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Friday, September 14, 2012

अनाड़ी हाथों में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं

आजादी के 65 साल बाद भी देश ऐसे डॉक्टरों से भरा पड़ा जिन्हें बोलचाल की भाषा में आरएमपी या झोलाछाप कह कर बुलाते हैं। ये लोग सिर्फ गाँवों में ही नहीं देश और राज्यों की राजधानियों तक में अपनी दुकानें सजा कर बैठे हैं, और विभिन्न पैथियों से इलाज के नाम पर लोगों के जीवन से खेल रहे हैं। कभी-कभार इनके खिलाफ अभियान चलाया जाता है तो ये कुछ समय तक अपनी दुकान बंद कर देते हैं, और मौका मिलते ही फिर शुरू हो जाते हैं।
क्यों चलती है इनकी दुकान?
चूंकि देश में योग्य एवं प्रशिक्षित चिकित्सकों की कमी है, और जो हैं वे गांवों में जाना नहीं चाहते। इसका फायदा ये तथा-कथित डॉक्टर उठाते हैं। देश में इस तरह के डॉक्टरों को पैदा करने वाले संस्थानों की भी कमी नहीं है। देश के हर राज्य में इस तरह के संस्थान हैं, धडल्ले से डिग्री और प्रमाणपत्र जारी करने की अपनी दुकानदारी चलाते हैं। हालांकि न तो डिग्री प्रदान करने वाले इन संस्थानों की कोई अहमियत है और न इन डिग्रियों की, क्योंकि ये संस्थान कहीं से भी मान्यता प्राप्त नहीं हैं।
किन बीमारियों का इलाज करते हैं ये डॉक्टर?
इस व्यसाय में दो तरह के डॉक्टर हैं। पहले वे जो गावों में रहकर हर छोटी-बड़ी बीमारी का इलाज करते हैं और शहर के बड़े डॉक्टरों के कमीशन ऐजेन्ट हैं। दूसरे वे जिनके आपने अकसर ऐसे विज्ञापन देखे होंगे जिनमें कई सारी बीमारियों का सौ प्रतिशत गारण्टी से इलाज का दावा होता है। आपमें से कुछ लोग उन पर यकीन भी कर लेते हैं। आइए जानते हैं कि वो कौनसी बीमारियां हैं जिनका इलाज आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास नहीं किसी हकीम, वैद्य बाबा या झोलाझाप डॉक्टर के पास है। इस तरह के लोग जिन बीमारियों को ठीक करने का दावा करते हैं, उन्हें सुविधा के लिए चार श्रेणियों में बांट लेते हैं। पहली श्रेणी में वह लाइलाज बीमारियां आती हैं जिनका अब तक विज्ञान से कोई पक्का इलाज नहीं ढंूढ़ा है जैसे- कैंसर, ऐडस, गंजापन, छोटा कद, कुछ तरह के सफेद दाग, स्थाई विकलांगता और कुछ तरह के मानसिक रोग हैं। दूसरी श्रेणी में वह बीमारियां हैं जिनका इलाज या तो मंहगा है या सिर्फ ऑपरेशन से ही ठीक हो सकती हैं जैसे- पित्ते की पथरी, घुटने और जोडों का दर्द, मोटाप या दूबलापन, बवासीर, बढ़ा हुआ गूदूद और कुछ तरह की गांठें आदि। तीसरी श्रेणी में वह बीमारियां है जो समय के साथ खुद व खुद ठीक हो जाती हैं जैसे पीलिया, कील, मुहासे, झाइयां और कुछ तरह का लकवा और चौथी तथा अंतिम श्रेणी में आने वाली बीमारियां मदार्ना कमजोरी या यौन रोगों से संबंधित होती हैं। विडंबना है कि जो लाइलाज बीमारी अच्छे-अच्छे डॉक्टरों के उपचार से ठीक नहीं हुई और जिन्हें डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, ऐसे लोग इन आकर्षक विज्ञापनों के जाल में फंस जाते हैं। यह इलाज करवाते समय हमारी सोच यह होती है कि जब हजारों रुपए खर्च करने पर भी बीमारी ठीक नहीं हुई तो कुछ रुपये और सही।
कैसी-कैसी डिग्रियाँ
पांचवी, सातवीं या दसवीं फेल ये डॉक्टर अपने नाम के आगे आरएमपी, बीएमपी, बीएएमएस, डीएचएमएस, डीएमयू, बीएससी, एसआइएमएस (सिम्स), एमआइएमएस (मिम्स) और यहां तक कि अपने नाम के आगे एफआरसीएस तक लिखने से गुरेज नहीं करते। ये झोलाछाप एमबीबीएस (एएम) यानी अन्तरनेटिव मेडिसीन में डिग्री अपने बोर्ड पर धड़ल्ले से लिखते हैं। कई चिकित्सक तो ऐसे हैं जो अपने नाम के आगे डीएम, एएससीएमई, एएपीएमई (फिजिशियन एण्ड सर्जन) लिखने के साथ ही धड़ल्ले से आपरेशन तक करते हैं। इन चिकित्सकों की कई पीढ़ियां इस पेशे में लगी है। यदि इन चिकित्सकों से इन भारी-भरकम डिग्रियों का अर्थ पूछ लिया जाए तो कई रोचक जवाब मिलते हैं और कुछ तो बगलें झांकने लगते हैं। जानकरी के लिए बतादें कि सिम्स व मिम्स पत्रिकाओं के नाम हैं जिसकी इन फर्जी डॉक्टरों ने वार्षिक सदस्यता ले कर अपनी डिग्री में शामिल कर लिया है। बीएएमएस को ये लोग बैचलर ऑफ मेडिसिन ऐंड बैचलर ऑफ सर्जरी बताते हैं जो एक आयुर्वेदिक डाक्टरों की डिग्री है। अपने नाम के आगे आरएमपी लिखने वाले डॉक्टर इस डिग्री की अलग-अलग व्याख्या करते हैं। कोई रुरल मेडिकल प्रैक्टिशनर, कोई रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर तो कई ने इसे रीयल मेडिकल प्रैक्टिशनर कहते हैं तो कुछ आरएलडी डिग्रीधारी भी हैं, जो खुद को रुरल एलोपैथ डाक्टर बताते हैं। एफ.आर.सी.एस. (फैलो ऑफ रायल कालेज ऑफ सर्जन्स)एक मानद उपाधि है जो सर्जरी के अलावा समाजसेवा आदि के क्षेत्र में इंगलैण्ड या आयरलैण्ड के रायल कालेज ऑफ सर्जन्स द्वारा दी जाती है। रायल कालेज 1994 में मदर टेरेसा, 1995 में नेल्सन मंडेला और अमेरीका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर को भी एफ.आर.सी.एस. की मानद उपाधि दे चुका है।
खुद रहना होगा सावधान
कल्पना की जा सकती है कि जब इंसान की सेहत ऐसे नीम-हकीमों के हाथ में हो, तो उसका क्या हश्र होगा। ये झोलाछाप डॉक्टर अनाधिकृत रूप से और बिना किसी मान्य डिग्री के ग्रामीण अंचलों में अपनी डिस्पेंसरी या क्लिनिक चला रहे हैं जब कोई केस बिगड़ जाता है तो उसे शहर के किसी निजी अस्पताल में छोड़ आते हैं, जहां से इन्हें मोटा कमीशन मिलता है। देश के हर छोटे बड़े गांव में ऐसे फर्जी डॉक्टरों की भरमार है जो कि अनाधिकृत रूप से एलोपैथिक दवाएं लिखकर जनस्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। दंत चिकित्सक के क्षेत्र में तो सड़कछाप डॉक्टरों की कमी नहीं है। वे सड़क पर तंबू लगाकर लोगों के दांत उखाड़ने से लेकर नकली बत्तीसी बनाने तक का काम करते हैं। पायरिया और अन्य दंत रोगों का शर्तिया इलाज करने वाले इन कारीगरों के पास न तो पर्याप्त उचित औजार ही होते हैं और न ही दक्षता। इनकी गिरफ्त में आए व्यक्ति संक्रमण के शिकार होकर उसकी पीड़ा भोगते हैं। ताकत और जवानी को बेचने वाले भी कम नहीं है। हस्तमैथुन, शीघ्रपतन, स्वप्नदोष आदि के बारे में फैली भ्रांतियों की वजह से इनकी दुकानदारी खूब चलती हैं। आप शायद ही जानते हों कि स्तंभन शक्ति बढ़ाने और कद लम्बा करने के लिए दी जाने वाली दवा सेहत को कितना नुकसान पहुंचाती है। जब कोई बड़ा हादसा हो जाता है या कोई गंभीर शिकायत होती है, तो डॉक्टरों और उसकी डिग्री की खोज खबर की जाती है, जिससे पता चलता है कि न सिर्फ डॉक्टर नकली था उसकी डिग्री भी फर्जी थी। आजकल पंजाब राज्य में प्रशासन ने ऐसे डॉक्टरों की दुकानें बंद करवा रखी हैं तो वे विधानसभा के बाहर धरने पर बैंठे है। इनका तर्क है कि जब तक सरकार कोई उचित व्यवस्था नहीं करती तब तक हम जनता की सेवा करके उनकी मदद ही कर रहे हैं। यह इजाजत मांगना कुछ ऐस ही कि किसी गांव में अगर थाना नहीं है तो वहां कोई भी आदमी खाकी वर्दी पहन कर खुद को न सिर्फ हवलदार, थानेदार या एसपी कहने लगे, बल्कि किसी भी गांव वाले को उठाकर कमरे बंद करदे या मारपीट करे। कुछ वर्ष पहले तक अनुभवी कम्पाउंडरों का पंजीकरण करके रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर यानी आरएमपी बना दिया जाता था, लेकिन अब यह प्रणाली समाप्त कर दी गई है। भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद अधिनियम 1970 में अनुभव के आधार पर पंजीयन का अब कोई प्रावधान नहीं है। यदि कोई संस्था अनुभव के आधार पर पंजीयन करने का दावा करती है, तो वह सौ प्रतिशत अवैध है। सन 1998 में दिल्ली उच्च न्यायालय में कई प्रचलित वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को मान्यता प्रदान करने के लिए एक याचिका दायर की गई थी। जिसके जवाब में न्यायालय ने स्वास्थ्य मंत्रालय को निर्देश दिया कि वह इन चिकित्सा पद्धतियों को मान्यता प्रदान करने की संभावनाएं तलाशें। इसके लिए चिकित्सा अनुसंधान परिषद निर्देशक की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। हाल ही में प्रस्तुत इस समिति की रिपोर्ट को पूरी तरह स्वीकार करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जिन 10 वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को मान्यता देने से मना किया उनमें जल चिकित्सा, मूत्र चिकित्सा, रत्प चिकित्सा (RAPT), प्राणिक हिलिंग, मैगेटोथैरेपी, रैकी, इलेक्ट्रोथिरैपी, अरोमाथिरेपी, कलर थिरेपी और रिफलेक्सोलॉ शामिल है। इनके द्वारा इलाज करने वाले चिकित्सकों को अपने नाम के साथ डॉक्टर लगाने का भी अधिकार नहीं है। इस संबंध में मंत्रालय के निर्देशों में कहा गया है कि कोई भी संस्थान गैर मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धति में स्नातक या स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम संचालित नही करेगा। समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार कई वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों का कोई प्रामाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है और न ही चिकित्सा की यह कोई प्रमाणिक विधि है। यहां तक कि इन चिकित्सा पद्धतियों में प्रयुक्त दवाओं के निर्माण में भी कोई प्रामाणिक विधि नहीं है और न ही इनकी गुणवत्ता के स्पष्ट मापदंड हैं।

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