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Wednesday, October 19, 2011

मण्डी पर मंडराते खतरे

हमारे देश में किसानों और अनाज व्यापारियों के सम्बन्ध वर्षों पुराने हैं। इन संबंधों में सहजता बनी रहे और किसान को उपज का सही भाव मिल सके इसके लिए यहां विगत लगभग पांच-छ:दशकों से कृषि उपज मण्डी व्यवस्था है। पिछले 10 वर्षों से इस व्यवस्था में तेजी से बदलाव आया है। आज आइटीसी, कारगिल और दूसरी कई कम्पनियों नें मण्डियों के समानान्तर अपनी व्यवस्था खड़ी कर दी है। ये कम्पनियां किसान के खेत से या मण्डी और मण्डी क्षेत्र से बाहर कहीं भी बड़ी मात्रा में ज्यादा पारदर्शी तरीके से सीधी खरीदी कर रही हैं। क्या मात्र यह कम्पनियां मंडी पर मंडराता एकमात्र खतरा हैं? जानने का प्रयास करते हैं कि और कौनसे कारण हैं जो मंडी के आस्तिव पर एक बड़ा सा सवाल बनकर खड़े हो गए हैं...  
क्या सरकार है खतरा?
इस व्यवस्था का आरम्भ सन 2000 में हुआ। मध्यप्रदेश की दिग्विजयसिंह सरकार ने आंशिक रूप से 1970 के राज्य कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम में संशोधन किया था, जिसके कारण निजी खरीददारों को मंडी प्रांगण के बाहर खरीद केंद्र स्थापित करने के लिये मंडी समितियों द्वारा लाइसेंस देने का प्रावधान किया गया। उसके बाद सितंबर 2003 को केंद्र सरकार ने विभिन्न राज्य सरकारों से परामर्श से एक मॉडल कानून 'राज्य कृषि उत्पाद विपणन (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 2003 तैयार किया। इस अधिनियम के तहत देश में कृषि बाज़ारों के प्रबंधन एवं विकास में सार्वजनिक व निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने, निजी मंडियां व सीधे खरीद केंद्र स्थापित करने के प्रावधान किए गए। साथ ही अनुबंध खेती की व्यवस्थाओं को प्रोत्साहन देने व नियंत्रित करने के कानून भी इसमें शामिल किए गए। जाहिर है यह कानून मौजूदा कृषि उपज मंडी समिति की भूमिका को भी पुनर्भाषित करता है,ताकि नई विपणन व्यवस्था तथा अनुबंध खेती के साथ इसका तालमेल बैठ सके।
क्या निजी कम्पनियां हैं खतरा ?
हमारे अर्थशास्त्री मानते हैं कि इस नई व्यवस्था से किसानों को बेहतर और उचित दाम मिल रहे हैं। इनका मानना है कि अगर सरकारी प्रणाली सही ढ़ंग से काम न करे तो उसे सुधारने की बजाए उसके समानान्तर निजी ढांचा खड़ा कर दो। आज देश भर में इन निजी कम्पनियों ने लगभग 25 प्रतिशत बाज़ार पर अपनी पकड़ बना ली है। सरकार भी शायद शक्ति संतुलन के नियम पर कार्य कर रही है उसकी नीतियां धीरे-धीरे मण्डी व्यवस्था को खत्म करने की दिशा में बढ़ रही है। कम्पनियों को किसानों से सीधे अनाज खरीदने की अनुमति देने का एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि अपनी ही जरूरतें पूरी करने के लिए सरकार को दो गुना दामों पर 53 लाख टन अनाज आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूक्रेन से खरीदना पड़ा। पिछले 4 वर्षों में अनाज की खुले बाज़ार में कीमतें 70 से 120 प्रतिशत तक बढ़ीं पर किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य महज 20 प्रतिशत ही बढ़ा। वर्तमान में ये निजी और विदेशी संस्थान किसानों के साथ बहुत ही सलीके से पेश आ रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अभी किसानों के पास कृषि उपज मण्डी का विकल्प मौजूद है। कल्पना करें कल जब यह विकल्प खत्म हो जाएगा या कम प्रभावी हो जाएगा तब भी क्या इन कम्पनियों का व्यवहार किसान के साथ यही रहेगा?

क्या आढ़तिया खुद है खतरा ?
मण्डी व्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले आढ़तिये पर लूट-खसोट के इल्जाम लगते ही आएं हैं,पर एक आढ़तिया कितना कमाता या लूटता है जरा एक नज़र इस गणित पर भी डाल लेते हैं। एक औसत आढ़तिये के माध्यम से साल भर में एक से डेढ़ करोड़ के सौदे होते हैं, जिसका 2 प्रतिशत कमीशन बनता है 2 से 3 लाख रूपए सालाना। इस राशि में उसे दुकान के सारे खर्च जैसे मुनीम और नौकर का वेतन, किराया-भाड़ा, बिजली-पानी और चाय-नास्ते आदि चुकाने होते हैं। एक पंजाबी कहावत के अनुसार 'अगर मुनाफा घुटने-घुटने तक हो तो टखने-टखने तक ही रह जाता है। यानी इस 2 प्रतिशत एक बड़ा भाग तो खर्च हो जाता है दुकान चलाने के आधारभूत खर्चों में ही। उसे अतिरिक्त कमाई होती है किसान को वक्त-जरूरत दिए गए रूपयों के ब्याज से,और कुछ व्यापारियों को वजन में कम-ज्यादा करने और अपने जानकारों से किसान को सामान दिलवाने से। हालांकि सारे व्यापारी ऐसा नहीं करते और नही मोटा ब्याज नहीं लेते और वजन में लंगड़ी भी नहीं लगाते। शायद ही कोई आढ़तिया है जिसके रूपए इस ब्याज कमाने के चक्कर में डूबे न हों। आजकल जब किसान को बैंक से 3-4 प्रतिशत पर पैसा मिल जाता है तो कौन आढ़तिये से 15 से 24 प्रतिशत पर पैसा उधार लेगा? लगातार घटती कमाई और डूबती पूंजी के कारण खुद आढ़तिया भी मण्डी छोडऩे को तैयार बैठा है।
तो क्या किसान है यह खतरा?
अब बात करें मण्डी के सबसे मज़बूत स्तम्भ यानी किसान की। अब उसके भी खाते-बही देख लेते हैं। दु:ख इसी बात का है कि किसान खाते-बही जैसी कोई चीज रखता ही नहीं है। उसका हिसाब तो आढ़तिये, बैंक  और कोर्ट-कचहरियां रखती है। मान लें एक किसान के पास दस बीघा जमीन है। वह उस पर बैंक से कर्ज लेता है 30 से 40 हजार रूपए प्रति बीधा, आढ़तिये से उसी एक बीघे पर ले लेता है 10 से 15 हजार रूपए। खाद बीज वाले से करीब 5 हजार, कुल औसत हुआ 50 हजार। अब अगर ट्रैक्टर या अन्य कोई उपकरण ले रखा है तो यह कर्ज बढ़कर हो जाएगा करीब 80 हजार रूपए प्रति बीघा तथा ब्याज व खेत का खर्च अलग।अब एक नजर प्रति बीघा कमाई भी देख लें। एक बीघा में गेहूं होता है अधिकतम 10 क्विंटल बाजार भाव के अनुसार अधिकतम 11 हजार का, सरसों 8 क्वि. 20 हजार और नरमा/कपास 8 से 10क्विं अधिकतम 32 हजार रूपए। ज्ञात रहे सरसों या गेहूं दोनों में से एक ही फसल ली जा सकती है, यानी किसान की किस्मत अच्छी हो और मौसम की मार न पड़े तो सारी उपज को मिलाकर ज्यादा से ज्यादा कमाई कर सकता है 60 हजार और कर्ज है 80 हजार तथा उसका ब्याज व अन्य खर्च। एक साल का औसत घाटा होता है करीब 20 हजार रूपए प्रति बीघा।
इसके बावजूद किसान बैंक और आढ़तिये से ज्यादा कर्ज के लिए झगड़ते देखे जा सकते हैं। उनका तर्क होता है 5 से 7 लाख रूपए प्रति बीघा वाली मेरी जमीन पर बस 30-40 हजार कर्ज? सच्चाई तो यह है कि एक बीघा जमीन का ठेका जो वर्तमान में 8 से 10 हजार रूपए है, उतना ही कर्ज ले तो कोई भी किसान कमाई कर सकता है,उसके उपर लिया गया सारा पैसा जमीन पर भार है। अब आप स्वंय ही अंदाज लगा लें कि इस लाभ की खेती को किसान कितने साल और कैसे करेगा।
क्या चाहती है सरकार?
अंत में बात कर लेते हैं मण्डी के आखरी पहरेदार यानी हमारी सरकार की। केन्द्रीय वित्तमंत्री के आर्थिक सलाहाकार कार्तिक बसु जो खुदरा व्यापार मे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की पुरजोर वकालत कर रहे हैं। आज सरकार का प्रयास खाद्य प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) के जरिये दूसरी हरित क्रांति लाने का है। जिसका फायदा किसान नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों व उत्पादन तंत्र पर नियंत्रण करने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियां उठाएंगी। सरकार अगले दो सालों में इन कम्पनियों के लिए 120करोड डॉलर का निवेश खाने-पीने का सामान बनाने वाले उद्योग में करने वाली है और साथ ही पहले 5 वर्षो तक उनके पूरे फायदे पर 100फीसदी आयकर में छूट और अगले पांच वर्षो तक 25फीसदी छूट देती रहेगी। इनके लिए उत्पाद शुल्क (एक्साइज ड्यूटी) को भी आधा कर दिया गया है यानी सरकार के बजट में कंपनियों को ज्यादा से ज्यादा फायदा दिया जा रहा है। सरकार को अनाज की कम खरीद करना पड़े और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गरीबों को अनाज कम देना पड़े इसलिए गरीबी रेखा का दायरा छोटा किया जा रहा है। यह इसलिये भी किया जा रहा है ताकि कम्पनियों को किसानों से मनमानी कीमत पर अनाज खरीदने का मौका मिल सके और इस अतिरिक्त अनाज का उपयोग निर्यात और प्रसंस्करण दोनों के लिए भी किया जा सके।
इस प्रस्तावित और लगभग सर पर खड़ी व्यवस्था को किसान और व्यापारियों को एक चेतावनी की तरह लेना चाहिए। इस चौतरफा हमले के बाद भी अगर मण्डी बच जाए तो किसी आश्चर्य से कम नहीं होगा।

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