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Thursday, April 28, 2011

पोषाहार तो बहाना है

मिड-डे-मील योजना में राजकीय एवं राज्य सरकार से सहायता प्राप्त प्राइमरी विद्यालयों में मध्यावकाश के दौरान छात्रों को भोजन दिया जाता है। 15 अगस्त1995  को इस योजना की शुरूआत के समय प्रत्येक छात्र को हर माह तीन किलोग्राम गेहूं या चावल दिया जाता था। मात्र अनाज दिए जाने से बच्चों के स्वास्थ्य एवं उनकी स्कूल में उपस्थिति पर अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा। तमिलनाडू देश का पहला राज्य था जिसमें बच्चों को अनाज की जगह पका-पकाया भोजन दिया जाने लगा। इससे न केवल छात्रों के स्वास्थ्य में सुधार हुआ अपितु वह मन लगाकर शिक्षा ग्रहण भी करने लगे। इससे विद्यालयों में न केवल उपस्थिति बढ़ी बल्कि बीच में ही विद्यालय छोडऩे (ड्राप आउट) वाले छात्रों की संख्या में कमी हुई।

इस परिर्वतन को देखते हुए भारत सरकार ने सितंबर 2004 में निर्णय लिया कि सभी प्रदेशों में मध्यान्ह अवकाश में पका-पकाया भोजन उपलब्ध करवाया जाए जिसमें कक्षा पांच तक 450 कैलोरी12 ग्राम प्रोटीन तथा कक्षा आठ तक 700 कैलोरी 20 ग्राम प्रोटीन हो। आज प्रत्येक विद्यालय में दीवार लिखा हुआ है कि सप्ताह के किस दिन छात्रों को क्या खिलाया जाएगा। आज देश के लाखों स्कूलों में कक्षा आठ तक के करोड़ों बच्चों को दोपहर का भोजन स्कूल में मिल रहा है। इस कार्य में अध्यापकों के अलावा महिला सहायता समूह और स्वंय सेवी संस्थाएं भी लगी हुई है। जैसा कि सरकार की हर योजना में होता है किसी भी कार्यक्रम में बहुत सारे लोगों को कुछ जिम्मेदारियां और ढ़ेर सारा बजट दिया जाता है। इस योजना में भी जिला एवं खण्ड स्तर पर समितियां हैं जिनमें सांसद और विधायक होते हैं। उसके बाद जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी, ग्राम प्रधान, सभासद, अध्यापकों, कोटेदार, अभिभावकों और स्कूल विकास प्रबंध समितियों सभी के दायित्व निधार्रित हैं, कि कौन क्या करेगा।
 
अनाज की खुशबू ही कुछ ऐसी होती है कि आदमी, कीड़े, कुत्ते और चिटीयां सब खिंचे चले आते हैं। पोषाहार की खुशबू भी इसका अपवाद नहीं। जो भी अधिकारी, नेता, अभिभावक और पत्रकार स्कूल आया उसी ने पोषाहार के बारे में ही जानकारी चाही। क्या पका है? क्या रोज यही बनता है? ठीक बनाया करो जैसे जुमले सुन-सुन कर अध्यापकों के कान पक चुके हैं। बच्चों के भोजन के लिए फि क्रमंद ये सभी लोग दरअसल भोजन की गुणवत्ता नहीं उसके पीछे छिपे घोटाले को देख रहे होते हैं। पोषाहार में पैसा कितना है पहले इसकी एक जानकारी।
 
कक्षा 1 से 5 तक के छात्रों हेतु प्रतिछात्र 2.69 रूपए प्रति उपस्थिति और कक्षा 6 से 8 तक 4.03 रूपए नकद मिलते हैं जो साग-सब्जी और मिर्च-मसाले के लिए होते हैं। इसी तरह कक्षा 1 से 5 तक के छात्रों हेतु प्रतिछात्र 100 ग्राम गेहूं या चावल प्रति उपस्थिति और कक्षा 6 से 8 तक 150 ग्राम गेहूं या चावल मिलते हैं। इसके अलावा 50 बच्चों तक एक, 51 से 150 तक दो और उसके उपर होने पर भी तीन 1000 रूपए महीने वाले खाना पकाने वाले व सहायक रखे जाते हैं। इन सब के अतिरिक्त गेहूं की पिसवाई, इंधन व यातायात आदि के लिए भी कुछ पैसे मिलते हैं। अब यह भी जान लेते हैं कि पोषाहार के इस सारे खेल में चोरी कैसे हो सकती है। 1. अनुपस्थित छात्रों को उपस्थित दिखा कर अनाज और पैसे दोनों की चोरी। 2. पिसवाई गेहूं में ही समायोजित करवा लेना। 3. इंधन गावं से मांग लेना या स्कूल में से ही इकटठा   कर लेना। 4. फल और भाजी की खरीद में लंगड़ी मार लेना। 5. ज्यादातर बच्चे 100 ग्राम चावल नहीं खा सकते और 150 ग्राम अनाज नहीं खा सकते, उसकी बचत को बेचना आदि। कुलजमा जोड़-बाकी 300-400 छात्रों के विद्यालय में 8 से 10 हजार रूपए महीने की चोरी हो सकती है, जो दो-तीन हिस्सों में बंटती है।
 
विडम्बना देखें कि सारे नेता, अधिकारी, गांव वाले  इस 8 से 10 हजार रूपए महीने की चोरी के बारे में तो लाख सवाल करते हैं, पर उसी विद्यालय में लाखों रूपए वेतन लेने वाले अध्यापकों से शिक्षा के बारे में एक भी सवाल नहीं पूछते। इस का यह मतलब यह कत्तई न लिया जाए कि इस चोरी को चलने दिया जाए। विद्यालय प्रबंध समिति  इस चोरी को रोक भी सकती है और इतनी कम भी कर सकती है कि चोरी करने वाला उकता कर खुद ही इसे छोड़ दे। इसके लिए कुछ ज्यादा नहीं करना बस रोजाना की उपस्थिति जांचनी है और मध्यांतर के समय समिति के एक सदस्य को बारी-बारी से स्कूल में रहना है। आखिर बच्चे आपके हैं, शिक्षा और भोजन दोनों पर उनका हक है, तो निभाएं अपना फर्ज।

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