव कि मेरा बच्चा फलां इंग्लिश मीडिअम स्कूल में पढ़ता है और यह गलत धारणा कि अखिल भारतीय या प्रांतीय प्रशासनिक पुलिस सेवाओं में चयनित ज्यादातर आइ.ए.एस. या आइ.पी.एस. अधिकारी इंग्लिश मीडिअम स्कूलों में पढ़े होते हैं। तीसरा कारण है मांग और आपूर्ति की मजबूरी। प्राथमिक स्तर पर न तो इतने सरकारी इंग्लिश मीडिअम स्कूल हैं और न ही निजी स्कूलों की तुलना में छात्रों की उपस्थिति, अध्यापन व गृहकार्य जैसे कर्मकांड में अपेक्षाकृत अधिक नियमितता और निरंतरता ही होती है।
इनका डंका बजने का सबसे बड़ा कारण है:
सही मायनों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कराने वाले गिनती के चंद स्कूल। हालांकि उत्तरी राजस्थान उससे सटे पंजाब व हरियाणा के जिलों में ऐसा एक भी इंग्लिश मीडिअम स्कूल नहीं है जहां नर्सरी कक्षा से लेकर 12वीं तक पढ़ाई सौ फीसदी अंग्रेजी में होती है, गिने-चुने स्कूल हैं जो इस लक्ष्य के निकटतम हैं या निकटतम बने रहने की ईमानदार कोशिश करते हैं। सेकण्डरी और प्लस टु 12वीं में उनके विद्यार्थियों के परीक्षा परिणाम और योग्यता सूची में उनकी श्रेणी (रैकिंग) के साथ साथ राज्य स्तरीय व  राष्ट्रीय खेल कूद और सह-शैक्षिक प्रतियोगिताओं में इनके सराहनीय प्रदर्शनों से प्रभावित माता-पिता अपने बच्चों को इन स्कूलों में दाखिल करवाने के लिए दौड़े आते हैं। और ऐसा हो भी क्यों नहीं? जब इनकी सफलता का जादू लोगों के सर चढ़ कर बोलता है तो इस लहराते परचम की आधी-अधूरी नकल (Cloning) करना तो भारतीयों का जन्मसिद्ध अधिकार है। एक असली और सौ नकली।
आखिर इसका इलाज क्या है?
अपने बच्चे की शिक्षा योजना बना कर चलें। जेब के अनुसार स्थानीय या बाहरी सही इंग्लिश मीडिअम स्कूल का चयन करें, अपने विश्वसनीय स्रोतों से उसके दावों का सत्यापन करवाएं और संतुष्ट होने पर उसकी अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए बच्चे को तैयारी करवाएं। इसके बावजूद अगर आप उसे प्रथम वरीयता के स्कूल में दाखिला नहीं दिला सकते तो नम्बर दो के  स्कूल का रुख करें। यह भी संभव न हो पाए तो बच्चे को किसी हिन्दी माघ्यम, अधिमानत: राजकीय, विद्यालय में प्रवेश दिला दें और उसकी अंग्रेजी की नींव  मजबूत करवाने के लिए किसी सक्षम समर्पित अंग्रेजी अध्यापक की सेवाएं लें। अंत में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह जरूरी नहीं है कि उपरोक्त सभी कमियां, सभी इंग्लिश मीडिअम स्कूलों में शत प्रतिशत रूप में मौजूद हों।

प्रो. अली मोहम्मद पडि़हार
भू- मीत के मार्च-अप्रैल के अंक से

पोषाहार तो बहाना है

मिड-डे-मील योजना में राजकीय एवं राज्य सरकार से सहायता प्राप्त प्राइमरी विद्यालयों में मध्यावकाश के दौरान छात्रों को भोजन दिया जाता है। 15 अगस्त1995  को इस योजना की शुरूआत के समय प्रत्येक छात्र को हर माह तीन किलोग्राम गेहूं या चावल दिया जाता था। मात्र अनाज दिए जाने से बच्चों के स्वास्थ्य एवं उनकी स्कूल में उपस्थिति पर अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा। तमिलनाडू देश का पहला राज्य था जिसमें बच्चों को अनाज की जगह पका-पकाया भोजन दिया जाने लगा। इससे न केवल छात्रों के स्वास्थ्य में सुधार हुआ अपितु वह मन लगाकर शिक्षा ग्रहण भी करने लगे। इससे विद्यालयों में न केवल उपस्थिति बढ़ी बल्कि बीच में ही विद्यालय छोडऩे (ड्राप आउट) वाले छात्रों की संख्या में कमी हुई।

इस परिर्वतन को देखते हुए भारत सरकार ने सितंबर 2004 में निर्णय लिया कि सभी प्रदेशों में मध्यान्ह अवकाश में पका-पकाया भोजन उपलब्ध करवाया जाए जिसमें कक्षा पांच तक 450 कैलोरी12 ग्राम प्रोटीन तथा कक्षा आठ तक 700 कैलोरी 20 ग्राम प्रोटीन हो। आज प्रत्येक विद्यालय में दीवार लिखा हुआ है कि सप्ताह के किस दिन छात्रों को क्या खिलाया जाएगा। आज देश के लाखों स्कूलों में कक्षा आठ तक के करोड़ों बच्चों को दोपहर का भोजन स्कूल में मिल रहा है। इस कार्य में अध्यापकों के अलावा महिला सहायता समूह और स्वंय सेवी संस्थाएं भी लगी हुई है। जैसा कि सरकार की हर योजना में होता है किसी भी कार्यक्रम में बहुत सारे लोगों को कुछ जिम्मेदारियां और ढ़ेर सारा बजट दिया जाता है। इस योजना में भी जिला एवं खण्ड स्तर पर समितियां हैं जिनमें सांसद और विधायक होते हैं। उसके बाद जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी, ग्राम प्रधान, सभासद, अध्यापकों, कोटेदार, अभिभावकों और स्कूल विकास प्रबंध समितियों सभी के दायित्व निधार्रित हैं, कि कौन क्या करेगा।
 
अनाज की खुशबू ही कुछ ऐसी होती है कि आदमी, कीड़े, कुत्ते और चिटीयां सब खिंचे चले आते हैं। पोषाहार की खुशबू भी इसका अपवाद नहीं। जो भी अधिकारी, नेता, अभिभावक और पत्रकार स्कूल आया उसी ने पोषाहार के बारे में ही जानकारी चाही। क्या पका है? क्या रोज यही बनता है? ठीक बनाया करो जैसे जुमले सुन-सुन कर अध्यापकों के कान पक चुके हैं। बच्चों के भोजन के लिए फि क्रमंद ये सभी लोग दरअसल भोजन की गुणवत्ता नहीं उसके पीछे छिपे घोटाले को देख रहे होते हैं। पोषाहार में पैसा कितना है पहले इसकी एक जानकारी।
 
कक्षा 1 से 5 तक के छात्रों हेतु प्रतिछात्र 2.69 रूपए प्रति उपस्थिति और कक्षा 6 से 8 तक 4.03 रूपए नकद मिलते हैं जो साग-सब्जी और मिर्च-मसाले के लिए होते हैं। इसी तरह कक्षा 1 से 5 तक के छात्रों हेतु प्रतिछात्र 100 ग्राम गेहूं या चावल प्रति उपस्थिति और कक्षा 6 से 8 तक 150 ग्राम गेहूं या चावल मिलते हैं। इसके अलावा 50 बच्चों तक एक, 51 से 150 तक दो और उसके उपर होने पर भी तीन 1000 रूपए महीने वाले खाना पकाने वाले व सहायक रखे जाते हैं। इन सब के अतिरिक्त गेहूं की पिसवाई, इंधन व यातायात आदि के लिए भी कुछ पैसे मिलते हैं। अब यह भी जान लेते हैं कि पोषाहार के इस सारे खेल में चोरी कैसे हो सकती है। 1. अनुपस्थित छात्रों को उपस्थित दिखा कर अनाज और पैसे दोनों की चोरी। 2. पिसवाई गेहूं में ही समायोजित करवा लेना। 3. इंधन गावं से मांग लेना या स्कूल में से ही इकटठा   कर लेना। 4. फल और भाजी की खरीद में लंगड़ी मार लेना। 5. ज्यादातर बच्चे 100 ग्राम चावल नहीं खा सकते और 150 ग्राम अनाज नहीं खा सकते, उसकी बचत को बेचना आदि। कुलजमा जोड़-बाकी 300-400 छात्रों के विद्यालय में 8 से 10 हजार रूपए महीने की चोरी हो सकती है, जो दो-तीन हिस्सों में बंटती है।
 
विडम्बना देखें कि सारे नेता, अधिकारी, गांव वाले  इस 8 से 10 हजार रूपए महीने की चोरी के बारे में तो लाख सवाल करते हैं, पर उसी विद्यालय में लाखों रूपए वेतन लेने वाले अध्यापकों से शिक्षा के बारे में एक भी सवाल नहीं पूछते। इस का यह मतलब यह कत्तई न लिया जाए कि इस चोरी को चलने दिया जाए। विद्यालय प्रबंध समिति  इस चोरी को रोक भी सकती है और इतनी कम भी कर सकती है कि चोरी करने वाला उकता कर खुद ही इसे छोड़ दे। इसके लिए कुछ ज्यादा नहीं करना बस रोजाना की उपस्थिति जांचनी है और मध्यांतर के समय समिति के एक सदस्य को बारी-बारी से स्कूल में रहना है। आखिर बच्चे आपके हैं, शिक्षा और भोजन दोनों पर उनका हक है, तो निभाएं अपना फर्ज।

Sunday, April 24, 2011

कौन देता है शिक्षा?

भारत में सरकारी स्कूली शिक्षा के स्तर से सभी इतने मायूस हैं कि। प्राथमिक स्तर पर वही अभिभावक सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाते हैं जिनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। हो सकता है कि इस बात को खुले तौर पर मानने में सरकारी स्कूल के अध्यापकों को थोड़ी शर्म आए (जो पढ़ाने के नाम पर अच्छा-खासा वेतन उठाते हैं।) कि गरीब से गरीब आदमी की भी पसंद सूची में ये अंतिम पायदान पर हैं। आज विशेष रूप से स्कूल स्तर के अध्यापकों की हमारे समाज में कोई इज्जत नहीं है। समाज में गुरू के लिए कभी सम्मान का भाव रहा होगा पर आज वह महज एक वेतन भोगी है। गुरूजी के इस हाल पर बात करें उससे पहले एक नजर इन आंकडों पर जो हमारी सारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल रहे हैं।
 
देश के प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक स्तर लाखों स्कूल और उनमें पढा़ रहे अध्यापकों, सारे सर्व शिक्षा अभियानों, ड्रॉप-आउट ट्रेकिंग कार्यक्रमों और गत वर्ष के नि:शुल्क शिक्षा जैसे कानूनों तथा केन्द्र व राज्य सरकार के अरबों रूपए के बजट के बावजूद संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट यह कहती है कि दुनिया की सबसे अधिक निरक्षर आबादी भारत में है। दूसरी ओर दि एड्यूकेशन फॉर आल की ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनियाभर 79 करोड़ 90 लाख निरक्षर वयस्कों में सबसे ज्यादा भारत में बसते है। रिपोर्ट के अनुसार, आधे से अधिक वयस्क निरक्षरों की आबादी दक्षिणी एशिया के चार मुख्य देशों बांग्लादेश, चीन, भारत और पाकिस्तान में रहती है जिसकी वजह से इस क्षेत्र में प्रगति की रफ़्तार धीमी है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार सात करोड़ बीस लाख बच्चों को प्राथमिक स्कूल में और सात करोड़ दस लाख किशोरों को माध्यमिक स्कूलों में होना चाहिए था पर वे वहां नहीं हैं। यदि यही चलन जारी रहा तो 2015 तक पांच करोड़ साठ लाख बच्चे प्राथमिक स्कूलों से बाहर होंगे। यूनेस्को की एक अधिकारी इरिना बोकोवा के अनुसार इस विश्व इकाई को आशंका है कि वित्तिय संकट के चलते सरकारें शिक्षा पर व्यय होने वाले अपने खर्च में कटौती करेंगी। अगर ऐसा हुआ तो स्थिति और भी विस्फोटक हो जाएगी है।
 
एक सच्चाई यह भी है कि हमारे देश के साक्षरों और निरक्षरों में कोई ज्यादा अन्तर नहीं है। इसका पहला कारण है हमारी बुनियादी शिक्षा में गुणवत्ता की कमी व दूसरे सरकार की प्राथमिकता में कभी शिक्षा नहीं थी, हम आज भी  इसलिए पढ़तें है कि रोजी-रोटी कमा सकें, और सरकार है कि शिक्षा कलैण्डर में पढाई के 180 दिनों में भी शिक्षकों से ही जनगण्ना, पशुगणना, चुनाव, पोषाहार, टीकाकरण जैसे कार्य करवाती है। आज के युवाओं को जब कोई भी सरकारी नौकरी न मिले तो ही वे अध्यापक बनते हैं, उनकी पहली पसंद शिक्षक बनना नहीं है। बेमन से शिक्षक बनने वाला व्यक्ति सारी उम्र खुद को और अपनी नौकरी को कौसते हुए निकाल देता है। एक ऐसा व्यक्ति जिसने मजबूरी में कोई कार्य अपनाया हो वह उस कार्य को जिन्दगी भर ईमानदारी से कर ही नहीं  सकता। कोई भी व्यक्ति सही अर्थ में शिक्षक तभी हो सकता है जब उसे अपने पेशे से प्यार हो और अपने काम के प्रति जूनून की हद तक लगाव हो। जो इन्सान अपनी सारी नौकरी पढ़ाने से जी चुराते और ट्रान्सफर से डरते हुए गुजार दे, वह कभी शिक्षक हो ही नहीं सकता।
 
एक कारण और भी है कि आज डॉक्टर बनने के लिए एक अखिल भारतीय प्रतियोगी परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने के बाद छ: से बारह साल तक पढऩा पड़ता है। यही कहानी एंजिनिअर बनने के लिए है, और तो और, वकील बनने के लिए भी बाहरवीं के बाद पांच साल पढ़ाई करनी पड़ती है तथा प्रवेश परीक्षा के लिए जी तोड़ तैयारी करनी पड़ती है। यानी किसी भी काम के लिए तीन से दस साल तक पढऩा ही पड़ता है। सवाल यह है कि अध्यापक जैसे चुनौती पूर्ण कार्य के लिए मूंगफली के भाव मिलने वाली महज एक साल की बी.एड. की डिग्री काफी कैसे है? वह भी तब जब समाज निर्माण का बोझ माता-पिता के बाद शिक्षक के कन्धों पर है।
 
इस स्थिति में सुधार लाने के लिए सरकार को पहला कदम तो यह उठाना चाहिए कि बी.एड. को प्लस टू के बाद पांच साल का कोर्स बना दे, और उसमें भी प्रवेश के लिए, एक अभिरुचि प्रतियोगी परीक्षा रखे। ऐसा करने से यह कोर्स करने वे ही छात्र आएंगे जो वास्तव में शिक्षक बनना चाहते हैं। ऐसे ही एक और प्रतियोगी परीक्षा के बाद  जो दो साल की एम.एड. करेगा वही प्रधानाध्यापक बन पाए। इतनी कडी परीक्षा के बाद जो शिक्षक आएंगे उनसे शिक्षा में क्रान्ति की उम्मीद रखी जा सकती है, अन्यथा ‘बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताय...।’
 
भू-मीत के मार्च अप्रेल अंक का संमपादकीय

शिक्षित होने का अर्थ

चारों तरफ शिक्षा ही शिक्षा के प्रतीकों के रूप में आज हमारे पास है पिछली किसी भी सदी से ज्यादा विद्यालय हैं। हर छोटे बड़े गांव, कस्बे और शहर में हर ओर स्कूल ही स्कूल दिख जाते हैं। इस विद्या ने लोगों को डॉक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक बना कर आजीविका या रोजी और रोटी कमा लेने का हुनर तो दिया है, लेकिन इसे हम सही अर्थों में शिक्षा नहीं दी। हम अपने बच्चों को यूरोप, अमरीका और आस्ट्रलिया भेज कर वहां भी रोटी कमाने की कुशलता ही सिखा रहे हैं, मात्र विद्या दे रहे हैं और कुछ भी नहीं। आज हम अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दे रहे हैं, न ही हमारा वर्तमान में शिक्षा से कोई नाता है। हम क्या कर रहें हैं यह जानने से पहले विद्या और शिक्षा के अर्थ जानने जरूरी हैं। विद्या का हमारे शास्त्रों के अनुसार अर्थ है, जो वह ज्ञान जो मुक्त करे— ‘सा विद्या या विमुक्तये’। क्या वर्तमान में जो हम पढ़ रहे हैं वह ऐसी विद्या है जो विमुक्त कर सकती हो? यह विद्या तो हमें रोजी-रोटी कमाने के साधनों में और ज्यादा उलझा रही है मुक्त नहीं कर रही। दरअसल विद्या शिक्षा का एक पहलू है, सम्पूर्ण शिक्षा नहीं है। शिक्षित होने का अर्थ है सर्वज्ञान से युक्त होना। याद करें हमारी गुरूकुल परम्परा की उस शिक्षा को जहां शिक्षार्थी शास्त्र, धर्म, साहित्य, संगीत, नैतिकता, संस्कार, युद्ध एवं राजनीति सब कुछ सिखाया जाता था। आज की शिक्षा के बारे में ज्यादा बात करने से पहले थोड़ी सी चर्चा आज की विद्या पर।
 
अब एक नजर उस विद्या के दूसरे पहलू पर भी डाल लेते हैं जो हमें रोजी-रोटी दिलवा रही है। वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी हालिया आंकडों के अनुसार-आइ.आइ.टी. से प्रतिवर्ष मात्र 3000 और 2240 इंजीनियरिंग कॉलेजों से 2.07 तथा कुल मिलाकर भारत भर में हर साल 1.10 करोड युवा डिग्रीधारी पैदा होते हैं। जिनमें से 90 प्रतिशत ग्रेजुएट नौकरी के लायक ही नहीं होते हैं। आइ.टी. की तरह पिछले कुछ वर्षो में रिटेल, हॉस्पिटैलिटी, एनिमेशन-गेमिंग, एविएशन, टूरिज्म, टेलीकम्युनिकेशन जैसे कुछ और क्षेत्र सामने आए हैं, जिसमें प्रशिक्षित युवाओं के लिए काम की भरमार है। लेकिन इन क्षेत्रों में जितने कुशल लोगों की जरूरत है, उतने मिल नहीं पा रहे हैं। इसका कारण इन क्षेत्रों में हमारे देश में प्रशिक्षण मात्र कुछ बडे शहरों में ही उपलब्ध होना है। देश की अधिकांश आबादी तो छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में रहती है, जो आज भी तमाम सुविधाओं से वंचित हैं। यहां के विद्यार्थी वे कोर्स ही पढऩे के लिए मजबूर होते हैं, जो निकटवर्ती कालेज और विश्वविद्यालय में उपलब्ध होते हैं। जब वांछित कोर्स ही उपलब्ध नहीं होगा, तो ये छात्र उसे करेंगे कैसे? नतीजा यह है कि हमारे विद्यार्थी वे ही घिसे-पिटे पारंपरिक कोर्स करते हैं, जिनका मूल्य विश्व रोजगार बाजार में दो कौड़ी भी नहीं। इसका एक ही अर्थ निकलता है कि हम जो विद्या सिखाने का एकमात्र काम कर रहे हैं वो भी पूरी ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं।
 
ऐसा नहीं है कि हमारे देश में शिक्षण संस्थानों की कमी है। इस समय भारत में करीब 300 विश्वविद्यालय और करीब 12 हजार कॉलेज हैं। इसके अतिरिक्त लगभग एक हजार दूसरे संस्थान भी हैं। लेकिन इन सबमें बीए, एमए जैसे साधारण पाठ्यक्रम ही उपलब्ध हैं। अगर तकनीकी शिक्षा संस्थानों की बात करें, तो देश में इस समय करीब 1900 सरकारी और 3500 निजी वोकेशनल कॉलेज हैं, जहां सिर्फ चार लाख छात्रों को ही मौका मिल सकता है। देश भर में इंजीनियरिंग में करीब तीन लाख और मेडिकल में मात्र 25 हजार छात्रों के लिए ही सीटे उपलब्ध हैं। यूरोपीय देशों की तुलना में भारत की करीब सवा अरब आबादी में आज लगभग 50 करोड भारतीय 25 से कम उम्र के हैं। इनमें भी 22 करोड युवा 16 से 25 साल की उम्र के हैं। यही कारण है कि भारत को युवाओं का देश भी कहा जाता है। यदि इन सभी को आज के समय की मांग के अनुसार शिक्षण-प्रशिक्षण की सुविधा मिल जाए तो भारत संभवत: दुनिया का सबसे तेजी से विकास करने वाला देश बन जाए।
 
अब एक बार पुन: शिक्षा की बात करते हैं। इस पर एक तीसरा विचार ओशो का भी है जिससे शायद आप असमत हों। ओशो समूचे विश्व की शिक्षा पर सवालिया निशान लगाते हैं। उन्होनें 1978 के अपने एक सम्बोधन में कहा था कि क्या शिक्षित होने के बाद हम और ज्यादा उजड्ढ और बद्तमीज नहीं हो गए हैं? क्या हमारी शिक्षा ने हमें स्वार्थी और ईर्ष्यालु नहीं बना दिया है? बनते भी क्यों नहीं हमें बचपन से सिखाया गया है- प्रेम करो, संस्कारी बनो! लेकिन कभी आपने विचार किया है कि आज की पूरी शिक्षा व्यवस्था प्रेम और संस्कार पर नहीं, प्रतियोगिता पर आधारित है। किताबों में सिखाते हैं प्रेम करो और पूरी व्यवस्था और इंतजाम प्रतियोगिता का है। जहां प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा और अहंकार है वहां प्रेम कैसे हो सकता है। ये सब तो जलन और ईर्ष्या के रूप है। एक बच्चे के प्रथम आने पर दूसरे बच्चों को अपमानित करने ·की हद तक प्रताडि़त किया जाता है। यह हम क्या सिखा रहे हैं? हम सिखा रहे हैं  ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और द्वेष। हमारी पूरी व्यवस्था उन्हें गोल्ड मेडल और सर्टिफिकेट दे रही है, पुरस्कृत कर रही है और मालाएं पहना रही है। जब सारी दुनिया में प्रतियोगिता सिखाई जाती हो और बच्चों के दिमाग में कम्पिटीशन और एंबीशन का जहर भरा जाता हो तो क्या दुनिया अच्छी हो सकती है? जब हर बच्चा अपने साथियों से आगे निकलने के लिए प्रयत्नशील और उत्सुक हो तो बीस साल की शिक्षा के बाद जिंदगी में वह वही करेगा जो उसने सीखा है। तभी तो आज हर आदमी एक दूसरे को खींच रहा है कि पीछे आ जाओ। दरअसल हम शिक्षा के नाम पर हिंसा सिखा रहे हैं, अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में रोज मारकाट, दंगे-फसाद और युद्ध होते हों तो आश्चर्य कैसा! अगर यही शिक्षा है तो ऐसी सारी शिक्षा तुरंत बंद हो जाए तो शायद कल का आदमी आज से बेहतर हो सकता है।
-भू-मीत मार्च-अप्रैल अंक से