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Monday, March 19, 2012

जल प्रबंधन किसानों के हाथ में: कितना सार्थक?

हमेशा की तरह विदेश से कुछ साल पहले एक विचार आया कि नदियों से पानी खेतों और गावों तक लाने के लिए तकनीकी लोगों और पैसे की जरूरत पड़ती है, उसके बाद तो केवल साफ-सफाई और मरम्मत का काम रहता है जिसके लिए इंजीनिअरों की फौज की क्या जरूरत है? दूसरा एक इल्जाम था, जो सिंचाई विभाग पर हमेशा से लगता आया है कि वहां कदम-कदम पर भ्रष्टाचार है। इन दोनों बातों का एक ही हल सूझा कि नहर के रख-रखाव का जिम्मा क्यों न उसके इस्तेमाल करने वालों को ही सौंप दिया जाए? वह भी तब, जब विश्व बैंक इसके लिए करोडों रूपए की वित्तिय सहायता दे रहा हो।
देशभर में एक कानून बना कर सिंचाई प्रणाली के प्रबन्धन में कृषकों की भी सहभागिता तय करदी गई। इस नए और अभिनव प्रयोग का क्या हश्र हो रहा है यह जानने से पहले यह जानना बेहद जरूरी है कि जरा से अधिकार मिलते ही आम आदमी भी उसी रंग में रंगा जाता है जिससे उसे अब तक नफरत थी। इसलिए सारे देश की बात करने की बजाय, उदाहरण के लिए केवल राजस्थान की ही बात कर लेते हैं, थोड़ा-बहुत कम-ज्यादा करके सारे देश का हाल सामने आ ही जाएगा।
किसान किस तरह नहरों और सिंचाई व्यवस्था सभांलने वाला बनेगा इस पर बात करने से पहले एक छोटी सी जानकारी विश्व बैंक से मिली सहायता राशि की। राजस्थान में 13 परियोजनाओं को विश्व बैंक द्वारा 157.97 लाख रूपये धनराशि उपलब्ध करायी जाकर माईनरों के पुनरूद्धार का कार्य कराया जा चुका है। इसी प्रकार रूरल इंफ्रास्ट्रक्चर डिवलपमेंट फण्ड की एक योजना के अन्तर्गत 19 माइनरों हेतु 235.74 लाख रूपए नाबार्ड तथा एक को राजाद परियोजना के अन्तर्गत 89.62 लाख रूपए धनराशि उपलब्ध करवायी गई। इसके अतिरिक्त 219 नव गठित जल प्रबन्धन समितियों को सन 2000-2001 में 260.61 लाख रूपए विश्व बैंक की सहायता से उपलब्ध करवाये गए, जिससे समितियों ने माइनर्स पर अति आवश्यक कार्य जैसे जंगल सफाई, सिल्ट सफाई, नहर के किनारों के कटाव को भरने के अतिरिक्त कुछ निर्माण और मरम्मत कार्य करवाए।
अब बात करते हैं जल प्रबंध समितियों की। राजस्थान में सबसे पहले यह प्रयोग चम्बल सिंचाई क्षेत्र में किया गया। सिंचाई प्रणाली प्रबन्धन, नहरी तंत्र, रख-रखाव एवं जल वितरण किसान संगठनों के माध्यम से करवाने हेतु वर्ष 1992 में 354 जल प्रबन्धन समितियों का गठन किया गया। इनमें से 82 समितियां राजस्थान सहकारी संस्था अधिनियम 1965 एवं 272 समितियां राजस्थान संस्था अधिनियम 1958 के तहत गठित की गई। वर्तमान में देश के 300 से ज्यादा जिलों में 56 हजार से ज्यादा जल उपयोक्ता संघ काम कर रहे हैं। सिंचाई प्रणाली के प्रबंधन में किसानों की सहभागिता लागू करने, वाटर यूजर एसोसिएशन गठित करने, एसोसिएशन के चुनाव करवाने, नहरों एवं वितरिकाओं के हेड से टेल तक पानी पहुंचाने का कार्य जल उपभोक्ता संगम के माध्यम से करवाने के लिए राज्य में राजस्थान सिंचाई प्रणाली के प्रबंध में किसानों की सहभागिता अधिनियम 2000 तथा नियम 2002 के तहत किस तरह काम होता है, के बारे में संक्षेप में जानकारी ऐसे है-
मोघे से शुरूआत
यह तो ज्ञात ही है कि एक चक के लिए केवल एक ही मोघा होता है अत: प्रत्येक तीन-चार मोघों पर एक समिति का गठन किया जाता है जिसमें उन सभी चकों के सारे किसान सदस्य होते हैं। अगर एक किसान की जमीन कई मोघों  के नीचे आती है तो वह उन सभी समितियों का सदस्य होगा। सभी सदस्य मिलकर एक अध्यक्ष चुनेंगे, जिसका कार्यकाल तीन वर्ष होता है। यह चुनाव आम चुनावों की तरह ही होता है, तथा किसी पदाधिकारी के पुन: निर्वाचन पर कोई प्रतिबंध नही है। अध्यक्ष तथा कार्यकारिणी के छह सदस्य आपसी सहमति से एक सचिव का चयन करते हैं।
इन समितियों का मुख्य काम है सहकारिता की भावना को प्रोत्साहित करते हुए क्षेत्र के अन्तिम छोर तक समान जल वितरण को सुनिश्चित करना तथा इस संबंध में उत्पन्न होने वाले विवादों का समाधान करना। अपने क्षेत्र के सिंचाई साधनों का रख-रखाव और बकाया तथा जुर्माने की वसूली का काम भी इसी समिति को करना होता है।
अपनी नहर स्तर पर
एक छोटी नहर (माइनर) से पर कई मोघे होते हैं। मोधा स्तर के सारे अध्यक्ष मिलकर उस माइनर के संचालन व देख-रेख के लिए एक और समिति का गठन करते हैं। इस समिति के गठन में सिंचाई विभाग, इस नहर के सभी मोघा अध्यक्ष, ग्राम पंचायतों की जल प्रबंधन समिति के अध्यक्ष, इस माइनर क्षेत्र के दो प्रगतिशील किसान, जिन्हें जिलाधिकारी द्वारा नामित किया जाता है आदि मिलकर करते हैं।
इस जल उपभोक्ता संगम का काम है पैतृक नहर से जल प्राप्त करके कमाण्ड क्षेत्र में समान रूप से वितरण करना तथा माइनर निर्माण कार्यो के रख-रखाव, अभिलेखन, आदि। इसके अतिरिक्त जल उपभोक्ता समितियाँ उपभोग किये गये जल का जल शुल्क स्वयं निर्धारित कर उसकी वसूली एवं अनुरक्षण संबंधी कार्य करने के लिए भी उत्तरदायी होती हैं।
हैड या मुख्य नहर स्तर पर 
माइनर जिस मुख्य नहर से निकलती है उसके रख-रखाव के लिए भी एक समिति बनाई जाती है जिसके अध्यक्ष का चुनाव सभी छोटी नहरों के अध्यक्ष मिलकर करते हैं। यह अध्यक्ष उस मुख्य नहर का प्रोजेक्ट चेअरमैन कहलाते हैं, जैसे गंग कैनाल प्रोजेक्ट चेअरमैन। यह प्रबंधन समिति की कार्यकारिणी में माइनर स्तर की जल उपभोक्ता समितियों के अध्यक्ष, जिलाधिकारी द्वारा नामित कमाण्ड क्षेत्र के दो प्रगतिशील किसान और अधिशासी अभियन्ता द्वारा नामित एक विभागीय कर्मचारी।
क्या रहेगी व्यवस्था?

पहली नजर में यह व्यवस्था कितनी अच्छी लगती है, हैड से टेल तक सारे किसान अपने-अपने क्षेत्रों का ध्यान रखेंगे, पानी बांटेगे, मोघों, माइनरों, नहरों और हैडों के साथ मुख्य नहर परियोजना तक को सभालेंगे, उनकी मरम्मत करवाएंगे, आबीयाना वसूलेंगे। साथ ही सरकारी कर्मचारियों की मनमानी और भ्रष्टाचार से छुटकारा मिल जाएगा।
इतना ही नहीं इन जल उपभोक्ता समितियों को केवल पानी व नहर से सम्बन्धित बिन्दुओं तक ही सीमित न रखा गया, बल्कि इन्हें विकास तथा गरीबी उन्मूलन की विभिन्न योजनाओं से भी जोड़ा गया। कृषि विभाग, उद्यान विभाग, पशुपालन विभाग, भूमि विकास एवं जल संसाधन विभाग, लघु सिंचाई विभाग, सहकारिता विभाग, ग्रामीण विकास विभाग तथा मत्स्य पालन विभाग आदि को भी इस योजना में शामिल किया गया।
राजस्थान सरकार ने हाल ही में एक अधिसूचना जारी कर राजस्थान सिंचाई प्रणाली के प्रबंध में कृषकों की सहभागिता नियम-2002 को संशोधित किया है। ये नियम राजपत्र में प्रकाशन की तिथि से प्रवृत्त होंगे तथा इन नियमों का अब नाम होगा-राजस्थान सिंचाई प्रणाली के प्रबंध में कृषकों की सहभागिता (संशोधन) नियम 2010। इस नए संसोधन से संग्रहित जल प्रभार कर में कृषकों के संगठन का अंश संग्रहित जल प्रभार या कर का 50 प्रतिशत हो जाएगा।
परेशानी क्या है?

किसान तो हमेशा से यही चाहते थे कि जल वितरण और नहरों की सारी जिम्मेदारी उनके हाथ में आ जाए। ऐसा हुआ भी, फिर अब परेशानी क्या है? हेड से टेल तक का सारा नियंत्रण एक कानून के साथ किसानों के हाथ में आने के बाद सरकारी कारिंदों और उन किसानों में कोई ज्यादा फर्क नहीं रह गया। कुछ जगहों पर तो हालात और ज्यादा बदतर हो गए। इन समितियों और संघों के माध्यम से छुटभइया नेताओं को अपनी राजनैतिक दुकान चलाने के अवसर मिल गए। गंगनहर के पूर्व प्रोजेक्ट चेअरमैन गुरबलपाल सिंह का मानना है कि ये समितियां अब राजनीति का अखाड़ा बन चुकी हैं। वे बताते हैं कि मोघे स्तर पर चल रही राजनीति व्यक्तिगत स्तर पर उतर आई है। गुरबलपाल को यह श्रेय जाता है कि गंगनहर पर चुनाव और समितियां उनके प्रयासों से 2002 में ही बन गई जबकि भाखड़ा नहर पर दस साल बाद भी अध्यक्ष नहीं बना है। नोहर से भाजपा विधायक अभिषेक मटोरिया ने इन समितियों के बारे में अनभिज्ञता प्रकट की तो पीलीबंगा से कांग्रेस के विधायक आदराम मेघवाल का कहना है कि देश का किसान अभी तक परिपक्व नहीं हुआ, अगर वह नहर सभांले तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है? पर आज के किसान से अपना घर ही नहीं सभंल रहा वो गांव की नहर क्या संभालेगा। भादरा से निर्दलिय विधायक और संसदीय सचिव जयदीप डूडी का कहना है कि किसान मूलत: अशिक्षित है, उसे यह सारी व्यवस्था समझने में समय लगेगा। अभी सभी अध्यक्षों के पास कार्यालय और सहायक नहीं है, समय जरूर लगेगा पर अंत में यही होना है कि किसान अपनी नहरों की जिम्मेदारी खुद संभाले।
सिंचाई विभाग के पूर्व मुख्य अभियंता दर्शनसिंह भी इस स्थिति से सहमत हैं, उनका कहना है कि-स्थिति में कोई अंतर नहीं आया है, उल्टा हालात ज्यादा बिगड़े हैं। सादुलशहर तहसील के भागसर गावं में गंगनहर और भाखड़ा नहर दोनों से पानी लगता है पर वहां के सरपंच नंदलाल इस तरह किसी समिति के बारे कुछ नहीं जानते, कुछ ऐसा ही हाल पदमपुर तहसील के 11 ईईए गावं के सरपंच बृजपाल का है। घड़साना जहां कुछ साल पहले पानी की समस्या के लिए आवाज उठाने वाले किसानों पर सरकार को गोलियां चलानी पड़ी, कई दिनों तक क्षेत्र में कफ्र्यू लगा रहा, वहां के जनप्रतिनिधी भी इन समितियों के बारे में उतने ही अनभिज्ञ हैं, जितने बाकी क्षेत्रों के। इस अंदोलन के हीरो रहे क्षेत्र के विधायक पवन दुग्गल स्वीकार करते हैं कि किसानों में जागरूकता की कमी है। दुग्गल का सुझाव है कि सरकार का इसके लिए और ज्यादा प्रयास करने चाहिए। दुग्गल के क्षेत्र की पंचायत 17 केएनडी के सरपंच सूरजपाल, 10 डीओएल के केवलसिंह, 2 आरकेएम के अली शेर से हुई बात का परिणाम भी वही है जो बाकी क्षेत्रों का है।
सरकारी स्तर कुछ प्रयास हो रहे हैं, जो समितियां बन जाती हैं उन्हें काम करने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। जहां चुनाव नहीं हुए वहां करवाने के प्रयास किए जा रहे हैं। सिंचाई राज्य मंत्री गुरमीतसिंह कुन्नर जब इस पूछा गया कि अब तक सभी नहरों पर समितियां क्यों नहीं बनी? के जवाब में उन्होंने कहा हर चीज में समय लगता है। गंग नहर का प्रोजेक्ट चेअरमैन बने दस साल हो गए पर अब तक भाखड़ा नहर पर यह व्यवस्था अब तक क्यों नहीं है? के उत्तर में उनका कहना था कि यह काम किसानों का है, वे प्रयास करें। जिस क्षेत्र में नहरों की देख-रेख का काम किसानों के हाथ में आ गया है वहां से भी अव्यवस्था की शिकायतें आ रही है, क्या वजह है? इस पर मंत्री जी का कहना था कि किसान सही लोगों का चुनाव करे। अब तो किसानों के लिए वसूली का कानून भी बना दिया गया है, किसान वसूली करके आधा पैसा नहरों की मरम्मत पर लगाए। अपने अधिकरों के प्रति सचेत रहे।

Saturday, March 17, 2012

हमें क्यों नहीं आता उचित जल-प्रबंधन?

हम भारतीयों की एक पुरानी आदत है कि, जब कोई बाहर वाला हमारी खूबी या कमी न बताए तब तक हमें विश्वास ही नहीं होता कि हम किन मामलों में कुशल हैं और किन में डफर। अगर हमारी कुछ समस्याएं हैं तो उन पर शोध या अध्ययन का काम भी हमारे यहां स्वत: नहीं होता, इसके लिए अमेरिका के नासा जैसे किसी संस्थान को ही अपने आप करना पड़ता है। नासा के जल विज्ञानी मेट रोडल ने पानी को लेकर देश भर में बरती जा रही लापरवाही के प्रति आंखे खोलने वाली एक रपट तैयार की है। इस रपट में भारत में सूखे की स्थिति पैदा होने के लिए जिम्मेदार कारणों में से एक अहम कारण बताया है जमीन से अंधाधुंध जल का दोहन, नतीजा देश के 604 जिलों में से 246 मतलब यह कि आधा देश सूखे की चपेट में है।
2002 से 2008 के बीच संकलित आंकड़ों के विशषलेणानुसार नासा की इस रपट में बताया गया है कि भारत के कई राज्य क्षमता से अधिक जल दोहन कर रहे हैं। क्षमता से तात्पर्य यह है कि ये राज्य अपने यहां होने वाली वर्षा के अनुपात से कहीं ज्यादा जल दोहन कर रहे हैं। देश के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में इस दौरान तकरीबन 109 क्यूबिक किलोलीटर पानी की कमी हुई है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान हर साल औसतन 17.7 अरब क्यूबिक लीटर पानी जमीन के अंदर से निकाल रहे हैं। जबकि केंद्र की तरफ से लगाए गए अनुमान के मुताबिक इन्हें हर साल 13.2 अरब क्यूबिक लीटर पानी ही जमीन के अंदर से निकालना था। इस तरह ये तीन राज्य मिलकर क्षमता से लगभग 30 फीसदी ज्यादा पानी का दोहन कर रहे हैं। इससे भूजल स्तर में हर साल 4 सेंटीमीटर यानी 1.6 इंच की कमी आ रही है जबकि सालाना वर्षा से यहां महज 58 फीसदी भूजल का ही रिचार्ज हो पाता है। पांच नदियों वाले पंजाब में इस समय करीब 14 लाख सब्मर्सिबल पम्प दिन-रात धरती की कोख से पानी उलीच रहे हैं।
जाहिर है इस अंधाधुंध जल दोहन और इससे होने वाली भूजल स्तर में गिरावट के परिणाम खतरनाक होंगे। अगर जल दोहन इसी तरह से जारी रहा तो आने वाले समय में भारत को अनाज और पानी के भारी संकट को झेलना होगा। आज भी देश के कई हिस्सों में लोगों को साफ पेयजल नहीं मिल पा रहा है। कई क्षेत्रों में गर्मी के दिनों में हैंडपैंप से पानी आना बंद हो जाता है। वहां के लोगों को हर साल बोरिंग को कुछ फुट गहराना पड़ता है। पानी के घटते स्तर की भयानकता में पंजाब नंबर एक पर है उसके बाद हरियाणा, राजस्थान और तमिलनाडु आते हैं। पंजाब की स्थिति भंयकरतम इसलिए मानी जानी चाहिए क्योंकि प्रदेश में कुल 118 ब्लाक मंडल जल संभर (डार्क जोन) हैं। उनमें से 62 की गिनती तो अति दोहित क्षेत्रों में आ चुकी है, इन क्षेत्रों में मानसून से पूर्व भूजल स्तर 4 मीटर तक नीचे चला जाता है। इन राज्यों में जमीनी पानी का यह हाल इसलिए है कि नहर और नदियों के जल वितरण पर सरकार का नियंत्रण है और जमीन से पानी निकालने पर कोई पाबंदी नहीं है।
दरअसल, इस पूरी समस्या की जड़ में जल का सही प्रबंधन नहीं होना है, और जब तक जल प्रबंधन की सही नीति नहीं बनाई जाएगी और उस पर उतनी ही तत्परता और कुशलता से अमल नहीं किया जाएगा तब तक इस समस्या का कोई समाधान नहीं है। पानी के इस्तेमाल को लेकर उदासीनता का भाव सिर्फ आम लोगों और किसानों में ही नहीं बल्कि सरकारी स्तर पर भी गहरे तक व्याप्त है। यही वजह है कि साफ पानी की समस्या दिनोंदिन गहराती जा रही है। यह समस्या इसलिए भी और अहम हो जाती है कि दुनिया की कुल आबादी के तकरीबन सत्रह फीसदी लोग भारत में रहते हैं, जबकि दुनिया का महज साढ़े चार फीसदी पानी ही यहां उपलब्ध है। ऐसे में जल समस्या से दो-चार होना कोई आश्चर्य की बात नहीं लगती। यह बात तो सब जानते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों को बढ़ाया तो नहीं जा सकता, लेकिन सावधानी बरत कर उन्हें बचाया जरूर जा सकता है और उनका उपयोग लम्बे समय तक किया जा सकता है। इसकी शुरूआत जल वितरण की व्यवस्था को सुधार कर की जा सकती है। जल संरक्षण के प्रति आम भारतीयों के मन में उपेक्षा का भाव तो है ही, कोढ़ में खाज यह है कि इस कार्य के लिए आवश्यक तकनीक की भी कमी है और जो तकनीक उपलब्ध हैं उससे आम लोग अनजान हैं। वर्षा जल-संग्रह और उसका किफायती इस्तेमाल एक अच्छा विकल्प है, पर इस तरह के प्रयास काफी सीमित मात्रा में बहुत छोटे स्तर पर हो रहे हैं। इस वजह से देश में होने वाली बारिश के पानी का अस्सी फीसदी हिस्सा समुद्र में पहुंच जाता है। भारत में वार्षिक बारिश औसतन 1,170 मिमी होती है, अगर जल की इस विशाल मात्रा का आधा भी बचा लिया जाए तो स्थिति में आश्चर्यजनक बदलाव आ सकता है।

Friday, March 16, 2012

पानी की परेशानियां

ग्रामीण क्षेत्र से अदालतों में आने वाला विवादों का एक बड़ा हिस्सा पानी को लेकर होता है। सिंचित क्षेत्र में इनकी तादाद कुछ और बढ़ जाती है। हालांकि इसके लिए सिंचाई व जल निकास अधिनियम 1954, अलग से है, पर किसानों में पानी के लिए होने वाले झगड़े कानून पढ़ कर नहीं होते। इस आलेख के माध्यम से हमारा प्रयास रहेगा कि किसान कानून में दिए गए अपने अधिकारों के बारे में जाने, ताकि अनजाने में होने वाले अनावश्यक विवादों से बचा जा सके। आइए संक्षेप में जानते हैं कि क्या है यह कानून व्यवस्था-
पानी को लेकर ज्यादातर विवाद बारी, बारी के समय, खाळा भराई आदि को लेकर होते हैं। बारियों के बारे में एक पूरा लेख इसी अंक में अन्यत्र छपा है ज्यादा जानकारी के लिए उसे जरूर पढ़ें। संदर्भ के लिए थोड़ी सी बात कर लेते हैं। सामान्यत: सिंचाई की परेशानियां उन क्षेत्रों में पाई जाती है, जिनमें अधिकांशत: सिंचाई व्यवस्था का स्तर अच्छा नहीं होता तथा सिंचाई के समय में एवं जल वितरण व्यवस्था भी ठीक नहीं होती। सिंचाई पानी के समान एवं न्यायसंगत वितरण को स्थानीय भाषा में बारीबंदी कहा जाता है। सिंचाई व जल निकास अधिनियम 1954 व नियम 11/4 के अनुसार अधिशाषी अभियंता आवश्यकता होने पर बारीबंदी लागू करने के लिए सक्षम है। इसके अतिरिक्त अगर जल वितरण एवं व्यवस्था किसी चक में समुचित नहीं है, तो इस चक का कोई भी किसान समुचित बारीबंदी लागू करने के लिए प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर सकता है। इन प्रार्थना-पत्रों पर फीस टिकटों के माध्यम से ली जाती है, जिसकी वजह से यह मामला कचहरी के नियमों के अंतर्गत आता है। सिंचाई परियोजना में प्रार्थना पत्रों पर कचहरी फीस में एक रुपये की टिकट लगाने का प्रचलन है।
खाळा भराई समय एवं सिंचाई क्रम: प्रथमवार बारीबंदी कायम करते समय सिंचाई का क्रम खाले के दाईं तरफ के नाकों से किया जाता है। दो वर्ष पश्चात बारीबंदी संसोधित करते समय यह क्रम बायीं तरफ रखा जाता है। पक्के खाळों के संदर्भ में अतिरिक्त भराई के लिए समय दो नक्कों वाले मुरब्बे पर 8 मिनट और अतिरिक्त सिंचाई समय एक नक्के वाले मुरब्बे पर 10 मिनट प्रति मुरब्बा। कच्चे खाळों की सूरत में गंगनहर क्षेत्र में 15 व 20 मिनट व भाखड़ा नहर क्षेत्र में 20 व 25 मिनट क्रमश: प्रति मुरब्बा दिया जाता है। विशेष परिस्थितियों में मौके की जांच सक्षम अधिकारी या अधिशाषी अभियंता द्वारा जांच के बाद समय बढ़ाया या घटाया जा सकता है।
निकाळ:
कच्चे खाळे वाले चकों में निकाळ का समय प्रति मुरब्बा 10 मिनट काटा जाता है और पक्के खाळे होने पर केवल पांच मिनट प्रति मुरब्बा ही काटा जाता है। खाळा निकाळ का लाभ चक के खाळे की सबसे लम्बी शाखा को दिया जाता है। जहां एक ही मुरब्बे में एक से अधिक किसानों के बीच निकाळ का विवाद हो, वहां उनके क्षेत्र के अनुपात से बारी-बारी निकाळ दिये जाने की व्यवस्था की जाती है। किसी चक में यदि अधिकतम लम्बाई की दो या अधिक खाळा शाखाएं समान दूरी की हों तो निकाळ उनकी टेल पर पडऩे वाले मुरब्बों को बारी-बारी से दिया जाता है। यदि सबसे लम्बी शाखा या शाखाओं की टेल पर स्थित मुरब्बे वाले निकाळ नहीं लेना चाहे, तो टेल के मुरब्बों से ऊपर वाले पहले मुरब्बे वाले किसानों को निकाळ दिया जाता है। यदि ऐसे मुरब्बों वाले किसान भी निकाळ न लेना चाहें, तो निकाळ की नीलामी की जाती है और सबसे अधिक निकाळ समय हेतु सहमत होने वाले किसान को दिया जाता है और उस समय की क्षतिपूर्ति टेल के हकदार मुरब्बे वाले किसानों से की जाती है।
यदि अधिशाषी अभियंता उचित समझें और निर्णय लें, तो दो या दो से अधिक भूमि खण्डों, जो एक ही मालिक के हों, पानी के क्रम का एकीकरण कर सकते हैं। जहां तक सम्भव हो, प्रत्येक किसान की भूमि के लिए जो नक्का स्वीकृत हो, उसी पर बारी बांधी जाती है। फिर भी यदि अधिशाषी अभियंता विशेष परिस्थितियों में एकीकरण किया जाना आवश्यक समझे, तो एक ही मालिक की भूमि, जो आगे पीछे या बगल के मुरब्बों में एक ही शाख पर स्थित हो, का चाहे गये एकीकरण कराने के स्थान पर स्थित भूमि के क्षेत्रफल की बराबर सीमा तक कर सकता है।
हिस्से ठेके पर दी गई या रहन पर ली गई भूमि तथा बहाव, लिफ्ट द्वारा सिंचित अनकमाण्ड व अस्थायी रूप से सिंचित अनकमाण्ड भूमि व बयात की बारी का एकीकरण अन्य भूमि के साथ नहीं किया जाता। इसी प्रकार भूमि की बारी उसके लिए स्वीकृत नक्के पर ही रखी जाती है। विशेष परिस्थितियों में इस प्रकार की हिस्से ठेके पर या रहन पर ली हुई भूमि की बारीबंदी उपनिवेशन राजस्व विभाग के रिकॉर्ड के अनुसार मालिक के नाम बांधी जाती है। बारीबंदी की पर्ची मालिक का मुखत्यारनामा प्रस्तुत करने पर उस भूमि पर काबिज किसान को दी जा सकती है।
बारीबंदी की तैयारी व लागू करने का समय:
1. चक की बारीबंदी इस तरह बनाई जाती है कि पूरा चक्कर एक ही सप्ताह यानी 168 घण्टों में पूरा हो जाए।
2. यदि एक पत्थर पर एक से अधिक नक्के हों, तो पहले वर्ष बारी बायीं तरफ वाले व दूसरे वर्ष दाहिने तरफ वाले नक्के के मुरब्बे वाले काश्तकार को दी जाती है।
3. चक में बारी हफ्ते के पहले दिन यानी सोमवार की सुबह 6 बजे व बारी तब्दील करने पर सायं 6 बजे रखा जाता है, यह क्रम साल दर साल चलता रहता है। इसी प्रकार एक ही नक्के पर एक से अधिक किसानों की भूमि पड़ती है तो उसका क्रम भी जिसकी भूमि पहले आती है, उसको पहले तथा बाद की भूमि आने के बाद का क्रम रखा जाता है।
4. पटवारी द्वारा बारीबंदी की एक रिर्पोट तैयार की जाती है, जिसमें खेत मालिक या किसान का नाम, बारी का समय जिसमें भराई, खुलने और बंद करने का समय और नक्के का जिक्र होता है। पटवारी इस सारणी में बारीबंदी तैयार करके जिलेदार को प्रस्तुत करता है। जिलेदार खातेदारों के एतराज एवं सुनवाई के बाद आवश्यक सुधार करके चार प्रतियों में इस बारीबंदी की जांच करता है और अपने स्तर पर एतराजों की सुनवाई करने के बाद अपनी राय तथा टिप्पणी सहित बारीबंदी अधिशाषी अभियंता को प्रस्तुत करता है।
5. बारीबंदी केस प्राप्त होने के बाद अधिशाषी अभियंता खातेदारों को उनके एतराज एवं उनकी आपत्तियों को आमंत्रित करने के लिए नोटिस जारी करता है। एतराजों की सुनवाई एवं बारीबंदी में सुधार यदि आवश्यक हों, करने के बाद अधिशाषी अभियंता बारीबंदी स्वीकृत करके जिलेदार को इसको लागू करने हेतु भेजता है, स्वीकृत बारीबंदी की प्रतियां उप-समाहर्ता एवं सहायक अभियंता को भी भेजी जाती हैं।
6. जब जिलेदार को स्वीकृत बारीबंदी प्राप्त होती है, वह इसे निकटतम सोमवार (सम्भवत: बंदी के मध्य खातेदारों को आवश्यक सिंचाई पर्ची देने के बाद) को लागू कर देता है और बारीबंदी प्रारम्भ करने की तिथि को संबंधित उप-समाहर्ता एवं सहायक अभियंता को अवगत करवाता है।
पुनर्विचार (अपील) : यदि कोई खातेदार अधिशाषी अभियंता द्वारा स्वीकृत बारीबंदी से सहमत नहीं है, तो वह इसके विरुद्ध पुनर्विचार (अपील) हेतु प्रार्थना कर सकता है। पुनर्विचार की प्रार्थना बारीबंदी स्वीकृति के एक पखवाड़े की अवधि के अंदर अधीक्षण अभियंता को की जाती है। इस संबंध में अधीक्षण अभियंता का निर्णय अन्तिम होता है। चूंकि बारीबंदी स्वीकृति के विरुद्ध नियमानुसार अपील करने का प्रावधान है। अत: यह वांछनीय नहीं होगा कि अधिशाषी अभियंता इसमें बार-बार परिवर्तन करें। यदि किसी पक्ष को इस संबंध में एतराज हो, तो वह अधिशाषी अभियंता के निर्णय के विरुद्ध पुनर्विचार की प्रार्थना कर सकता है।
बारीबंदी में रात-दिन का क्रम: स्वीकृत बारीबंदी में एक वर्ष की अवधि के बाद दिन से रात या रात से दिन में परिवर्तन होता है। चूंकि किसान अपना कृषि कार्यक्रम खरीफ ऋतु के प्रारम्भ में तैयार करता है। अत: बारीबंदी में दिन से रात या रात से दिन का परिवर्तन 15 अप्रेल से प्रभाव में लाया जाता है। जो बारीबंदी 15 अक्टूबर से प्रारम्भ होती है, उसमें दिन से रात अथवा रात से दिन का क्रम 15 अप्रेल से किया जाता है। यदि पहले चार महिने में इस क्रम में परिवर्तन करने की आवश्यकता न हो, तब यह परिर्वतन अप्रेल या डेढ़ साल बाद किया जाता है। बारीबंदी में दिन से रात या रात से दिन के क्रम में परिवर्तन लाते समय इन बातों को ध्यान में  रखा जाता है-
1. रात-दिन का क्रम बदलते समय 12 घण्टे का अंतर दिया जाता है, मतलब यह है कि यदि बारीबंदी प्रात: 6 बजे प्रारम्भ हुई थी, तो परिवर्तित बारीबंदी सायंकाल 6 बजे से प्रारम्भ होगी।
2. यदि सिंचाई का क्रम बाईं से दाईं ओर है तो दो वर्ष के बाद इसे दाईं से बाईं ओर किया जाता है, और इसका उल्टा भी किया जाता है।
3. रात-दिन का क्रम बदलते समय बारी के एकीकरण में चार साल तक कोई परिवर्तन नहीं किया जाता।
4. यदि किसान पारस्परिक रूप से सहमत हों, तो 12 घण्टे के वार्षिक परिवर्तन के साथ बारीबंदी को स्थायी कर दिया जाता है। इस तरह की बारीबंदी के दो सेट तैयार किए जाते हैं ताकि दिन-रात का वार्षिक परिवर्तन स्वत: ही लागू हो जाए।
बारीबंदी में नए क्षेत्र सम्मिलित करने का तरीका
1. सामान्यत: जो नए क्षेत्र बारीबंदी में शामिल किए जाते हैं, उन्हें दो श्रेणियों में बांटा जाता है। पहले वे नये क्षेत्र जो नए सिंचित क्षेत्र घोषित किए गये हों। दूसरे वे क्षेत्र जो किसी न्यायालय में विवादास्पद हों और बाद में न्यायालय के निर्णय के अनुसार बारीबंदी में शामिल किए गए हों।
2. यदि किसी क्षेत्र की फसल की अवधि के बीच में सिंचित घोषित किया जाता है, तो ऐसी अवस्था में उस क्षेत्र को अगली फसल की ऋतु से प्रारम्भ होने वाली बारीबंदी में ही शामिल किया जाता है।
3. विवादास्पद क्षेत्र जिसका निर्णय किसी न्यायालय में विचाराधीन हो और जिसका अन्तिम रूप से निर्णय फसल ऋतु के बीच हुआ हो, उसे न्यायालय के निर्णय के अनुसार माना जाता है। यदि किसी मामले में न्यायालय के निर्णय से किसी समय-विशेष का पता न लगता हो तो उस अवस्था में उस क्षेत्र की आगामी फसल के आरम्भ से शामिल या हटाया जाता है।
4. ऐसे विवादों में जहां एक सिंचित क्षेत्र उपनिवेशन या राजस्व विभाग द्वारा किसी किसान के पक्ष में निरस्त कर दिया गया हो, परंतु संबंधित किसान द्वारा बाद में अधिकृत न्यायालय से स्थगन आदेश ले लिया हो, तो ऐसे में क्षेत्रीय सिंचाई अधिकारियों को स्थगन आदेश मानते हुए संबंधित भूमि को सिंचाई का पानी जारी रखने दिया जाता है।
दोषी किसानों का पानी बंद करना और पुन: प्रारम्भ करने का तरीका।

1. ऐसे किसानों को जिन्होंने दो या इससे अधिक फसलों को सिंचाई बकाया जमा ना करवाया हो, राजस्थान सिंचाई एवं जल निकास अधिनियम 1955 के नियम की धारा 10 के अन्तर्गत सिंचाई पानी की सुविधा से वंचित किया जा सकता है। ऐसा करने से पूर्व दोषी किसानों को नोटिस दिया जाता है और नियम 10 (2) (3) (4) के अन्तर्गत कार्यवाही की जाती है।
2. इस नियम के अन्तर्गत कार्रवाही करने के लिए पटवारी ऐसे दोषी किसानों की सूची तैयार करता है, जिनके नाम दो फसलों से ज्यादा बकाया निकलता हो। ऐसी सूचियां 31 जनवरी व 31 जुलाई को तैयार की जाती है। दोषी किसानों को दिये जाने वाले नोटिस चकों की सूची सहित जिलेदार को प्रस्तुत किये जाते हैं। उसके बाद जिलेदार इन सूचियों एवं नोटिसों की जांच करके अधिशाषी अभियंता को अपनी टिप्पणी के साथ भेजता है।
3. अधिशाषी अभियंता नोटिस पर हस्ताक्षर करके जिलेदार को कार्यवाही हेतु आवश्यक निर्देश देता है और एक प्रति अपनी राय के साथ अधीक्षण अभियंता को भेजता है। अधीक्षण अभियंता ही दोषी किसानों को सिंचाई पानी की सुविधा से वंचित करने के आदेश देता है।
4. जिन दोषी किसानों को अगस्त में बकाया जमा करने के लिए नोटिस दिया गया था एवं जिन्होंने 30 सितम्बर तक बकाया जमा न कराया हो उन्हें 15 अक्टूबर की संशोधित बारीबंदी में सिंचाई पानी की सुविधा से वंचित कर दिया जाता है। इसी प्रकार फरवरी वाले दोषियों ने 31 मार्च तक बकाया जमा नहीं करवाया हो तो उन्हें 15 अप्रेल से सिंचाई सुविधा से वंचित कर दिया जाता है।
5. ऐसे दोषी किसान जिन्होंने अपनी सिंचाई बारी समाप्त हो जाने के बाद सिंचाई बकाया जमा करा दिया हो, को आगे की फसल ऋतु से पुन: पानी की सुविधा मिल जाती है, परंतु उन्हें चालू फसल ऋतु में पानी की सुविधा नहीं मिलती।

Thursday, March 15, 2012

बूझो तो, पानी कहां गया?

इस देश में पानी के लिए काम करने वाले दो तरह के लोग हैं। पहले वे जिन्होंने पानी सहेजन, बचाने और सूखे गलों तक पानी पहुंचाने के लिए अपनी सारी जिन्दगी लगा दी और दूसरे हैं पानी के जादूगर। ये लोग चलती नहर से हजारों क्यूसेक पानी गायब कर देते हैं और बढ़ा भी देते हैं। एक उदाहरण देखें- गंगनहर जब पंजाब से राजस्थान में प्रवेश करती है तो शिवपुर हेड पर पानी होता है 1950 से 2000 क्यूसेक जबकि पंजाब का सिंचाई विभाग इसमें 2400 क्यूसेक बताता है। इसी तरह हरिके बैराज से बीकानेर कैनाल के लिए 2400 क्यूसेक पानी छोड़ा जाता है, लेकिन राजस्थान आते-आते यह रह जाता है 2000 क्यूसेक से भी कम। चार सौ क्यूसेक पानी न तो हवा में उड सकता है और न ही लोटे-बाल्टी से चुराया जा सकता है। गोरखबाबा की पहेली यह है कि फिर यह पानी जाता कहां है? वह भी उस स्थिति में जब पंजाब में राजस्थान से जुड़ी नहरों से पानी की छीजत रोकने के लिए मरम्मत पर लगभग 200 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हों।
इतने बड़े पैमाने पर पानी के गायब होने के चार कारण हो सकते हैं पहला: यह कि पंजाब में बड़े पैमाने पर पानी की चोरी हो रही है। दूसरा: यह कि पानी नापने वाले गेज में गड़बड़ी है। तीसरा: यह कि पंजाब में चोरी भी हो रही हो और गेज में भी खराबी हो। चौथा: और अंतिम कारण है कि ये सब बातें सिरे से झूठी हों। इतनी दूरी तय करने और नहर के रख-रखाव के कारण अधिकतम 100 क्यूसेक पानी कम हो सकता है। ज्यादा मात्रा में पानी कम होने और गेज में अन्तर की शिकायतें मिलने पर कुछ माह पूर्व राजस्थान के सिंचाई राज्यमंत्री गुरमीतसिंह कुन्नर ने एक दल के साथ पंजाब में इन नहरों का दौरा किया तो पंजाब के अधिकारी इस बारे में कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए। इस पर मंत्रीजी ने दोनों राज्यों के अधिकारियों की संयुक्त टीम बनाकर इसकी जांच करवाने को कहा लेकिन नतीजा फिर भी वही है जो पहले था। पानी गायब होने की इस पहेली पर किसान संघर्ष समिति के प्रवक्ता एडवोकेट सुभाष सहगल कहते हैं कि 400 क्यूसेक पानी की गड़बड़ी बहुत गम्भीर है, लेकिन राजस्थान सरकार, और विभाग के अधिकारी तथा हमारे जनप्रतिनिधि इसकी ओर से आंखें मूंदे हुए हैं। वे कहते हैं कि प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एक-एक बूंद पानी को कीमती बताकर उसे बचाने का नारा तो देते हैं, लेकिन हमारे हिस्से के इस पानी की चोरी को रोकने के लिए कोई कार्यवाही नहीं करते।
गंग नहर प्रोजक्ट चेअरमेन शमीरसिंह का कहना है कि- चोरी और गेज में अंतर की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता, पर इसके अतिरिक्त दो कारण और भी हैं। जिनमें पहला कारण है दो राज्यों के बीच की राजनीति और दूसरा है राजस्थान सरकार ने पंजाब सरकार को नहर मरम्मत के पैसे नहीं दिए, इसलिए वो पानी कम दे रहे हैं। जबकि इस्टर्न कैनाल डिविजन, फिरोजपुर के अधीशाषी अभियंता सुखबीरसिंह इससे इंकार करते हुए कहते हैं कि- पैसे का लेन-देन दो सरकारों का मसला है, यह भी सही है कि पिछले साल करवाए गए मरम्मत कार्य के पैसे हमें नहीं मिले हैं, जिसकी वजह से ठेकेदारों ने हमारे विभाग पर मुकद्दमे भी किए हैं, लेकिन इसके लिए खेती का पानी रोकना कोई हल नहीं है। एकबार डैम से पानी मिलने के बाद उसे हम कहां स्टोर करेगें? हमने कभी राजस्थान के हिस्से का पानी नहीं रोका, अलबत्ता वक्त-जरूरत पर ज्यादा जरूर दिया है। सुखबीरसिंह की इस बात का समर्थन पूर्व सिंचाई राज्य मंत्री गुरजंटसिह बराड़ और गंग नहर के पूर्व मुख्य अभियंता दर्शनसिंह भी करते हैं। इनका कहना है कि पानी कम-ज्यादा होता ही रहता है, हमें जब भी ज्यादा पानी की जरूरत हुई है तब पंजाब से मिला है। पंजाब से तय पानी से ज्यादा मिलने की बात को कमोबेश किसान, नेता, अधिकारी और विपक्ष सभी स्वीकार करते हैं। पानी की इस असली-नकली कमी ने क्षेत्र में कुछ ऐसे गिरोह पैदा कर दिए हैं, जो किसानों से पैसा इक्टठा करते हैं और अपना हिस्सा रखकर पंजाब से ज्यादा पानी रातों-रात ले आते हैं। आजकल इस काम के लिए पंजाब जाना तक नहीं पड़ता, वहां के बेलदार के खाते में पैसा जमा करवा कर मोबाइल पर सूचना देकर पानी जब चाहे बढ़वाया जा सकता है। अब यही तो गोरख बाबा की अबूझ पहेली है कि पानी जरूरत से ज्यादा मिलता है पर रोना हमेशा कम का क्यों रोया जाता है? आखिर ये पानी की कहानी क्या है?

Wednesday, March 14, 2012

नहर का निर्माण फिर फिर...

इन दिनों गंगानगर-हनुमानगढ़ जिलों में क्षेत्र की जीवन-रेखा मानी जाने वाली तीनों नहरों गैंग कैनाल, इन्दिरा गांधी नहर और भाखड़ा नहर में अप्रैल 2012 में प्रस्तावित बंदी का कड़ा विरोध हो रहा है। वैसे तो यह नहरबंदी हर साल 15 दिनों के लिए इसी समय होती है, पर इस साल नहर की हालत कुछ ज्यादा ही खराब होन से यह बंदी 40 से 90 दिन तक होने वाली है। किसान नेताओं का मानना है कि इस बंदी से प्रदेश के आठ जिलों में किसानों के लिए संकट खड़ा हो जाएगा और तीन माह बाद होने वाली नरमा-कपास, ग्वार-मूंग आदि की बिजाई भी नहीं हो पाएगी। इसके विपरीत सरकार का कहना है कि नहर की लाइनिंग का काम होने से किसानों को ही फायदा होगा। उनका कहना है कि बंदी से किसानों पर फर्क तो पड़ेगा, लेकिन उतना नहीं जितना किसान या विपक्ष वाले बता रहे हैं।
इन तीनों नहरों की मरम्मत के लिए केंद्र 1352 करोड़ रुपए का बजट स्वीकृत हुआ है जिसे चार साल में खर्च किया जाना है। पहले साल बंदी का समय कुछ अधिक रहेगा, उसके बाद इसकी अवधि कम रहेगी। सरकार का कहना कि अगर अब यह मरम्मत का काम नहीं हुआ तो किसानों को उतना पानी भी नहीं मिलेगा जितना अभी मिल रहा है, और इस्तेमाल न होने पर केंद्र द्वारा जारी बजट भी लेप्स हो जाएगा। मजबूरी यह भी है कि पंजाब क्षेत्र में तीस किलोमीटर का एक बड़ा हिस्सा तो इतना खराब है कि कभी भी टूट सकता है। इसके विपरीत किसानों का कहना है कि यह बंदी सर्दी में ली जा सकती है। गर्मी के मौसम में उनके बागों को दो माह के बाद पानी मिलेगा जिसकी वजह से सभी फलों की उत्पादन प्रभावित होने की आशंका है।
तीसरे पक्ष के तौर पर पंजाब के सिंचाई मंत्री जनमेजासिंह सेखों भी हैं, जिनका कहना है कि भाखड़ा मुख्य नहर जिसके जरिए मुख्यत: हरियाणा और राजस्थान को पानी जाता है की हालत बेहद खस्ता है और चूंकि इस नहर से इन दोनों राज्यों को ही पानी मिलता है इसलिए इन्हें ही इसकी मरम्मत के लिए राशि भी देनी होती है और साथ ही इसे बंद भी करवाना होता है। उनका कहना है कि नहर की हालत इतनी खस्ता हो चुकी है कि कभी टूट सकती है। नहर कई जगह से थोड़ी थोड़ी टूटने के कारण रोजाना होने वाली दुर्घटनाओं का कारण बन रही है। पंजाब सरकार इसकी मरम्मत का पैसा बजट में नहीं रख रही है, क्योंकि उसे इस नहर से बहुत ही कम पानी मिलता है। इस नहर का नियंत्रण बीबीएमबी (भाखड़ा ब्यास मैनिजमेंट बोर्ड)के पास है, इसलिए जब तक दोनों राज्य बीबीएमबी की मीटिंग में नहर बंद करने के लिए सहमत होंगे तब तक इसकी मरम्मत नहीं की जा सकती है।
सारी स्थिति जानने के बाद लगता है कि सरकार की राय मान लेने में ही समझदारी है, क्योंकि कभी न कभी तो यह दिन आना ही था। पर सवाल उठता है कि यह दिन आया ही क्यों? हर साल होने वाली 15 से 20 दिन की बंदी में सरकार क्या करती है? नहरों के बनने से लेकर आज तक इनकी मरम्मत और रख-रखाव पर अरबों रूपया खर्च होता रहा है, फिर भी नहरों की स्थिति पहले से ज्यादा बिगड़ी ही है। नहरों का यह हाल देखकर हरिवंशराय बच्चन की एक कविता याद आती है-नीड़ का निर्माण फिर फिर। जिसका सार यह कि पंछियों के घोंसले उजड़ते रहते हैं और वे बिना उसकी परवाह किए बार-बार उन्हें बनाते रहते हैं। लेकिन यहां मामला बिलकुल उल्ट है। यहां नहरें योजनाबद्ध तरीके से तोड़ी जाती हैं, उन्हें कमजोर होने दिया जाता है या जानबूझ कर तोड़ा जाता है, ताकि इन्हें बार-बार इनकी मरम्मत का काम चलता रहे। सिंचाई विभाग और ठेकेदारों पर इल्जाम है कि नहर बने न बने, इनके घर बन जाते हैं। किसान भी इस बहती गंगा में हाथ धो ही लेते हैं, या मौका मिलते ही नहा भी लेते हैं। जैसे नहर की जमीन और पटरियों पर नाजायज ढ़ंग से मंदिर, गुरूद्वारे और ढाणियां बनाकर।
भ्रष्टाचार और नहरों का तो चोली-दामन का साथ है, मुद्दा था लम्बी नहरबंदी की तैयारी और मरम्मत का। तीन महीने से भी कम समय रह गया है प्रस्तावित नहरबंदी में और तैयारी के नाम पर अब तक विभाग ने यह तय नहीं किया है कि इस बंदी के दौरान किस-किस नहर की कहां से कहां तक मरम्मत होनी है। अभी तक बंदी के बिना होने वाले काम भी आरम्भ नहीं हुए। नहर के किनारों यहां तक कि लाइनिंग के अंदर खड़े पेड़ों को भी काटा नहीं गया है। किनारों पर मिट्टी भी नहर बंद किए बिना डाली जा सकती है, उसकी भी अब तक न तो निविदाएं जारी हुई है और न ही नाजायज कब्जाधारियों को बेदखली के नोटिस ही दिए गए हैं। अगर ये शुरूआती काम ही अब तक नहीं हुए तो क्या बंदी आने के बाद शुरू किए जाएंगे? विभाग के काम करने का तरीका देखकर लगता नहीं है कि वह इस लम्बी बंदी का कोई लम्बा फायदा लेना चाहता है। यानी एकबार फिर वही लीपापोती और वही नहरों का लगातार टूटना। ऐसे में कोई व्यंग्यकार कवि यदि यह कहे कि- नहर का निर्माण फिर फिर, भ्रष्टों का आह्वान फिर फिर..., तो कुछ बेजा नहीं होगा।

Tuesday, March 13, 2012

कितना विकट है जल संकट?

ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टेरी) एवं जल संसाधन मंत्रालय द्वारा इंडिया हैबिटैट सेन्टर, दिल्ली में आयोजित भारतीय जल गोष्ठी के उद्घाटन भाषण में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा 'बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के चलते जल-प्रबंधन के क्षेत्र में नई चुनौतियां सामने हैं, जिनका मुकाबला प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए, इन स्थितियों को देखते हुए आज हमें जल संसाधनों में व्यापक सुधार की आवश्यकता है।' ओट्टावा में कनेडियन वाटर नेटवर्क (सीडब्लूएन) द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय बैठक में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग और बढ़ती जनसंख्या के कारण आगामी 20 सालों में पानी की मांग उपलब्धता से 40 प्रतिशत ज्यादा होगी। मतलब यह कि 10 में से 4 ही लोगों के लिए पानी होगा। अगले दो दशकों में दुनिया की एक तिहाई आबादी को अपनी मूल जरूरतों को पूरा करने के लिए भी जरूरी जल का सिर्फ आधा हिस्सा ही मिल पाएगा। सबसे ज्यादा आफत तो कृषि क्षेत्र पर आएगी, जिस पर कुल आपूर्ति का 71 फीसदी जल खर्च होता है, इससे दुनियाभर के खाद्य उत्पादन पर जबरदस्त असर पडग़ा।
वैसे तो पानी की समस्या सारे विश्व के सामने है लेकिन हमारे देश में यह कुछ ज्यादा ही विकट है। तिब्बत के पठारों पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर सारे एशिया के करीब 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराते हैं। इनसे भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल की नौ नदियों में पानी की आपूर्ति होती है, जिनमें गंगा और ब्राह्मपुत्र भी शामिल हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन व ब्लैक कार्बन जैसे प्रदूषक तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों से बर्फ की मात्रा घटा दी है। माना जा रहा है कि इनमें से कुछ तो इस सदी के अंत ही तक खत्म हो जाएंगे। इन तेजी से पिघलते ग्लेशियरों से समुद्र का जलस्तर भी बढ़ जाएगा जिससे तटीय इलाकों के डूबने का खतरा भी है।
अब एक नजर इस सिक्के के दूसरे पहलू पर भी डाल लेते हैं, बिना इस सच्चाई से मुहं मोड़े कि पानी के बिना इस दुनिया की कल्पना करना भी नामुकिन है, कुछ अहम सवाल है जिनके जवाब जानने बाकी हैं, जैसे कि हमारे वैज्ञानिक लगातार कह रहे हैं कि हिमालयी ग्लेशियर पिघल रहे हैं। अगर ये ग्लेशियर पिघल रहे हैं तो नदियों और नहरों का जल स्तर क्यों नहीं बढ़ रहा? कहा जाता है कि कुल स्वच्छ पानी का सत्तर प्रतिशत खेती के काम आता है। सवाल है कि देश में खेती योग्य जमीन लगातार घट रही है, वहां जो पानी लगता था वह कहां गया? मान लिया कि उस अनुपात में आबादी बढ़ गई, पर क्या आबादी खेती जितना पानी इस्तेमाल कर सकती है? हरित क्रांति के बाद दुनिया भर के वैज्ञानिक लगातार ऐसे बीज तैयार करने में जुटे हैं जो कम समय और कम पानी में ज्यादा फसल दे सकें। उनका यह प्रयास बहुत हद तक कामयाब भी रहा है, जिसका एक प्रमाण गेहूं के नए बीज हैं जो 90 से 100 दिन और मात्र दो ही पानी में पक जाते हैं।
एक और सच्चाई यह भी कि पृथ्वी का पानी किसी भी सूरत में यहां से बाहर नहीं जा सकता। हमारा 97 प्रतिशत पानी जो पीने योग्य नहीं है, का सबसे बड़ा हिस्सा समन्दर हैं। इसी समन्दर से गर्मी की वजह से बरसात होती है। बरसात से खेती सदियों से होती आ रही है और हमारी जमीन भी दुबारा पानी से भर जाती है, जिससे कुओं में पानी आता है। हमारी बरसाती नदियां, तलाब, बावडियां, पोखर सब बरसात से ही भरते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में बरसात, ठडें मौसम में बर्फ की सूरत बरसती है, जिससे ग्लेशियर बनते हैं और जिसके पिघलने से साल भर नदियां बहती हैं, नहरें चलती हैं। यानी अगर हम बरसात को सहेजना सीख जाएं तो पानी की समस्या सदा के लिए खत्म हो सकती है। इन तथ्यों पर विचार करने के बाद एक बड़ी अहम शंका उठती है कि- क्या ये वैज्ञानिक दावे झूठे हैं? यह कैसे संभव है कि दुनिया भर के वैज्ञानिक और पानी की चिन्ता करने वाले एक साथ झूठ बोल रहे हैं? इसकी एक वजह तो यह समझ आती है कि दुनिया के सभी देशों में पर्याप्त मात्रा में बरसात नहीं होती, इस वजह से वहां का जलस्तर भी काफी गहरा होगा। उन देशों के बारे में दिए गए बयानों को हमने भी अपने लिए मान लिया। इसका यह अर्थ न लिया जाए कि हमारे यहां पानी की किल्लत नहीं है। देश का एक बड़ा क्षेत्र केवल बरसात और कुओं पर ही निर्भर है। जहां पानी है वहां भी सौ तरह के झंझट हैं। उदाहरण के लिए हम बात करते हैं पंजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान के उस हिस्से की जो विगत सत्तर-अस्सी सालों से नहरों पर ही निर्भर है। इस क्षेत्र में पानी की तथा-कथित कमी के कारण हैं- इन राज्यों के राजनैतिक झगड़े, भ्रष्टाचार, नहरों की जर्जर हालत और सिंचाई क्षेत्र में वृद्धि।
ऐसे में, हाल ही में घोषित राष्ट्रीय जल अभियान की सफलता की उम्मीद करना बेमानी है। यह तभी संभव है जब हर व्यक्ति पानी का महत्व समझे। इस दिशा में कार्यरत मंत्रालयों और विभागों को एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के बजाय समन्वित तरीके से समस्या के समाधान हेतु प्रयास करें। यदि हम कुछ संसाधनों को और विकसित करने में कामयाब हो जाएं तो काफी मात्रा में पानी की बचत हो सकती है। उदाहरण के लिए यदि औद्योगिक संयंत्रों में अतिरिक्त सावधानी से करीब बीस से पच्चीस प्रतिशत तक पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है। बहुत से देशों में इन कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी को शोधित कर खेती में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन दुर्भाग्य से हमारे देश में औद्योगिक क्षेत्रों में ही सबसे ज्यादा पानी की बर्बादी होती है। दूसरा वर्षा जल को सहेजने और पुन: भूमि में प्रविष्ट करवाने के लिए घरों, खासतौर पर बड़े-बड़े भवनों और स्कूलों आदि में जल-संग्रहण (वाटर हार्वेस्टिंग) व्यवस्था अनिवार्य हो तो यह जल की बचत में एक अहम कदम होगा। हालांकि इस बारें में कानून है कि सौ वर्गमीटर से बड़े सभी भवनों में जल-संग्रहण प्रणाली लगाना जरूरी है, लेकिन सरकार के जो विभाग इस कानून की पालना के जिम्मेदार हैं, खुद उनके अपने बड़े-बड़े भवनों में यह प्रणाली नदारद है। सार यह है कि बरसात और औद्योगिक इस्तेमाल के पानी को सावधानी से सम्भाल लिया जाए तो कम से कम तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए तो नहीं लड़ा जाएगा।