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Friday, June 8, 2012

बजट के बहाने से

पिछले महीन केंद्र और राज्य सरकारों ने अगले साल के लिए योजनाए बनाई और बजट पेश किया। बजट में चाहे कुछ भी आंकड़े भरे हों हमारा ध्यान सिर्फ इस पर है कि खेत किसान के लिए क्या है। कारण बहुत साफ है कि तमाम बड़े-बड़े उद्योग-धंधों और कम्प्यूटर क्रांति के बाद भी अब तक देश की 60 प्रतिशत आबादी खेती-किसानी पर ही निर्भर है। विडम्बना यह है कि साठ फीसदी लोगों को रोज़गार देने वाले इस क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में योगदान लगातार घटता जा रहा है। आजादी के समय कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान 50 प्रतिशत था, जो नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष 2011-12 में गिरकर 13.9 प्रतिशत रह गया है।
हरित क्रान्ति से लेकर आज तक अरबों-खरबों रुपए कृषि के नाम पर खर्च करने के बावजूद हम अन्न उत्पादन के क्षेत्र में कहां खड़े हैं, जानने के लिए एक नजर अपने पड़ौसी देशों के खाद्यान्न उत्पादन के इन आंकड़ो पर भी डाल लें। हमारे देश की प्रमुख खाद्य फसलों का उत्पादन पड़ौसी देश चीन की तुलना में लगभग आधा है। चीन जैसे बड़े देश से तुलना न भी करें तो भी यह जानकारी और भी चौंकाने वाली हो सकती है कि हमारे यहां मक्का और दलहन जैसी फसलें भी पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार से भी कम पैदा होती है। कृषि मंत्री शरद पवार से संसद में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर से यह आंकड़ें सामने आए हैं कि भारत में चावल की उत्पादकता 3,264 किलो प्रति हेक्टेअर है, जबकि चीन में यह 6,548 किलो है और बांग्लादेश में 4,182 किलो, म्यांमार में 4,123 किलो प्रति हेक्टेअर है। गेहूं की उपज के मामले में भी चीन में उपज करीब 4,748 किलो प्रति हेक्टेअर है जबकि हमारे देश में यह 3,264 किलो प्रति हेक्टेअर ही है। मक्का उपज में बांग्लादेश शीर्ष पर है, जहां इसकी उत्पादकता 5,837 किलो प्रति हेक्टेअर है, 5,459 किलो के साथ चीन दूसरे तथा 3,636 किलो के साथ म्यांमार तीसरे पर और 3,558 किलो प्रति हेक्टेअर के साथ पाकिस्तान चौथे स्थान पर है जबकि भारत में यह आंकड़ा मात्र 1,958 किलो प्रति हेक्टेअर ही है। हमारा लगभग यही हाल दलहनी फसलों के मामले में भी है।
इसके बाद बात करते हैं खेती लागत और बाजार भावों की। रासायनिक कीटनाशकों और खाद के अंधाधुंध और अवैज्ञानिक उपयोग से जहां किसान एक ओर क़र्ज़ में डूब रहा है वहीं दूसरी ओर बाजार भाव अकसर उसे धोखा दे जाते हैं। 300 रूपए किलो बिकने वाला लहसुन कब 5रूपए पर आ जाए कहा नहीं जा सकता। गत वर्ष कपास 7 हजार रूपए प्रति क्विंटल तक बिकी वह इस साल 4 हजार रूपए प्रति क्विंटल के आसपास बनी रही। इन हालात को देखते हुए ही शायद यह मांग जोर पकड़ रही है कि रेल बजट की तरह कृषि बजट भी अलग से बनाया जाए। सन 1970 से हरितक्रंाति जो सफर शुरू हुआ था वह आजतक जारी है, मगर शर्म की बात है कि हरित क्रान्ति के इन 42 सालों में हम बंग्लादेश, म्यांमार और पाकिस्तान से अन्न उत्पादन में पीछे हैं। ये हाल तब है जब कि इन देशों का कुल बजट भी हमारे कृषि बजट के बराबर नहीं हैं। 
यहां सारा दोष सरकार को भी नहीं दिया जा सकता, इस मामले में हमारा किसान भी कम नहीं है। अगर एक साल कपास की कीमत अच्छी मिल गई तो अगले साल सारे के सारे किसान कपास बीज कर बैठ जाएंगे। खाद, बीज और कीटनाशको की कमी होगी तो काले बाजार से दोगुने-चार गुने दामों पर खरीद कर भी यह बीजाई कपास की ही करेंगे। अगले साल फसल ज्यादा होने से वह भाव नहीं मिलेगा तो सरकार को कोसेंगे। ऐसे में सरकार चाहे लाख कृषि बजट बनाले, जब तक किसान अपने खेत का बजट नहीं बनाएगा तब तक वह जान ही नहीं पाएगा कि खेती करे या छोड़ दे। यही वजह है कि कल तक खेती को सम्मान का काम समझा जाता था, पर वर्तमान में अन्नदाता किसान दूसरे दर्जे के बाबुओं और अफसरों के रहमो-करम पर जिन्दा है।

1 comment:

  1. Aap ka sahi bichar hai kisan bhi apni samasyao ke liye ekjut nahi hota

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