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Sunday, December 29, 2013

भारत में जीएम फसलेंऔर विज्ञान की राजनीति

पिछले दिनों आनुवंशिक रूप से परिवर्तित यानी जीएम फसलों के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित तकनीकी समिति की रपट आने के बाद देश का वैज्ञानिक समुदाय जिस तरह आंदोलित हुआ उसे देख कर हैरानी होती है। कृषि अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिकों और जैव तकनीक, वन और पर्यावरण मंत्रालय के तकनीकशाहों ने रपट आने के बाद एक घोषणापत्र जारी करते हुए प्रधानमंत्री से गुहार लगाई कि सरकार को इस मसले पर और वक्त जाया नहीं करना चाहिए और जीएम फसलों के व्यावसायिक उत्पादन को तुरंत अनुमति दी जानी चाहिए। जबकि तकनीकी समिति ने अपनी रपट में कहा है कि जीएम फसलों के परीक्षणों पर दस सालों के लिए प्रतिबंध लगा देना चाहिए और इस अवधि में इस बात का आकलन-अध्ययन किया जाना चाहिए कि इन फसलों के चलन का लोगों के स्वास्थ्य और प्रकृति पर क्या असर पड़ेगा। वैज्ञानिक समुदाय तकनीकी समिति की रपट पर यह सवाल भी उठा रहा है कि वह कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है। उनके अनुसार कृषि की शोध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री से यह बात साबित हो चुकी है कि जीएम फसलों से न केवल पैदावार में बढ़ोतरी हुई, बल्कि कीटनाशकों के उपयोग में भी कमी आई है।
इस विवाद की एक दिलचस्प बात यह है कि न्यायालय की तकनीकी समिति जिस बीटी कपास को किसानों की तबाही का कारण मानती है उसके बारे में इन वैज्ञानिकों ने कसीदे पढऩे में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वैज्ञानिकों का घोषणा-पत्र कहता है कि मिट्टी और पानी जैसे संसाधनों की सीमाओं को देखते हुए भविष्य का खाद्य संकट बीटी कपास जैसी तकनीक के सहारे ही हल किया जा सकता है। पक्ष-विपक्ष की इस लामबंदी में उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ के इस वक्तव्य से यह मुद्दा और जटिल हो गया है कि मसले से जुड़े हर पक्षकार की बात सुने बिना वह कोई फैसला नहीं करेगी। खंडपीठ की नजर में जिन्हें पक्षकार माना जा रहा है उनमें जीएम फसलों का शोध और व्यापार करने वाली कंपनियां भी शामिल हैं। इसलिए उसने सात नवंबर को कंपनियों की नुमाइंदगी करने वाले संगठन को भी अपना पक्ष रखने का मौका दिया है। यह ठीक है कि कंपनियों को पक्षकार मानने का मतलब उनका पक्ष-पोषण करना नहीं है और इस मामले में हमें किसी भी पूर्वग्रह से बचना चाहिए, लेकिन उदारीकरण के दो दशकों का औसत अनुभव यह रहा है कि पूंजी और जनकल्याण के बीच जब भी कोई विवाद खड़ा हुआ है तो जीत पूंजी की ही हुई है।
बहरहाल, जीएम फसलों के पक्ष-विपक्ष में दिए जा रहे इन तर्कों के बाद कम से कम यह तो साफ हो गया है कि यह मसला विज्ञान और तकनीक का नहीं, बल्कि राजनीतिक है। कंपनियों की मार्फत पूंजी के हित-साधन में लगे पैरोकार जब यह कहते हैं कि जीएम फसलों पर रोक लगाने का आग्रह विज्ञान का अपमान है तो दरअसल वे भी राजनीति ही कर रहे हैं। विज्ञान की इस राजनीति का अगर कोई उल्लेखनीय पहलू है तो यही कि वैज्ञानिक सामाजिक कल्याण और सरोकारों की भाषा बोल रहे हैं। जबकि आमतौर पर समाज की चिंता करने वाले समूह जीएम फसलों की असामाजिकता, सीमित उपयोगिता और उसके दूरगामी नुकसान पर अपना नजरिया और आपत्ति काफी पहले स्पष्ट कर चुके हैं। याद करें कि इस संदर्भ में संसदीय समिति पहले ही अपनी आशंकाएं जाहिर कर चुकी है। समिति के एक वरिष्ठ सदस्य ने कुछ अरसा पहले तर्क दिया था कि भारत में बीटी-कपास का अनुभव किसानों की बेहतरी के लिहाज से कोई उम्मीद नहीं जगाता, क्योंकि बीटी कपास के वर्चस्व के चलते एक तरफ कपास की पारंपरिक किस्में चलन से बाहर होती जा रही हैं तो दूसरी ओर किसान कर्ज के अंतहीन जाल में फंसते गए हैं। बीटी-कपास के दशक भर लंबे अनुभव का सार यह है कि उसकी खेती के लिए किसानों को ज्यादा पूंजी की जरूरत पड़ती है।
हाल ही में हैदराबाद में आयोजित जैव-विविधता के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान जब कई विशेषज्ञ खुद जीएम तकनीक के प्रभाव का जायजा लेने आंध्रप्रदेश के एक गांव में पहुंचे तो उनकी खुशफहमी को थोड़ा-सा झटका जरूर लगा होगा। वहां पहुंचे वैज्ञानिक और बीज कंपनियों के प्रतिनिधि बहुत उत्साह के साथ बता रहे थे कि बीटी-कपास को अपनाने से न केवल पैदावार में इजाफा हुआ, बल्कि किसानों को कीटों से भी मुक्ति मिली है। इसके बाद जब खुद किसानों से पूछा गया कि कपास की इस किस्म को लेकर उनका अपना अनुभव क्या है तो सच्चाई उतनी इकहरी नहीं निकली। किसानों ने बताया कि कपास के कीड़ों और पैदावार की बात तो ठीक है, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति जस की तस है। किसानों का कहना था कि अब भी उनकी लागत कपास के मूल्य से ज्यादा बैठती है। पहले किसानों को एक लीटर कीटनाशक पर दो सौ रुपए खर्च करने पड़ते थे, जबकि अब यह खर्चा दो से तीन हजार रुपयों के बीच बैठता है। इसलिए यहां गौरतलब बात यह है कि जब जीएम तकनीक का गुणगान किया जाता और उसके फायदे गिनाए जाते हैं तो उसका यह पहलू भुला दिया जाता है कि इसके लिए किसानों को बढ़ी हुई कीमत देनी होती है। जैव तकनीकी का व्यवसाय करने वाली कंपनियां शोध पर खर्च होने वाली रकम किसानों से ही वसूल करती हैं।
इस तरह देखें तो वैज्ञानिक समुदाय जब मौजूदा विवाद को विज्ञान बनाम राजनीति का रंग देना चाहता है तो यह पहली ही नजर में दिख जाता है कि असल में जीएम तकनीक के पक्ष में माहौल बनाने की राजनीति कौन कर रहा है। दो साल पहले बीटी बैंगन को आनन-फानन में मंजूरी देने के मामले में आनुवंशिक इंजीनियरिंग से जुड़ी आकलन समिति की भूमिका संदेहास्पद मानी गई थी। तब कई गैर-सरकारी पर्यवेक्षकों के साथ संसदीय समिति के सदस्यों ने भी यह माना था कि जीएम फसलों के प्रभाव, उनके स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी खतरों और उनकी लाभ-हानि के पहलुओं का आकलन करने वाली यह नियामक समिति न केवल कंपनियों के पक्ष में खड़ी हो गई थी, बल्कि एक प्रायोजक की तरह व्यवहार कर रही थी। उस समय कृषि शोध से संबंधित संसदीय समिति ने यह मांग उठाई थी कि 2009 में बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन को दी जानी वाली मंजूरी की जांच की जानी चाहिए। समिति का मानना था कि यह मंजूरी सांठगांठ से हासिल की गई थी। बाद में आनुवंशिक इंजीनियरिंग आकलन समिति के सह-अध्यक्ष ने भी यह बात स्वीकार की थी, उन पर कंपनी और मंत्रालय की तरफ से दबाव बनाया जा रहा था। गौरतलब है कि बैंगन की इस किस्म को भारतीय कंपनी महिको ने अमेरिकी कंपनी मोंसेंटो के साथ मिल कर विकसित किया था। बाद में इस पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था।
इसलिए आज अगर सरकार के विभागों और संस्थाओं से जुड़े वैज्ञानिक फिर जीएम फसलों की गुणवत्ता और उनकी वृहत्तर सामाजिक उपयोगिता का मुद्दा उठा रहे हैं तो उससे एकाएक आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता, और अगर इसके जरिए वे अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं का मुजाहिरा कर रहे हैं तो उनकी सरोकार-प्रियता इसलिए उथली और अंतत: छद््म लगती है, क्योंकि उसमें खेती के राजनीतिक अर्थशास्त्र की समझ गायब है। जीएम तकनीक का समर्थन करते हुए वे इस बात पर ध्यान नहीं दे रहे कि खेती का प्रबंधन, बीज पर होने वाला खर्च और उसकी उपलब्धता, खेती में निहित जोखिम, उसके संभावित लाभ और हानि, किसानों की लागत आदि जैसे तत्त्व वैज्ञानिक शोध से तय नहीं होते। इस तथ्य को आम आदमी भी समझता है कि ये सारे मसले बाजार और राजनीति से निर्धारित होते हैं, जिसमें किसानों की नहीं सुनी जाती। फैसले ऊपर से थोपे जाते हैं और उनका खमियाजा किसानों को उठाना पड़ता है।
एकबारगी अगर यह भी मान लिया जाए कि जीएम तकनीक से उत्पादन बढ़ेगा तो इस सवाल का उत्तर कौन देगा कि किसानों को पैदावार की बढ़त का लाभ स्वत: कैसे मिल जाएगा? क्या वैज्ञानिक समुदाय इस बात के लिए भी संगठित प्रयास करने का साहस दिखा पाएगा कि किसानों को उनकी फसलों का सही मोल मिले? क्या जीएम तकनीक का समर्थन कर रहे वैज्ञानिक इस प्रायोजित विडंबना का उत्तर दे सकते हैं कि पारंपरिक फसलों के बंपर उत्पादन के समय में भी किसान क्यों अपनी खड़ी फसलों में आग लगा देते हैं और अपने उत्पाद सड़क पर फेंक जाते हैं? जाहिर है कि मसला सिर्फ उत्पादन का नहीं हो सकता। असल में पूरी स्थिति का मर्म यह है कि किसान को उसकी मेहनत और लागत का फल कौन देगा। लिहाजा, अगर वैज्ञानिक यह कह रहे हैं कि जीएम फसलों से किसानों का भला होगा तो यह एक सतही और भ्रामक तर्क है। इसलिए पिछले दिनों जब उच्चतम न्यायालय की तकनीकी समिति की अनुशंसाओं के खिलाफ वैज्ञानिकों ने यह कहा कि समिति की राय से विज्ञान की भूमिका और हैसियत की अवमानना होती है तो इससे कोई भी आश्वस्त नहीं हो सका। लिहाजा, वैज्ञानिक जिसे सिर्फ नई तकनीक के प्रति लोगों की कूढ़मगजता मान रहे हैं वह वास्तव में इस बात का प्रतिरोध है कि खेती के बुनियादी आधारों को दुरुस्त किए बिना जीएम फसलों को खेती का तारणहार क्यों बताया जा रहा है। कहना न होगा कि जीएम फसलें अगर स्वास्थ्य और पर्यावरण के मानकों पर खरी भी उतरती हैं तो इसके बावजूद उनका औचित्य इस आधार पर तय किया जाना चाहिए कि चलन में आने के बाद उनका खेती और किसान पर दूरगामी प्रभाव क्या पड़ेगा। देश में बीटी कपास के चलन के बाद जिस तरह कपास की पारंपरिक किस्में व्यवहार से बाहर हो गई हैं उसे देखते हुए यह आशंका निराधार नहीं कही जा सकती कि जीएम तकनीक का प्रभुत्व कायम होने पर कहीं किसान अपने संचित ज्ञान से हाथ न धो बैठें और अंतत: बीज कंपनियों की घेरेबंदी के शिकार हो जाएं। आम लोगों के जेहन से यह आशंका इसलिए नहीं जा पाती, क्योंकि पिछले दो दशक के दौरान जिन योजनाओं और पहलकदमियों को जनकल्याण के नाम पर लागू किया गया है वे अंतत: बड़े किसानों और व्यापारियों, खेती के सहायक उपकरण बनाने वाली कंपनियों के हक में काम करने लगी हैं और औसत किसान उनके प्रस्तावित लाभों से वंचित रह गया है।
यहां यह याद रखना जरूरी है कि देश की मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक प्राथमिकताओं में किसान को सबसे नीचे रखा गया है और खेती के पक्षकारों का बहुस्तरीय जाल किसी भी लाभकारी नीति को उस तक पहुंचने से पहले ही हड़प लेता है। इसलिए मौजूदा विवाद में अगर वैज्ञानिकों के नजरिए को ही वरीयता दी जाती है तो यह विज्ञान की जीत नहीं, बल्कि व्यावसायिक स्वार्थ समूहों की जन-विरोधी राजनीति की जीत मानी जाएगी।

नरेश गोस्वामी,
नई दिल्ली.

जी.एम. फसलों का विरोध कितना जायज?

जीन संशोधित फसलों से जुड़े विवाद उतने ही पुराने हैं जितनी पुरानी ये फसलें हैं। एक बार फिर से जीन संशोधित फसलों के सुर्खियों में आने की वजह देश की शीर्ष अदालत की पहल है। एक जनहित याचिका जिसमें जी.एम. फसलों के खेत-परीक्षणों पर रोक लगाने की मांग की गई थी क्योंकि इससे पर्यावरण व जीव-जंतुओं पर नकारात्मक प्रभाव पडऩे की आशंका जताई गई थी। इस पर संज्ञान लेते हुए शीर्ष अदालत ने पड़ताल हेतु अपनी ओर से तकनीकी विशेषज्ञों की कमेटी गठित करने के आदेश भी दिये। इस विशेषज्ञ समिति ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में जीन संशोधित फसलों के खेत-परीक्षण पर रोक लगाने की सिफारिश की है।
इससे पहले भी एक संयुक्त संसदीय समिति ने सरकार से आग्रह किया था कि जब तक जी.ए. फसलों का प्रयोग निरापद सिद्ध नहीं हो जाता है तब तक इसके प्रयोगों को स्थगित कर दिया जाएं। वास्तव में जी.एम. फसलों को लेकर बहुत से विवाद सामने आते रहे हैं जिनके चलते पर्यावरणविद् व स्वयंसेवी संगठन इसके क्रियान्वयन का मुखर विरोध भी करते रहे हैं। सामान्य तौर पर जीन संशोधित फसलों का विरोध मानवीय स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पडऩे वाले नकारात्मक प्रभावों की आशंका के चलते किया जाता रहा है। इसी तरह पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीø टीø बैंगन के मुद्दे पर वर्ष 2010 में देशव्यापी बहस को जन्म दिया था तब कई स्वयंसेवी संगठनों ने खासा विरोध जताया था। यहां मजेदार बात यह है कि देश के अटार्नी जनरल जीø ईø वाहनवती सुप्रीम कोर्ट में जीøएमø फसलों के पक्ष में वकालत कर रहे थे जो कि पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की मुहिम के विपरीत था।
ब्रिटेन में हुए कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि जीन संशोधित फसलों से वन्य जीवों को कई तरह के नुकसान उठाने पड़ते हैं। तीन साल तक चले एक अध्ययन के अनुसार जीन संशोधित चुकंदर व रेपसीड की फसलों से ज़मीन पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे खेतों के आसपास मक्खियों व तितलियों आदि की संख्या में अप्रत्याशित कमी आई है। यही वजह है कि एक हालिया सर्वेक्षण में ब्रिटेन के अधिकांश लोग व्यावसायिक स्तर पर जीन संशोधित फसलें उगाये जाने के खिलाफ हो रहे हैं।
जीन संशोधित फसलों के समर्थकों की भी कमी नहीं है जिनके पास इसके समर्थन में मजबूत तर्क हैं। उनकी दलील है कि संयुक्त राज्य अमेरिका जहां मानवीय स्वास्थ्य की रक्षा हेतु उच्च मानक निर्धारित हैं, वहां जीन संशोधित फसलों का बखूबी उपयोग किया जाता है। जहां तक भारत का प्रश्न है तो यहां फसलों की पैदावार में गिरावट दर्ज की जा रही है जो तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिए पर्याप्त खाद्यान्न आपूर्ति में सक्षम नहीं हो सकती। इसके अलावा हमने हरित-क्रांति के लक्ष्यों को हासिल करने के बाद भी अपनी तेजी से बढ़ती जनसंख्या का पेट नहीं भर पा रहे हैं। ऐसे में जीन संशोधित फसलों के जरिये खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकती है जिससे न केवल उत्पादकता बढ़ेगी बल्कि किसानों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। वे पंजाब में बी.टी. कॉटन को सफल उदाहरण मानते हैं। भारत में जी.एम. फसलों का विरोध कुछ ऐसी संस्थाएं भी करती हैं जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ब्लैकमेल करने के लिए बदनाम हैं। देश में ऐसे भी कुछ लोग हैं जो हर तरक्की के पैदायशी विरोधी हैं, उनके पास किसी समस्या का समाधान भी नहीं होता।
भारत सरकार ने विषय-विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी का गठन किया है, जिसका काम जी.एम. फसलों के प्रायोगिक इस्तेमाल करना है ताकि आम किसानों के लिए जीन संशोधित फसलों का उपयोग निरापद बनाया जा सके। वहीं दूसरी ओर इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च और कृषि विश्वविद्यालय अपने स्तर पर जी.एम. फसलों पर शोध कर रहे हैं। वास्तव में इनके उपयोग का फैसला हमें वैज्ञानिकों पर छोड़ देना चाहिए।

Friday, September 6, 2013

बीटी की मरोड़ निकाली मरोडिय़े ने

हाल ही में कृषि अनुसंधान केन्द्र श्रीगंगानगर में कृषि अनुसंधान एवं प्रसार परामर्शदात्री समिति (जर्क)की खरीफ फसलों पर हुई बैठक में अन्य मुद्दों के साथ जो मुख्य बात उभर कर आई वह चौंकाने वाली थी। विगत दस वर्षों से हिन्दुस्तान में कपास उत्पादन का इतिहास बदलने वाली बीटी कपास को  पैकेज ऑफ प्रेक्टिसेज में शामिल करने के लिए विभिन्न कम्पनियों के 17 बीजों को उगाकर देखा गया। मकसद था क्षेत्र में बेहतर उपज देने वाले बीज के बारे में किसानों को बताना। इस प्रयोग का परिणाम उन बीटी बीज बनाने वाली कम्पनियों के लिए झटका देने वाला था। इन 17 बीजों में से एक भी बीज लीफ कर्ल वायरस से 100 प्रतिशत प्रतिरोधी नहीं है। इनमें से मात्र दो ही बीज ऐसे थे जिनमे लीफ कर्ल वायरस से मामूली प्रतिरोधक क्षमता (मॉडरिट्लि रिजिस्टॅन्ट) मिली, शेष में 9 अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल),  4 संवेदनशील (सॅसेप्टिबल) और 2 आंशिक संवेदनशील (मॉडरिट्लि सॅसेप्टिबल) किस्में थी।
कहां से आया लीफ कर्ल वायरस?
लीफ कर्ल वायरस इस क्षेत्र में हमेशा से नहीं था। 1990 में गंगानगर की साथ लगते पाकिस्तान के जिला बहावलनगर में नवाब-72 और नवाब-78 दो ऐसी किस्मों बिजाई होती थी जो शानदार उपज देती थी। इन किस्मों की सबसे बड़ी समस्या थी लीफ कर्ल वायरस। ज्यादा से ज्यादा उपज के लालच ने इन किस्मों के बीज नाजायज तरीके से चोरी-छिपे इस जिले में लाए गए। समय गवाह है कि वर्तमान में पंजाब के फाजिल्का से लेकर बार्डर के साथ-साथ लगते बीकानेर जिले तक इस बीमारी से अपना स्थाई घर बना लिया है। सेवा-निवृत वरिष्ट कपास प्रजनक वैज्ञानिक डॉ. आरपी भारद्वाज तो यहां तक कहते हैं कि-यह तो संयोग है कि नागौर, जैसलमेर और बाड़मेर में कपास नहीं उगाया जाता वर्ना ये बीमारी कन्याकुमारी तक पहुंच जाती। हालांकि पाकिस्तान ने लीफकर्ल वायरस से ग्रसित उपज बेचने पर सख्ती से पाबंदी लगा दी जिस वजह से आज वहां यह बीमारी न के बाराबर है, जबकि हमारे यहां इस रोग के संक्रमित बीजों को बेचने तक पर पाबंदी नहीं है।
क्या है लीफ कर्ल वायरस?
इसे हिन्दी में पर्ण संकुचन और आम बोलचाल में पत्ता- मरोड़ या मरोडिय़ा भी कहते हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि लीफकर्ल (पत्ता मरोड़ रोग) सफेद मक्खी से फैलता है। इसके वायरस से पत्ते मुड़ जाते हैं ओर पौधे की प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है। इससे पौधे की बढ़वार रूक जाती है और टिंडो का विकास नहीं हो पाता। इसके बचाव के लिए सफेद मक्खी पर नियंत्रण करना जरूरी है। बारिश होने पर यह रोग लगने का खतरा ज्यादा रहता है इससे पूरी फसल ही खराब हो जाती है। केंद्र के वैज्ञानिक इस बात को लेकर चिंतित हैं कि लाख प्रयासों के बावजूद अभी तक कपास में मरोडिया रोग पर काबू नहीं हो सका।
कैसे बिकता है लीफ कर्ल वायरस संवेदी बीज?
लीफ कर्ल की समस्या इस क्षेत्र में विगत 20 साल से है, इसका पता कृषि अधिकारियों के साथ-साथ बीज बनाने वाली कम्पनियों को भी है। बीज बेचने वाली कम्पनियां जब इस क्षेत्र में बीज बेचने की अनुमति लेती हैं तो गंगानगर जिले को छोड़कर कहीं भी बीज का ट्रयाल की हुई रिर्पोट दिखा कर ले लेती हैं। इस बारे में जब संयुक्त निदेशक कृषि  वीएस नैण से पूछा गया तो उनका कहना था कि राज्य में बीज बेचने की अनुमति राज्य सरकार ही देती है इसमें स्थानीय अधिकारियों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। किसान शिकायत करता है तो हम आवश्यक कार्रवाही जरूर करते हैं। गंगानगर जिले में नहर बंदी की वजह से गत वर्ष कॉटन की बुवाई एक लाख 10 हजार 406 हेक्टेअर क्षेत्र में ही हुई थी। लीफकर्ल का प्रकोप गंगनहर व भाखड़ा नहर परियोजना क्षेत्र में ही ज्यादा है। इंदिरा गांधी नहर परियोजना क्षेत्र में लीफकर्ल का प्रकोप हनुमानगढ़ क्षेत्र में लालगढ़ से आगे कम ही है। हनुमानगढ़ में इस वर्ष एक लाख 73 हजार 450 हेक्टेअर क्षेत्र में कपास बुवाई हुई है।

        बीज निर्माता                                बीज किस्म                                  प्रतिरोधी क्षमता
01. डीएसएल श्रीराम सीड्ज                       बायो-6588                            मध्यम प्रतिरोधी (मॉडरिट्लि रिजिस्टॅन्ट)
02. डीएसएल श्रीराम सीड्ज                       बंटी                                     मध्यम प्रतिरोधी (मॉडरिट्लि रिजिस्टॅन्ट)
03. राशि सीड्ज                                     आर सी एच 650                      आंशिक संवेदनशील (मॉडरिट्लि सॅसेप्टिबल)
04. राशि सीड्ज                                     आर सी एच 653                      आंशिक संवेदनशील (मॉडरिट्लि सॅसेप्टिबल)
05. डीएसएल श्रीराम सीड्ज                      बायो- 6488 बीटी                      संवेदनशील (सॅसेप्टिबल)
06. नूजिवीडू सीड्ज                                राघव एन सी एस 855                संवेदनशील (सॅसेप्टिबल)
07. जेके एग्री जेनेटिक्स लि.                     जेके सी एच 0109                     संवेदनशील (सॅसेप्टिबल)
08. प्रभात एग्री बायोटैक                          पी सी एच 877 बीटी-2                संवेदनशील (सॅसेप्टिबल)
09. जेके एग्री जेनेटिक्स लि.                     जेके सी एच 1050 बीटी              अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
10. विभा सीड्ज                                    ग्रेस बीजी                               अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
11. नूसुन                                            मिस्ट बीजी-2                          अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
12. मॉनसेंटों                                        मैक्सकॉट एसओ 7 एच 878        अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
13. बायर बायोसांइस                              एसपी 7007                            अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
14. कृषिधन                                         पंचम केडीसीएचएच 541            अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
15. अंकुर सीड्ज प्रा.लि.                           अंकुर 3028                            अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
16. महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड्ज                        एमआरसी 7361                     अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
17. महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड्ज                        निक्की एमआरसी 7017            अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)

Wednesday, August 28, 2013

बीटी ने बचाया मोरों को

बीटी कपास को लेकर पर्यावरणविद् कई तरह की शंकाएं व्यक्त करते रहे है लेकिन अबोहर वन्य जीव अभयारण्य पर इसका सकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा है। पिछले एक दशक से अभयारण्य से गायब हो चुके मोर बीटी कपास की खेती शुरू होने के बाद लौटने लगे हैं।
पंजाब राज्य में राजस्थान और हरियाणा सीमा पर स्थित अबोहर उपमंडल के तेरह गांवों को अग्रेंजों के जमाने से अभयारण्य का दर्जा मिला हुआ है। इन गांवों में वन्य जीवों को अपनी जान से ज्यादा प्यार करने वाले बिश्रोई समाज के लोग बहुसंख्या में है। अपने गुरू जम्भेश्वर की शिक्षाओं के अनुरूप बिश्रोई समाज वृक्षों और वन्य जीवों के संरक्षण को सदैव तत्पर रहता है। बिश्रोई समाज की भावनाओं की कद्र करते हुए अंग्रेज सरकार ने इन गांवों को अभयारण्य का दर्जा देकर किसी भी तरह के पशु या पक्षी के शिकार पर रोक लगा दी थी। आजादी के बाद स्वत्रंत भारत की सरकारों ने भी इन गांवों का अभयारण्य का दर्जा कायम रखते हुए पर्यावरण के प्रति अपने सरोकार की पुष्टि की।
अबोहर वन्य जीव अभयारण्य में शामिल तेरह गांवों का कुल रकबा 46,513 एकड़ है जिसमें रायपुरा, राजावाली, दुतारावाली, सरदारपुरा, खैरपुरा, सुखचैन, मेहराणा, सीतो गुन्नो, बिशनपुुरा, रामपुरा, नारायणपुरा, बजीतपुर भोमा और हिम्मतपुरा शामिल है। यह एशिया का अपनी तरह का अकेला ऐसा अभयारण्य है जिसकी कोई चारदीवारी या तारबंदी नहीं हुई है। किसानों की निजी भूमि में वन्य जीव निर्भय होकर विचरण करते हैं। अबोहर वन्य जीव अभयारण्य काले हिरण और मोर की बहुतायत के लिए जाना जाता था लेकिन बीस वर्षों में इस अभयारण्य से मोर पूरी तरह से लुप्त हो गए थे।
पुराने दिनों को याद करते हुए एक बजूर्ग बनवारीलाल बताते हैं कि अभयारण्य में हजारों की गिनती  में मोर हुआ करते थे। सुबह-शाम मोर की कूक से पूरे इलाक ा गूंज उठता था। घरों की छतों और आंगन में मोर नृत्य करते दिखाई देते थे। उन्होंने बताया कि सिर्फ दुतारावाली के शमशान घाट में ही दो सौ से ज्यादा मोर थे। धीरे-धीरे अभयारण्य से मोर गायब होने शुरू हुए। एक समय ऐसा भी आया कि अभयारण्य में मोर के दर्शन भी दुर्लभ हो गए।
भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर असिंचित रेतली भूमि में रहना पसंद करता है। अपने भारी पंखों के कारण यह ऊंची उड़ान नहीं भर पाता। यही कारण है कि अबोहर अभयारण्य से मोर के लुप्त होने को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जाने लगी। कुछ जानकारों का कहना था कि जलवायु परिवर्तन के कारण मोर पलायन कर गए है और कुछ इसके लिए अभयारण्य क्षेत्र में बढ़ते खुंखार कुत्तों को जिम्मेदार ठहराते। लेकिन मोर के लुप्त होने के पीछे कीटनाशक दवाओं के बढ़ते उपयोग को दोषी ठहराने वालों की संख्या सबसे ज्यादा थी। अबोहर पंजाब की कपास पट्टी के अंतिम सिरे पर स्थित है। अबोहर के किसानों की आर्थिक समृद्धि इस नकदी फसल पर टिकी है। अमेरिकन सुंडी के हमले ने न सिर्फ कपास उत्पादकों को आर्थिक नुकसान पहुंचाया बल्कि इलाके के पर्यावरण संतुलन को भी बुरी तरह बिगाड़ कर रख दिया। कपास का कोई विकल्प ने होने के कारण किसान फसल को बचाने के लिए तेज और महंगी कीटनाशक दवाओं का अंधा उपयोग करने के लिए मजबूर थे। बीटी कपास ने किसानों को आर्थिक संबल प्रदान करने के साथ पर्यावरण को भी सहारा दिया है। यही वजह है कि अभयारण्य में एक बार फिर राष्ट्रीय पक्षी की कूक सुनाई देने लगी है।
अबोहर के उप वन्य रेंज अधिकारी महेन्द्रसिंह मीत ने अभयारण्य में मोर की जनसंख्या में वृद्धि की पुष्टि करते हुए बताया कि राजावाली, हिम्मतपुरा, मेहराणा, सरदारपुरा और बिशनपुरा में मोर दिखाई देने लगे है। सरदारपुरा में मोर का एक बड़ा समुह अकसर दिखाई देता है। इसी तरह राजावाली में राजेन्द्र बिश्रोई के बाग में भी बड़ी संख्या में मोर देखे जा सकते है। उन्होंने बताया कि इस समय अभयारण्य में सौ से भी ज्यादा मोर हैं और आने वाले दिनों में इनके और बढऩे की उम्मीद की जा रही है।
अबोहर के सहायक पौध संरक्षण अधिकारी डॉ. आर. एस. यादव मानते है कि बीटी कपास के लोकप्रिय होने के बाद कीटनाशक दवाओं के उपयोग में भारी गिरावट आई है। कपास की परंपरागत किस्मों की बिजाई के समय कपास पर अठारह से बीस बार कीटनाशक दवाओं का उपयोग किया जाता था। बीटी कपास पर चार बार कीटनाशक दवाएं छिड़कने से ही काम चल जाता था। इसके अलावा बीटी कपास की हाइब्रिड किस्में तैयार होने में भी कम समय लेती है। डॉø यादव के अनुसार कपास की परंपरागत किस्मों की बीजाई मई में होती थी और चुगाई का काम जनवरी तक चलता था। बीटी कपास के लोकप्रिय होने के बाद चुगाई का काम नवंबर तक निपट जाता है। वे अबोहर के किसानों के बागवानी के प्रति बढ़ते रूझान को भी पर्यावरण के हित में मानते है। फल उत्पादन से होने वाली आय ने इलाके के किसानों की कपास पर निर्भरता को कम किया है।
भारतीय किसान यूनियन के जिला उप प्रधान अक्षय बिश्रोई इस संबंध में केन्द्र और राज्य सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े करते है। उनके अनुसार राष्ट्रीय पक्षी के गायब होने की सरकारें मूक दर्शक की तरह देखती रही। मोर सिर्फ हमारा राष्ट्रीय गौरव ही नहीं किसान का सबसे बड़ा मित्र पक्षी भी है। वे चाहते  है कि सरकार मोर के संरक्षण और संर्वद्धन के लिए जरूरी कदम उठाए ताकि अभयारण्य की पुरानी गरिमा बहाल हो सके।

अमित यायावर

क्या बीत गए दिन बीटी के?

एक दशक पहले जिस बीटी कपास ने भारत में बड़ी चकाचौंध के साथ प्रवेश किया था अब उसकी चमक फीकी पडने लगी है। पिछले दिनों बीटी कपास को लेकर दो विरोधाभासी घटनाएं एक साथ देखने को मिलीं। एक ओर कृषिमंत्री शरद पवार ने लोकसभा में बीटी कपास पर गैर-सरकारी संगठनों, सिविल सोसायटी और संसद की स्थायी समिति की आपत्तियों को काल्पनिक व भ्रामक करार दिया तो दूसरी ओर महाराष्ट्र सरकार ने पहली बार आधिकारिक रूप से स्वीकार किया कि राज्य में बीटी कपास की पैदावार में 40 प्रतिशत तक की गिरावट आ चुकी है। हालांकि केंद्र को भेजी अपनी रिपोर्ट में राज्य सरकार ने किसानों को सीधे 6000 करोड़ रुपये का नुकसान होने की बात कही है। लेकिन यदि बीज, उर्वरक, कीटनाशक, रसायन, मजदूरी आदि की लागत को देखें तो यह नुकसान 20 हजार करोड़ रुपये से अधिक का होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि पहले जहां विदर्भ व मराठवाड़ा से ही कपास फसल के बर्बाद होने की खबरें आती थीं वहीं अब उत्तर महाराष्ट्र के खानदेश जैसे सिंचित क्षेत्र से भी आने लगी हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार इस साल महाराष्ट्र में किसान आत्महत्याओं के 5000 का आंकड़ा छू लेने की उम्मीद है जबकि पिछले साल 3500 किसानों ने आत्महत्या की थी। यह लगातार तीसरा साल है जब महाराष्ट्र में कपास की फसल बर्बाद हुई है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में 42 लाख हेक्टेअर जमीन में कपास की खेती की जाती है जो देश में सर्वाधिक है। लेकिन प्रति हेक्टेअर पैदावार में आ रही गिरावट के कारण जहां एक ओर कुल उत्पादन कम होता जा रहा है वहीं दूसरी ओर लागत बढ़ती जा रही जिससे किसान तेजी से कर्ज के चंगुल में फंसते जा रहे हैं।
कपास किसानों की बढ़ती बदहाली और पैदावार में लगातार आ रही गिरावट के बावजूद कंपनियां बीटी कपास को चमत्कारी फसल बता रही हैं। उनके मुताबिक 2002 में 77 लाख हेक्टेअर कपास की खेती होती थी जो कि 2011-12 में 121 लाख हेक्टेअर हो गई। इस दौरान कपास का कुल उत्पादन 1.3 करोड़ गांठ से बढ़कर 3.45 करोड़ गांठ हो गया जिससे भारत कपास का निर्यातक बन गया। कंपनियां इसका श्रेय बीटी कपास को देती हैं। भारत में बीटी कपास लाने वाली महिको-मोंसेटो बायोटेक कंपनी दावा करती है कि बीटी कपास अपनाने के बाद भारतीय कपास किसानों को 31500 करोड़ रुपये का मुनाफा हो चुका है। लेकिन यदि कंपनी के दावों का विश्लेषण किया जाए तो कहानी कुछ और ही सामने आती है। यह सच है कि बीटी कपास अपनाने के बाद पैदावार तेजी से बढ़ी। उदाहरण के लिए 2004-05 में कपास की उत्पादकता 470 किग्रा प्रति हेक्टेअर थी जो 2007-08 में बढ़कर 554 किग्रा हो गई। लेकिन उसके बाद इसमें गिरावट का दौर शुरू हुआ। आज यह 480 किग्रा रह गई है। स्पष्ट है कपास उत्पादन में जो बढ़ोतरी हुई उसमें एक बड़ा योगदान कपास के अधीन बढ़े हुए रकबे का है। सबसे बड़ी बात यह है कि मोनसेंटो के बीटी कपास के प्रवेश के बाद से कपास की स्थानीय किस्में लुप्त हो गईं। इससे किसान महंगे हाइब्रिड बीजों पर निर्भर हो गए जिन्हें खरीदने के लिए उन्हें हर साल मोटी रकम खर्च करनी पड़ती है। ज्ञात रहे बीटी के आने के बाद कपास बीज की कीमतें 800 गुना तक बढ़ चुकी हैं। दूसरी तरफ किसान भी कम नहीं है वह एक ही खेत में लगातार कपास की फसल लेता है और बीटी के चारों तरफ नॉन बीटी किस्मों की (रिफ्यूजिया)भी नहीं बीजता, जिससे न सिर्फ मिट्टी के पोषक तत्वों में कमी आ रही है बल्कि कीटों की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ रही है। इसी का नतीजा है कि जैसे-जैसे फसल बर्बाद होने की घटनाएं बढ़ रही हैं वैसे-वैसे कीटनाशकों पर होने वाला खर्च भी बढ़ता जा रहा है जिससे कपास उत्पादन की लागत कई गुना बढ़ गई है।
बीटी कपास को समृद्धि का प्रतीक बताने वाले दावों की कलई महाराष्ट्र के उदाहरण से खुल जाती है। उदाहरण के लिए यहां 2010-11 में 36.2 लाख हेक्टेअर जमीन में 74.7 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था जबकि 2011-12 में 39.2 लाख हेक्टेअर में कपास की खेती के बावजूद कुल उत्पादन घटकर 69 लाख गांठ रह गया। कुछ यही कहानी आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश में भी दोहराई जा रही है। गुजरात इसका अपवाद रहा है लेकिन इसका श्रेय बीटी कपास को न होकर गुजरात की लघु सिंचाई परियोजनाओं और नई कृषि भूमि में कपास की खेती को दिया जा रहा है।
भारत के गैर-सरकारी संगठन 'नवधान्य' के मुताबिक बीटी कपास के इस्तेमाल से कीटनाशकों के प्रयोग में 13 गुना की बढ़ोतरी हो चुकी है। 2008 में इंटरनेशन जरनल ऑफ बायोटेक्नॉलाजी में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि बीटी कपास से पैदावार में जो बढ़ोतरी होती है उसे कीटनाशकों व खरपतवारनाशकों के इस्तेमाल से लागत में हुई बढ़ोतरी निगल जाती है। इस सच्चाई को कंपनियां खुद स्वीकार करती हैं कि उनके बीजों के विरुद्ध कीटों एवं खरपतवार ने प्रतिरोध विकसित कर लिया है। इन्हें सुपर खरपतवार की संज्ञा दी गई है। इनसे लडऩे के लिए कंपनियां नए बीजों के साथ-साथ महंगे व असरदार कीटनाशकों के इस्तेमाल को जरूरी बता रही हैं। जाहिर है हर हाल में किसान को लूटकर एग्रीबिजनेस कंपनियां अपनी तिजोरी भरेंगी।

Sunday, August 25, 2013

और भी तरीके हैं कपास उपज बढ़ाने के

अब तक यह माना जा रहा था कि जीन प्रसंस्कृत बीटी हाइब्रिड कपास की खेती से ज्यादा उपज लेने का एकमात्र तरीका है। आज कृषि-विज्ञान में ऐसे कई साधन उपलब्ध हैं, जिनके इस्तेमाल से उन इलाकों में भी कपास का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है, जो सिंचाई के लिए पूरी तरह बारिश पर निर्भर हैं। नागपुर स्थित केंद्रीय कपास शोध संस्थान (सीआइसीआर) ने एक असाधारण नई तकनीक 'हाई डेंसिटी कॉटन प्लांटिंग सिस्टम' का विकास किया है। इस तकनीक के अंर्तगत प्रति हेक्टेअर भूमि पर पहले से ज्यादा पौधे लगाए जाते हैं, जिनसे महारष्ट्र के विदर्भ जैसे इलाके में भी कपास का उत्पादन दोगुना करने में सफलता हासिल हुई है। पानी की कमी के कारण विदर्भ में अक्सर कपास की फसल खराब हो जाती है, जिससे व्यथित किसान आत्महत्या तक कर लेते हैं। 
आमतौर पर किसान प्रति हेक्टेअर 50,000 से 55,000 पौधे लगाते हैं। नई तकनीक के तहत बीजों को कम दूरी पर बोया जाता है, जिससे प्रति हेक्टेअर 2 लाख पौधों की बुआई की जाती है। ज्यादा संख्या में पौधों की बुआई करने से कपास का ज्यादा उत्पादन होता है। इस तरह के घने रोपण के लिए कपास की वे किस्में बिल्कुल मुफीद हैं, जो जल्दी पकने के साथ-साथ सूरज की रोशनी, पोषक तत्त्व हासिल करने के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं करती, तथा जिनके पौधे न तो ज्यादा लंबे होते हैं और न ही ज्यादा फैलते हैं। छोटी अवधि में पकने वाली किस्मों का जीवन-चक्र मॉनसून के बाद मिट्टी में मौजूद नमी के समाप्त होने से पहले ही पूरा हो जाता है। सी.आइ.सी.आर. ने वास्तविक परीक्षण के जरिये कपास की विभिन्न किस्मों की पहचान कर ली है, जो घने रोपण के लिए बिल्कुल उपयुक्त रहेंगी। इसमें पीकेवी 081 (जिसे अकोला कृषि विश्वविद्यालय ने 1987 में पेश किया था), एनएच 615 (हाल में परभणी विश्वविद्यालय द्वारा विकसित) और सूरज (2008 में सीआइसीआर द्वारा विकसित) कुछ ऐसी ही किस्में हैं।
बारिश का जल संरक्षित करने के तरीके अपनाने से भी इस अनोखी प्रक्रिया से कपास की खेती में बहुत मदद मिलती है। महारष्ट्र, मध्यप्रदेश आंध्रप्रदेश और राजस्थान जैसे अन्य राज्यों में बारिश पर निर्भर रहने वाली कपास की खेती को इससे काफी फायदा हो सकता है क्योंकि यहां बार-बार पानी की कमी के कारण उत्पादन को लेकर अनिश्चितता बनी रहती है। सीआइसीआर के कपास वैज्ञानिकों का कहना है कि उन इलाकों में कपास की उत्पादकता बेहद कम होती है, जो पानी के लिए बारिश पर निर्भर होते हैं क्योंकि मॉनसून के बाद मिट्टी में नमी की कमी हो जाती है, खासतौर पर पौधों पर फूल निकलते समय, जब पानी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। 
आमतौर पर जून में शुरू होने वाली मॉनसून की बारिश सितंबर तक समाप्त हो जाती है जबकि फूल का बनना अक्टूबर में शुरू होता है और नवंबर में चरम पर होता है। इस वजह से कपास के फूल खासतौर पर ऐसी मिट्टी में पूरी तरह विकसित नहीं हो पाते हैं जिसकी पानी सोखने की क्षमता कम होती है। नतीजतन फसल का उत्पादन कम होता है। लंबी अवधि में पकने वाली कपास की किस्मों का प्रदर्शन सबसे खराब होता है क्योंकि उन्हें फसल के विकास के अहम समय पर पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं मिल पाता है।
पिछले खरीफ सीजन के दौरान किसानों की मदद से विदर्भ और आसपास के इलाकों में 155 जगहों पर इन किस्मों का परीक्षण किया गया और खराब मॉनसून व कपास के सबसे खराब कीट प्रकोप के बावजूद इसके नतीजे काफी शानदार रहे। कीड़े के प्रकोप पर काबू पाने के लिए कई इलाकों में कीटनाशकों का छिड़काव भी किया गया। इनमें से ज्यादातर जगहों पर कपास के उत्पादन में 35 से 40 प्रतिशत का इजाफा दर्ज किया गया। पूरे परीक्षण स्थल में कुल औसत प्रति हेक्टेअर 15 से 18 क्विंटल की रही, जो विदर्भ जिले में होने वाले सामान्य कपास उत्पादन का करीब दोगुनी है। सबसे ज्यादा उत्पादन चंद्रपुर, अमरावती और नागपुर के इलाकों में हुआ। इससे किसानों को प्रति हेक्टेअर 12,000 रुपये से 90,000 रुपये का फायदा हुआ जबकि इसकी खेती की लागत 20,000 रुपये से 25,000 रुपये प्रति हेक्टेअर आती है।
सीआइसीआर के निदेशक आर क्रांति के अनुसार इस तकनीक की सफलता ने कपास किसानों में उत्साह का संचार किया है। कुछ किसानों ने तो जैविक कपास उगाने के लिए उच्च घनत्व कपास खेती आजमाने का विकल्प चुना है। कपास वैज्ञानिकों के उत्साह और कपास किसानों की ओर से मिली प्रतिक्रिया को देखते हुए लगता है कि इस नई तकनीक में ऐसी ही एक और कपास क्रांति लाने की क्षमता है, जो पिछले दशक में बीटी कॉटन के आने के बाद आई थी।  सबसे अहम बात है कि इस तकनीक में जल सिंचाई के अभाव में फसल बरबाद होने से ग्रसित किसानों की इस समस्या का समाधान करने की संभावना है। जाहिर है कि राज्य कृषि विभागों को शोध संस्थानों के साथ मिलकर इस तकनीक के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करना होगा।

Wednesday, July 10, 2013

क्या इतिहास हो जाएगी देसी कपास

नरमे के मुकाबले देशी कपास की कीमत कम मिलने की वजह से देश के किसानों का देसी कपास की खेती से मोह पूरी तरह भंग होता जा रहा है। इतना ही नहीं, घरों में सूत की कताई कर कपड़े बुनने का रुझान भी कम होने की वजह से किसानों ने देसी कपास से दूरी बना ली है। हालात ये हैं कि मंडियों में कपास की आवक के ग्राफ में आश्चर्यजनक गिरावट दर्ज की जा रही है जो कि देसी कपास के प्रति किसानों के उदासीन रवैये का स्पष्ट संकेत है। 
गौरतलब है कि इस बार पंजाब में करीब छह लाख हेक्टेअर क्षेत्रफल में नरमा की बिजाई की गई थी, लेकिन इसमें देसी कपास की बिजाई मात्र 60 हजार हेक्टेअर के करीब रही। घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल होने वाली इस देसी फसल से किसानों के किनारा करने के एक नहीं कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण नरमे के मुकाबले इसकी प्रति एकड़ उपज का कम होना माना जा रहा है। देसी कपास के विकल्प के रूप में पहले नरमा और अब ज्यादा उत्पादन देने वाली बीटी किस्मों के आ जाने से किसानों की इसकी खेती में रुचि और भी कम हो गई। एक एकड़ में बीटी नरमा से जहां 12 क्विंटल के आसपास झाड़ मिलता है, वहीं देसी कपास से मात्र 7-8 क्विंटल ही झाड़ मिल पाता है। इसके अलावा इसके भाव में भी काफी अंतर है। इन्हीं सब कारणों से किसानों का देसी कपास से मोहभंग होता जा रहा है। यही कारण है कि किसान ज्यादा उपज और मूल्य देने वाली नरमे की फसल को तरजीह देने लगा है। इसके अलावा हवा के झोके से इसकी रुई नीचे गिरने से इसकी बार-बार चुगाई की समस्या भी किसानों को परेशान करती है। इसके कारण वे इस फसल से दूरी बनाए रखने में ही भलाई समझते हैं।
वर्ष 1996-97 में उत्तर भारत में जहां 16.25 लाख गाँठे (एक गाँठ 170 किलो) पैदा होती थी वहीं समस्त भारत में यह 169 लाख गाँठ पैदा होती जो कुल कपास उत्पादन का 9.6 प्रतिशत था। वर्ष 2011-12 में यह उत्पादन घटकर  उत्तर भारत में मात्र 1.75 लाख गाँठ और समस्त भारत यह घटकर कुल कपास उत्पादन का मात्र 0.50 प्रतिशत रह गया। इन आंकड़ों से साफ जाहिर है कि देसी कपास का उत्पादन क्षेत्र उत्तरी क्षेत्र में जबरदस्त घटा है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य गुणवत्ता और जरूरत के आधार पर नहीं रेशे की लम्बाई के आधार पर तय होता है। जाहिर है देसी कपास का रेशा अमेरिकन और बीटी कपास के रेशे से छोटा होता है, इसलिए इसकी कीमत भी कम मिलती है। आंकडों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वर्ष 2011-12, में देसी कापस के एमएसपी 2500 प्रति क्विंटल था, जो वर्ष 2012-13 में यह 2800 है। भारत सरकार द्वारा घोषित कापस के न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल काल्पनिक मूल्य है क्योंकि एमएसपी निरपवाद रूप से प्रचलित बाजार मूल्य से नीचे हैं। देसी कापस के वर्तमान प्रचलित बाजार मूल्य रुपये है. 4000 प्रति क्वि. जो सरकारी घोषित मूल्य से 38 प्रतिशत अधिक है।
बीटी कपास उच्च गुणवत्ता वाला मध्यम और लम्बे रेशे की वजह से उद्योगों की पहली पसंद बन गया। वहीं दूसरी तरफ देशी कपास की कमी की वजह से छोटे पैमाने पर कताई करने वाले,  हथकरघा क्षेत्र में, रजाई-चद्दर निर्माताओं और सर्जिकल कॉटन विनिर्माण आदि क्षेत्रों में लगभग 25 लाख श्रमिकों के रोजगार और सूती कपड़े के उत्पादन 25 प्रतिशत तक प्रभावित हो रहा है। ज्ञात रहे हथकरघा उद्योग पूरी तरह से मोटे सूत जो देशी कपास से निर्मित होता है पर निर्भर करता है। इतनी सारे बुरे समाचारों के बीच एक अच्छा समाचार यह है कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आइसीएआर) के अधीन काम करने वाला केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान (सीआइसीआर) सर्जिकल में देशी कपास की खपत बढ़ाने के लिए निजी कंपनियों से गठजोड़ कर रहा है। याद रहे देश में सालाना अकेले सर्जिकल में ही करीब 20 लाख गांठ (एक गांठ 170 किलो) देशी कपास की खपत होती है।
सीआइसीआर के निदेशक डॉ. के. आर. क्रांति के अनुसार वे कई रुई निर्माता कंपनियों से इस बारे में बातचीत कर रहे हैं। ये कंपनियां किसानों को 4,000 रुपये प्रति क्विंटल का भाव देने को तैयार हैं। उन्होंने बताया कि संस्थान ने राठी केमिकल से करार भी कर लिया है। कई अन्य कंपनियों के साथ भी बातचीत चल रही है। संस्थान विदर्भ और मध्यप्रदेश के किसानों को देशी किस्म की जैविक कपास का उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा हैं ताकि किसानों को फसल का उचित मूल्य मिल सके। सीआइसीआर के अंतर्गत काम करने वाले मुंबई स्थित केंद्रीय कपास टेक्नोलॉजी अनुसंधान संस्थान (सीआइआरसीओटी) का भी इसमें सहयोग भी लिया जा रहा है।
सीआइआरसीओटी कच्ची कपास को तैयार माल का रूप देने में सहयोग करेगा। उन्होंने बताया कि इस समय सर्जिकल उद्योग में पूर्वोत्तर और राजस्थान में पैदा होने वाली देशी किस्म की बंगाल कपास का उपयोग किया जा रहा है लेकिन इस किस्म की कपास को उपयोग से पहले रसायनिक उपचारित करने की जरूरत होती है लेकिन देशी कपास की जैविक खेती करने पर इसमें रसायनिक उपचार की जरूरत नहीं पड़ेगी। सीआइसीआर की आगामी सीजन में 500 हेक्टेअर में देशी किस्म की कपास की खेती करवाने की योजना है। उन्होंने बताया कि संस्थान के पास देशी कपास के बीजों का अच्छा भंडार है। देशी किस्मों में लोहित, एलडी-133, आरजी-8, एलडी-327, डीएस-21, एलडी-491 हैं इनके रेशे और अन्य खूबियां सर्जिकल कपास के लिए एकदम उपयुक्त है।

Tuesday, July 9, 2013

अब खळ-बिनौले इंसान भी खाएंगे

क्या आपने कभी सोचा है कि अब तक पशुओं की खुराक रहे कपास के बीज से लाखों भूखे लोगों का पेट भरा जा सकता है। कपास में पर्याप्त प्रोटीन है जिससे हर साल पाँच अरब लोगों का पेट भरा जा सकता है। शीघ्र ही यह संभव हो जाएगा। अमेरिका में टेक्सॉस के भारतीय मूल के वैज्ञानिक कीर्ति एस. राठौड़ ने जेनेटिक इंजिनियरिंग से कपास के बीजों में छिपे एक जहरीले पदार्थ गॉसीपोल को कम करके ऐसा नया बीज बनाया है, जिसका उपयोग भोज्य पदार्थों में किया जा सकता है। आने वाले दस सालों के भीतर ही इस नए बीज से बने ब्रेड, कुकी, पेय और खाद्य पदार्थ बाजार में नजर आएँगे।
राठौड़ के अनुसार लंबे समय से कपास के बीजों से तेल निकालकर उसका उपयोग मायोनीज बनाने और सलाद को सजाने में किया जाता रहा है। अब गॉसीपोल रहित नए बीजों को गेहूँ और मक्के के साथ मिलाकर भोजन को ज्यादा प्रोटीन- समृद्ध बनाया जा सकता है। नए स्वाद में इसे पैनकेक, कारमेल, पॉपकॉर्न और टोर्टिला बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस बीज का आप हर तरह से उपयोग कर सकते हैं। आशा है कि कपास उगाने वाले किसानों को अब उनकी फसलों का ज्यादा मूल्य मिल पाएगा।
कपास को खाने योग्य बनाने का कमाल कर दिखाने वाले टेक्सास के ए एंड एम विश्वविद्यालय के शोधकर्ता राठौड़ का मानना है कि दुनिया में बहुत से गरीब हैं जिन्हें पर्याप्त प्रोटीनयुक्त भोजन नहीं मिल पाता। उनके लिए प्रोटीनयुक्त कपास का बीज सस्ता और पौष्टिक विकल्प हो सकता है। कपास के बीजों में पाया जाने वाला गॉसीपोल पहले रक्त में पोटेशियम का स्तर बढ़ा देता था जिससे मनुष्य और जानवरों के दिल और लीवर (यकृत) को नुकसान पहुँच सकता था। यह इस हद तक खतरनाक है कि यदि मुर्गियों को केवल कपास के ये बीज लगातार एक सप्ताह तक खाने को दिए जाएँ तो वे गॉसीपोल जहर के प्रभाव से मर जाएँगी।
कपास के बीजों को खाने योग्य बनाने के लिए दशकों तक काम करने के बाद वैज्ञानिकों को 1950 में थोड़ी सफलता मिली, जब कपास के पौधे में जहर पैदा करने वाले जीन को खत्म कर गॉसीपोल-मुक्त पौधे को उगाने में वे सफल हुए, लेकिन गॉसीपोल-रहित कपास के पौधे में आसानी से कीड़े और रोग लगने का खतरा ज्यादा था जिससे कपास बरबाद हो जाता था। लेकिन अब राठौड़ ने बीज में ही गॉसीपोल बनने को रोककर नए बीज बनाए। राठौर ने बताया, आनुवांशिक रूप से बदले हुए कपास के इन बीजों के खाए जाने का कम विरोध होगा, क्योंकि इसमें ऐसी तकनीक को अपनाया है, जिसमें हमने अलग से कुछ नहीं मिलाया बल्कि बीज में होने वाली एक रासायनिक प्रक्रिया को रोका है।
इस नई विधि का उपयोग एशिया और अफ्रीका में उगाए जाने वाली नई फसलों में, जैसे मटर या फिर फली किस्म की फसलों को उगाने में भी किया जा सकता है। किसान मटर को आपातकालीन फसल के रूप में उगाते हैं क्योंकि इस में प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है और सूखने का खतरा नहीं होता।
लेकिन इन में न्यूरोटॉक्सीन (स्नायविक विष) की मात्रा ज्यादा होती है जिसे ज्यादा खाने से शरीर के निचले हिस्से को लकवा मारने का खतरा हो सकता है। राठौड़ के प्रयोग से बनाए गए ये नए बीज विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमेरिका के खाद्य और औषधि प्रशासन के मानकों पर खरे उतरे हैं।
यदि इस बीज को व्यावसायिक स्तर पर मंजूरी मिल जाती है तो उसकी भी कीमत जींस, टी शर्ट आदि बनाने में लगने वाले कपास के बीजों के बराबर ही होगी क्योंकि ये काफी बड़ा बाजार है। कपास के बीजों की कीमत दस अमेरिकी सेंट प्रति पौंड है, जबकि कपास के रेशे की कीमत सत्तर सेंट प्रति पौंड है।
शोधकर्ताओं का मानना है कि कपास के बीजों में 22 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होने की वजह से वह विकासशील देशों में कुपोषण के शिकार लोगों के आहार के स्तर को सुधार सकता है। इन बीजों में मूँगफली का स्वाद होता है। उन्हें भूनकर या नमकीन के रूप में बनाया जा सकता है। इतना ही नहीं, कपास का यह नया बीज सोयाबीन के प्रोटीन से बिल्कुल अलग है क्योंकि इसे खाने से पेट में गैस की तकलीफ भी नहीं होती।

Friday, April 19, 2013

कौन है शाकाहारी

शाक-सब्जियों पर आधारित इस विशेष अंक में सब्जी उत्पादन पर तो बहुत सी बातें होंगी, पर कुछ विशेष बातें उन लोगों के बारे में भी जानलें जो इन सब्जियों को खाते हैं। आम बोल-चाल की भाषा में शाक-भाजी खाने वाले को शाकाहारी कहते हैं और नैतिक, स्वास्थ्य, पर्यावरण, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सौंदर्य, आर्थिक या अन्य कई कारणों से शाकाहार को अपनाया जाता है। मान्यता यह भी है कि एक शाकाहारी किसी भी तरह का मांस नहीं खाता, इसमें पशुओं का मांस, अण्डे, मुर्गे-मुर्गियां, मछली, केंकड़ा-झींगा और घोंघा आदि सीपदार प्राणी शामिल हैं।
शाकाहरी के बारे में जानने से पहले एक नजर शाकाहार शब्द की उत्पति और इतिहास पर। 1847 में स्थापित शाकाहारी सोसाइटी ने लिखा कि इसने लैटिन वेजिटस अर्थात लाइवली (सजीव) से वेजिटेरियन (शाकाहारी) शब्द बनाया। ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी और अन्य मानक शब्दकोश कहते हैं कि वेजिटेबल से यह शब्द बनाया गया है और प्रत्यय के रूप में -एरियन जोड़ा गया। ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में लिखा है कि 1847 में शाकाहारी सोसायटी के गठन के बाद यह शब्द सामान्य उपयोग में आया, हालांकि यह 1839 और 1842 से उपयोग के दो उदाहरण मिलते है। (लैक्टो) शाकाहार के प्रारंभिक रिकॉर्ड ईसा पूर्व छठी शताब्दी में प्राचीन भारत और प्राचीन ग्रीस में पाए जाते हैं। दोनों ही उदाहरणों में आहार घनिष्ठ रूप से प्राणियों के प्रति नान-वायलेंस के विचार (भारत में इसे अहिंसा कहा जाता है) से जुड़ा हुआ है, और धार्मिक समूह तथा दार्शनिक इसे बढ़ावा देते हैं। प्राचीनकाल में रोमन साम्राज्य के ईसाइकरण के बाद शाकाहार व्यावहारिक रूप से यूरोप से गायब हो गया। मध्यकालीन यूरोप में भिक्षुओं के कई नियमों के जरिये संन्यास के कारणों से मांस का उपभोग प्रतिबंधित या वर्जित था, लेकिन उनमें से किसी ने भी मछली को नहीं त्यागा। पुनर्जागरण काल के दौरान यह फिर से उभरा, 19वीं और 20वीं शताब्दी में यह और अधिक व्यापक बन गया। 1847 में, इंग्लैंड में पहली शाकाहारी सोसायटी स्थापित की गयी, जर्मनी, नीदरलैंड, और अन्य देशों ने इसका अनुसरण किया। राष्ट्रीय सोसाइटियों का एक संघ, अंतर्राष्ट्रीय शाकाहारी संघ, 1908 में स्थापित किया गया। पश्चिमी दुनिया में, 20वीं सदी के दौरान पोषण, नैतिक, और अभी हाल ही में, पर्यावरण और आर्थिक चिंताओं के परिणामस्वरुप शाकाहार की लोकप्रियता बढ़ी।
मूलत: शाकाहार अनेक तरह का माना गया है। एक लैक्टो-शाकाहारी आहार में दुग्ध उत्पाद शामिल हैं लेकिन अंडे नहीं, एक ओवो-शाकाहारी के आहार में अंडे शामिल होते हैं लेकिन गौशाला उत्पाद नहीं और एक ओवो-लैक्टो शाकाहारी के आहार में अंडे और दुग्ध उत्पाद दोनों शामिल हैं। एक वेगन अर्थात अतिशुद्ध शाकाहारी आहार में कोई भी प्राणी उत्पाद शामिल नहीं हैं, जैसे कि दुग्ध उत्पाद, अंडे, और सामान्यत: शहद। अनेक वेगन प्राणी-व्युत्पन्न किसी अन्य उत्पादों से भी दूर रहने की चेष्टा करते हैं, जैसे कि कपड़े और सौंदर्य प्रसाधन आदि। रौ वेगानिज्म में सिर्फ ताज़ा तथा बिना पकाए फल, बादाम आदि, बीज और सब्जियां शामिल हैं। फ्रूटेरियनिज्म पेड़-पौधों को बिना नुकसान पहुंचाए सिर्फ फल, बादाम आदि, बीज और अन्य इक_ा किये जा सकने वाले वनस्पति पदार्थ के सेवन की अनुमति देता है।
सु-शाकाहार (जैसे कि बौद्ध धर्म) सभी प्राणी उत्पादों सहित एलिअम परिवार की सब्जियों (जिनमें प्याज और लहसुन की गंध की विशेषता हो) प्याज, लहसुन, हरा प्याज, लीक, या छोटे प्याज को आहार से बाहर रखते हैं। अद्र्ध-शाकाहारी भोजन में बड़े पैमाने पर शाकाहारी खाद्य पदार्थ हुआ करते हैं, लेकिन उनमें मछली या अंडे शामिल हो सकते हैं, या यदा-कदा कोई अन्य मांस भी हो सकता है। एक पेसेटेरियन आहार में मछली होती है, मगर मांस नहीं। जिनके भोजन में मछली और अंडे-मुर्गे होते हैं वे मांस को स्तनपायी के गोश्त के रूप में परिभाषित कर सकते हैं और खुद की पहचान शाकाहार के रूप में कर सकते हैं। हालांकि, शाकाहारी सोसाइटी जैसे शाकाहारी समूह का कहना है कि जिस भोजन में मछली और पोल्ट्री उत्पाद शामिल हों, वो शाकाहारी नहीं है, क्योंकि मछली और पक्षी भी प्राणी हैं।
एक कट्टर शाकाहारी ऐसे उत्पादों का प्रयोग नहीं करते हैं, जिन्हें बनाने में प्राणी सामग्री का इस्तेमाल होता है, या जिनके उत्पादन में प्राणी उत्पादों का उपयोग होता हो, भले ही उनके लेबल में उनका उल्लेख न हो; उदाहरण के लिए चीज में प्राणी रेनेट (पशु के पेट की परत से बनी एंजाइम), जिलेटिन (पशु चर्म, अस्थि और संयोजक तंतु से) का उपयोग होता है। कुछ प्रकार की चीनी को हड्डियों के कोयले से सफ़ेद बनाया जाता है (जैसे कि गन्ने की चीनी, लेकिन बीट चीनी नहीं) और अल्कोहल को जिलेटिन या घोंघे के चूरे और स्टर्जिओन से साफ़ किया जाता है। कुछ लोग अद्र्ध-शाकाहारी आहार का सेवन करते हुए खुद को शाकाहारी बताते हैं अन्य मामलों में वे खुद को केवल फ्लेक्सीटेरियन मानते हैं। ऐसा भोजन वे लोग किया करते हैं जो शाकाहारी आहार में संक्रमण के दौर में या स्वास्थ्य, पर्यावरण या अन्य कारणों से पशु मांस का उपभोग घटाते जा रहे हैं।
अद्र्ध-शाकाहारी शब्द पर अधिकांश शाकाहार समूहों को आपत्ति है, उनका कहना है कि शाकाहारी को सभी पशु मांस त्याग देना जरुरी है। अद्र्ध-शाकाहारी भोजन में पेसेटेरियनिज्म शामिल है, जिसमें मछली और कभी-कभी समुद्री खाद्य शामिल होते हैं; पोलोटेरियनिज्म में पोल्ट्री उत्पाद शामिल हैं; और मैक्रोबायोटिक आहार में अधिकांशत: गोटे अनाज और फलियां शामिल होती हैं, लेकिन कभी-कभार मछली भी शामिल हो सकती है।

Saturday, March 9, 2013

इस तरह बेचें सब्जियां


हर उत्पाद की मार्केटिंग के दौर में अब समय आ गया है सब्जियों की मार्केटिंग का। यह ऐसा उत्पाद है जिसकी जरूरत हर वर्ग के लोगों को होती है। सस्ती हों या फिर महंगी खाने के लिए लोगों को सब्जी की जरूरत तो होती ही है। बाजार तक सब्जियों के पहुंचने से पहले उसमें बहुत से घाल-मेल होते हैं, जिसकी वजह से सब्जी की कीमत आसमान छूने लगती है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि कीमतों में इजाफे के बावजूद भी किसानों को कोई खासा फायदा नहीं होता है। अधिक से अधिक मुनाफा तो बिचौलियों और रिटेलर ले जाते हैं, आखिरकार घाटे में तो सब्जी उपजाने वाले किसान ही रहते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए अब किसानों ने सब्जी बेचने का एक अलग तरीका निकाला है। सब्जी को बेचने के लिए किसान अब सूचना तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं। वे अब सब्जियों की आनलाइन डिलीवरी कर रहे हैं। इसमें उपभोक्ता सब्जियों की खरीदारी के लिए किसानों से सीधे संपर्क स्थापित करते हैं और उन्हें आसानी से घर बैठे ही सब्जियां मिल जाती है। वो भी ऐसी सब्जियां जो बाजार की सब्जियों से ज्यादा ताजी हों। ऐसा ही चलन पुणे के किसानों के बीच जोर पकड़ रहा है। पुणे महाराष्ट्र के सब्जी उत्पादक क्षेत्र का केंद्र है। यहां किसानों ने रिटेलर और बिचौलियों से दूरी बना ली है और उन्होंने डायरेक्ट टू होम मॉडल अपना लिया है। इसमें उपभोक्ता आनलाइन खरीदारी करते हैं वो भी किफायती दरों पर, क्योंकि इसमें किसान सब्जी बेचने में सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। इसके लिए किसानों ने साथ मिलकर समूह तैयार किया है और अपने नेटवर्क के जरिए करीब 200 परिवारों को हर हफ्ते सब्जियों की होम डिलिवरी कर रहे हैं। इसमें शर्त बस एक है कि एक आर्डर कम से कम 150 रुपए का होना चाहिए। इसमें कामकाजी परिवारों को काफी सहुलियत होती है क्योंकि उन्हें इससे सब्जियों के लिए बाहर दुकानों पर नहीं जाना होता। इस ग्रूप में करीब 40 किसान हैं, जिन्होंने आनलाइन आर्डर के लिए चार लोगों को नौकरी पर लगा रखा है जिन्हें हर महीने बतौर वेतन 4 से 6 हजार रुपए तक दिए जाते हैं। चूंकि किसानों का ग्राहकों से सीधे संपर्क है इसलिए हर हाल में उन्हें मुनाफा ही होता है। इस तरीके को अपनाने के किसानों को लगभग 25 से 30 प्रतिशत का मुनाफा हो रहा है। डायरेक्ट मार्केटिंग की सबसे अहम खासियत इसका वित्तीय तौर पर व्यावहारिक होना है। कृषि आधारित कुछ सेवाओं में उत्पादों की डिलीवरी और उनका वितरण बेहद अहम है ताकि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके। उपभोक्ताओं की व्यक्तिगत पसंद की वजह से ही महानगरों में अभी भी दूधवालों का मॉडल काम कर रहा है। 
पुणे की तरह ही देश में ऐसी अनेक जगह हैं जहां सब्जियों की पैदावार अच्छी होती है, लेकिन किसानों को इसका फायदा नहीं होता। उत्तरप्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान जैसे राज्य जहां सब्जियों की पैदावार काफी है लेकिन प्रबंधन सही नहीं होने की वजह से किसानों के मुनाफे में कमी होती है। इसके साथ-साथ ग्राहकों को भी ऊंची कीमतों पर सब्जियों की खरीदारी करनी पड़ती है। पुणे माडल के तर्ज पर ही अगर इन प्रदेशों के किसान भी चाहें तो काफी मुनाफा आसानी से कमा सकते हैं। 
इसकी शुरुआत के बाद इन राज्यों के किसानों के लिए अलग से एक नया बाजार उभर सकता है, जो किसान परम्परागत सब्जीमंडी में अपनी उपज बेच रहे हैं वे अगर सब्जी की सफाई और छंटनी करके मंडी लाएं तो अच्छी कीमत पा सकते हैं। बची हुई सब्जियां भी वहीं थोड़ी कम कीमत पर बिक ही जाती हैं। किसान के मुनाफे में एक सेंधमारी वजन से भी होती है। अगर किसान अपने उत्पाद की तुलाई और व्यापारी के कांटे पर नजर रखें तो इस नुकसान से बचा जा सकता है।

सब्जी उत्पादन का शैश्वकाल


विश्व में फल-सब्जियों के उत्पादन में भारत का स्थान चीन के बाद दूसरे नंबर पर आता है। इस सूची में अमेरिका का स्थान भारत के बाद आता है। यह जानकारी कुछ समय पहले कृषि तथा उपभोक्ता मामलों के राज्य मंत्री प्रो. केवी थॉमस ने लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में दी थी। थॉमस ने भारतीय बागवानी आंकड़ों के हवाले से बताया कि वर्ष 2008-09 के दौरान चीन में जहाँ 107.83 मीट्रिक टन फल और 457.73 मीट्रिक टन सब्जी का उत्पादन हुआ वहीं भारत में 68.46 मीट्रिक टन फल और 129.07 मीट्रिक टन सब्जियों का उत्पादन हुआ।  ज्ञात रहे फूलगोभी के उत्पादन में हमारा पहला प्याज में दूसरा और बंदगोभी में तीसरा स्थान है। 
सरकारी शोध इकाई भारतीय बागवानी शोध संस्थान   (आइआइएचआर) के निदेशक अमरीकसिंह सिद्धू का दावा है कि उन्नत बीज किस्मों के कारण सब्जियों और फलों के उत्पादन के मामले में भारत जल्द ही दुनिया के अग्रणी देश चीन को पीछे छोड देगा। उनका कहना है कि बागवानी फसलों का उत्पादन बढ़ाने की अच्छी संभावना है, अभी हम चीन के बाद दूसरे स्थान पर हैं लेकिन इस उत्पादन के मामले में जल्द विश्व के अग्रणी देश बन सकते हैं। उन्होंने कहा कि फसल तुड़ाई के बाद केवल इन सामग्रियों की बर्बादी को रोककर उत्पादन को आसानी से बढाया जा सकता है यह बर्बादी कुल उत्पादन का करीब 35 प्रतिशत है। इन सबके अलावा सिद्धू ने कहा कि सरकारी शोध संस्थानों द्वारा विकसित 500 के लगभग उन्नत बीज किस्मों के साथ उत्पादता को सुधारने की भारी संभावना है। 
बीजों के अलावा 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012 से 2017) में विपणन, कृषि क्षेत्र के मशीनीकरण और फसल तुड़ाई बाद के प्रबंधन पर नये सिरे से ध्यान देकर आने वाले वर्षों में बागवानी फसलों का उत्पादन बढ़ाये जाने की उम्मीद है। इन सबके साथ एक क्रान्तिकारी पहल यह भी की जा रही है कि फल-सब्जियों के ट्रकों को अब एक ही परमिट पर देश में कहीं भी जाने की इजाजत है, उसे बार-बार नहीं रोका जाएगा।
आइआइएचआर, जिसने पहले ही फलों और सब्जियों के 125 किस्मों को जारी कर रखा है, ऐसी बीज किस्मों को विकसित करने के लिए शोध कर रहा है जिसे पूरे वर्ष उगाया जा सकता है और मांग-आपूर्ति की स्थिति को दुरुस्त रखने में मदद कर सकता है। आइआइएचआर के अनुसार मौजूदा समय में भारत में सब्जियों का उत्पादन स्तर काफी कम है जो कई अन्य देशों की तुलना में मात्र 16.13 टन प्रति हेक्टेअर ही है।
इन सभी समाचारों का एकमात्र उजला पक्ष है कि भारत सब्जी उत्पादन में दूसरे नम्बर पर है और पहले नम्बर वाले चीन को पीछे छोडऩे का इरादा रखता है। इन समाचारों को पढऩे के बाद एक शेर याद आ रहा है- ख्वाब तो कुछ बहुत अच्छे देखे हैं मगर, अहले तदबीरो अमल कुछ इनकी ताबीरें भी हैं? मतबल यह कि चीन और हमारे बीच फासला बहुत बड़ा है। जहां चीन में 457.73 मीट्रिक टन सब्जियां होती है वहीं भारत में इनका उत्पादन 129.07 मीट्रिक टन होता है जो चीन के उत्पादन का एक तिहाई भी नहीं है। 
दूसरा बड़ा कारण है रख-रखाव के अभाव में 35 प्रतिशत तक सब्जियां खराब हो जाती हैं। इसके बावजूद भी कोल्ड़-चेन के मामले में हमारी नजर आज भी विदेशों पर है। अगर हम किसी तरह उत्पादन बढ़ा भी लेगें तो उसे सम्भालेंगे कैसे? हमें दूसरे से तीसरे नंबर पर आते कोई ज्यादा समय नहीं लगेगा क्योंकि अमेरिका में और हमारे उत्पादन में कोई लम्बा-चौड़ा फासला नहीं है। कहा जा सकता है कि देश में अभी सब्जी उत्पादन का शैश्वकाल है, फिलहाल इस क्षेत्र में बहुत काम होना बाकी है, उम्मीद है कि नया साल कुछ नए और अच्छे समाचार लाएगा। 

- कृष्ण वृहस्पति

Thursday, January 17, 2013

घोर कलयुग है

भारत की संस्कृति कथा को चार युगों-सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग में बांटा गया है। शास्त्रानुसार चाहे इन कालखण्डों की कुछ भी व्याख्या की गई हो पर प्रगति के आधार पर कहा जा सकता है कि सतयुग केवल मानव श्रम का युग था, जबकि त्रेता में आदमी के हाथ में लकड़ी और पत्थर के हथियार आ गए थे। द्वापर आते-आते मनुष्य ने पहिए का अविष्कार कर लिया और हथियारों में लकड़ी, पत्थर के अलावा धातु का प्रयोग होने लगा। इसके बाद आया कलियुग जो पूर्णतया कल-पूर्जों और कल कारखानों का युग है, जो आज भी जारी है। वर्तमान में हमारे चारों तरफ इतने यंत्र हैं जिनके बिना जीवन की कल्पना भी मुश्किल है, विशेषकर कृषि का क्षेत्र जिसमें बिना यंत्रों के उपज लेने की सोचना भी कठिन है। आज पंजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान के किसान अपनी थोड़ी सी जमीन पर खेती के लिए ज्यादा से ज्यादा उपकरणों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उनका मानना है कि कामकाज के लिए यंत्रों के उपयोग के अलावा अब और कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि पिछले दो वर्षों में मजदूरी की दर दोगुनी हो चुकी हैं। उत्तरी भारत ही नहीं आज देशभर में किसान मजदूरों की जगह मशीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। प्रख्यात कृषि अर्थशास्त्री और कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के अध्यक्ष अशोक गुलाटी भी मानते हैं कि मनरेगा जैसी योजनाओं के चलते न केवल कृषि मजदूरी महंगी हुई है, बल्कि श्रमिकों की उपलब्धता भी घटी है। यही वजह है कि जहां भी मजदूरों की जरूरत है वहां मशीनों का उपयोग बढ़ रहा है।
कृषि क्षेत्र में मशीनीकरण का यह रुझान केवल ट्रैक्टरों तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरक कृषि उपकरणों जैसे कंबाइन हार्वेस्टर, छोटे टिलर्स, डी-वीडर्स और बिजली तथा बैटरी से चलने वाले छोटे स्प्रेयर का उपयोग भी बढ़ रहा है। पिछले 5 साल में इन उपकरणों की बढ़ती बिक्री से इस बात को बल मिलता है कि मानव श्रम की जगह मशीनों का उपयोग कई गुणा बढ़ा है। इस दौरान बिकने वाले भारी ट्रैक्टरों की बिक्री 2010-11 में 57 प्रतिशत बढ़कर 5,45,128 इकाई रही, जो 2007-08 में 3,46,501 इकाई थी। इसी अवधि में छोटे टै्रक्टरों, कंबाइन हार्वेस्टर, पावर स्पे्रयर और ब्रश कटर की बिक्री में क्रमश: 157, 60, 300 और 800 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई।
नैशनल सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स ऐंड पॉलिसी रिसर्च के निदेशक रमेशचंद ने कहा, 'किसान न केवल अपने कृषि कार्यों के लिए ज्यादा मशीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, बल्कि इनकी उपयोगिता भी बढ़ी है।'
उन्होंने कहा कि इससे पहले कृषि उपकरण जैसे कंबाइन हार्वेस्टर कुछ समय ही काम आते थे, लेकिन अब इनका इस्तेमाल पूरे फसल चक्र में होता है। इन उपकरणों का दैनिक किराया भी बढ़ा है। इसलिए क्या केवल बढ़ती श्रम लागत के कारण अचानक कृषि में मशीनों के उपयोग को वरीयता दी जाने लगी है? विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि पिछले 3-4 वर्षों में कृषि श्रम लागत में करीब 70 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। इसकी वजह सरकार की मनरेगा जैसी सफल कल्याणकारी योजनाएं हैं। मनरेगा योजना अलग-अलग राज्यों में 125 से 155 रुपये दैनिक मजदूरी की गारंटी देती है।
श्रम विभाग के आंकड़े दर्शाते हैं कि पंजाब में औसत दैनिक कृषि मजदूरी पिछले 4 वर्षों में 78 फीसदी बढ़ी है। यह जनवरी 2007 में 95.75 रुपये थी, जो अप्रैल 2011 में बढ़कर 170.24 रुपये हो गई। देश में पंजाब गेहूं और चावल का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। वहीं हरियाणा में औसत दैनिक कृषि मजदूरी संदर्भित अवधि में 102 फीसदी बढ़ी है। वहां यह 100.18 रुपये से बढ़कर 203.06 रुपये हो गई है।  वर्ष 2005 में शुरू की गई मनरेगा योजना 2007 से देश के सभी जिलों में चालू है। इतनी ऊंची मजदूरी दर न केवल किसानों के लाभ को कम कर रही है, बल्कि श्रमिकों की उपलब्धता भी घटा रही है।
दक्षिण भारत में चैन्ने स्थिति मुरुगप्पा समूह की कंपनी ईआइडी पैरी के प्रबंध निदेशक रविन्द्रसिंह सिंघवी कहते हैं कि- मनरेगा और व्याप्त सामाजिक-आर्थिक स्थितियों जैसे कारकों से 30-40 फीसदी कार्यबल में कमी आती है, जिससे साल दर साल लागत बढ़ती है। वह कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में तमिलनाडु में गन्ने की कटाई लागत 300 रुपये से बढ़कर 500-600 रुपये प्रति टन हो गई है। उनके अनुसार कटाई की चरम अवधि में यह 700 रुपये प्रति टन तक पहुंच जाती है। मुरुगप्पा समूह कृषि उत्पाद और सॉल्यूशन मुहैया कराने वाला 17,000 करोड़ रुपये का बड़ा समूह है। मुरुगप्पा समूह ने गन्ना उत्पादकों को मैकेनाइज्ड हार्वेस्टर और अन्य उपकरण मुहैया कराने के लिए हाल ही में सीएनएच ग्लोबल न्यू हॉलैंड फिएट इंडिया के साथ समझौता किया है। सिंघवी कहते हैं कि - ईआइडी पैरी और इसके सहयोगी जरूरी कृषि उपकरण जुटाएंगे और इसके बाद उन्हें किसानों को किराए पर देंगे, इससे किसानों की लागत वास्तविक लागत से काफी कम हो जाएगी। प्रारंभिक चरण में इस प्रयास के जरिए 15,000 किसानों को लक्षित किया जाएगा, जिस पर 100 करोड़ रुपये का निवेश किया गया है। समूह ने तमिलनाडु में उगाए जाने वाले कुल गन्ने के आधे भाग का मशीनीकरण के लिए निवेश बढ़ाने की योजना बनाई है। 
प्रमुख ट्रैक्टर निर्माता सोनालीका समूह के चेयरमैन एल डी मित्तल कृषि उपकरणों की बढ़ती बिक्री में दूसरा आयाम जोड़ते हैं। उनका कहना है कि किसान केवल मजदूरी के बारे में चिंतित नहीं हैं बल्कि वे उसी भूखंड से ज्यादा से ज्यादा लाभ अर्जित करना चाहते हैं, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में प्रतिफल काफी सुधरा है। मित्तल ने कहा कि - यदि किसान पहले अपने खेत को साफ करता है तो संभावना है कि अतिरिक्त फसल की बुआई कर करेगा और यह तभी हो सकता है जब मैनुअल श्रम लागत न्यूनतम हो।
छोटे और वहनीय (अफोर्डेबल) कृषि उपकरण विकसित करने वाली एक कंपनी एसएएस मोटर्स के प्रबंध निदेशक रवींद्र कुमार कहते हैं कि बैलों की एक जोड़ी की कीमत करीब 50,000 रुपये बैठती है और उन्हें खिलाने के लिए हर महीने अतिरिक्त 5,000 रुपये की जरूरत होती है। यद्यपि इनका इस्तेमाल एक महीने होता है, लेकिन पूरे वर्ष इन्हें चारा खिलाना पड़ता है। इसलिए भारतीय कृषि में बैल रखने की लागत महंगी पड़ती है।' इंडोफार्म ट्रैक्टर्ज के विक्रय और विपणन निदेशक अंशुल खडवालिया कहते हैं कि- हालांकि कृषि यंत्रिकरण विगत कुछ वर्षों में बहुत बढ़ा है पर अभी भी बहुत इस क्षेत्र में बहुत काम होना बाकी है। हमें इसके लिए भारतीय परस्थितियों के अनुसार यंत्र बनाने पड़ेंगे, अभी देश में कृषि यंत्र बनाने वाली कम्पनियां शोध एवं विकास पर कुछ नहीं कर रही हैं, वे चीन से आयात कर ग्राहकों बिना किसी बदलाव के यंत्र बेच रही हैं। नतीजा चाहे जो भी हो, यह बदलाव स्वागत योग्य है, क्योंकि मशीनीकरण उत्पादकता में सुधार के जरिए न केवल प्रति इकाई लागत घटाता है, बल्कि श्रमिकों की उपलब्धता में घटत-बढ़त की स्थिति को भी कम करता है। भारतीय किसानों में मशीनों के प्रति बढ़ते प्रेम के चलते अनेक कंपनियां इस क्षेत्र में उतर रही हैं। अगर ऐसा ही रहा तो वो दिन दूर नहीं कि जब खेतों में किसान की जगह केवल मशीने ही नजर आएंगी। तब कहा जाएगा के वास्तव में घोर कल युग आ गया है।

इतना मंहगा क्यों है ट्रैक्टर?

नैनो कार की तरह एक लखटकिया ट्रैक्टर बाजार में आने की चर्चा समय-समय पर होती रहती है। यह खबर सुनकर खेती-बारी से जुड़े तमाम लोगों के मन में यह सवाल उठने लगता है कि क्या लाख रुपए का ट्रैक्टर किसानों को मिल सकता है? इसकी उपयोगिता और क्षमता क्या होगी? क्या इससे खेती की जरूरतें पूरी हो जाएंगी?
ट्रैक्टर निर्माताओं के मुताबिक ऐसा संभव है। इससे पहले कुछ कंपनियां सस्ता ट्रैक्टर बनाने की कौशिश कर चुकी हैं। हाल ही में गुजरात की एक अग्रणी कंपनी ने में करीब डेढ़ लाख रुपए का 15 हार्स पावर का एक ट्रैक्टर लांच किया है। उससे पहले हरियाणा की एक कंपनी 22 हार्स पावर का एक ट्रैक्टर एक लाख से कम कीमत में उतार चुकी है। इस बाजार से जुड़े लोगों की मानें तो अन्य कंपनियां भी इस मामले में गंभीर हैं। डीलरों और किसानों से ऐसे ट्रैक्टर की संभावना के बारे में राय ली जा चुकी है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि अगर सरकार, निर्माता और डीलर अपने-अपने स्तर से थोड़ी-थोड़ी रियायत करें, तो मौजूदा समय में ही लाख रुपए से कुछ ऊपर का ट्रैक्टर किसानों को आसानी से उपलब्ध हो सकता है। नई तकनीक वाले वातानुकूलित और बड़े उत्पादों को छोड़ भी दिया जाए, तो बाजार में कम से कम कीमत के उपलब्ध ट्रैक्टरों के दाम भी करीब तीन लाख रुपए है। इसमें उत्पादक को करीब 80 हजार से 1 लाख तक का लाभ होता है। करीब इतना ही विभिन्न करों के रूप में सरकार को जाता है। 15 से 25 हजार डीलर का मुनाफा होता है। अगर हर कोई अपने हिस्से में कुछ कटौती करे और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत 30-35 हार्स पावर के ट्रैक्टर पर 30 हजार रुपए का जो अनुदान देय है, उसे कम कीमत वाले ट्रैक्टरों पर भी दिया जाए, तो तीन लाख वाला ट्रैक्टर ही डेढ़ से दो लाख के बीच मिलने लगेगा। कंपनियां कम कीमत का जो नया ट्रैक्टर लांच कर रही हैं या करेंगी अगर उसमें ये सारी बातें शामिल कर दी जाएं तो लाख रुपए का ट्रैक्टर किसानों के लिए हकीकत होगा। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश में 90 प्रतिशत किसान छोटी जोत वाले हैं और उनमें भी 75 प्रतिशत की जोत तो एक हेक्टेअर से कम है। इनमें से अधिकांश की हैसियत तीन लाख या इससे ऊपर की कीमत का ट्रैक्टर खरीदने की नहीं है।
ऐसे में अधिकतर किसान किराए के ट्रैक्टर या बैल से खेती करते हैं। मौजूदा समय में बैल की एक बढिय़ा जोड़ी भी तीस से पचास हजार रुपए की है और पशु की जिंदगी कम तथा अन्य जोखिम अलग से हैं। बैल से काम लें या न लें पर खिलाना तो रोज ही पड़ता है ऐसे में लाख रुपए या इससे कुछ अधिक का ट्रैक्टर किराए के ट्रैक्टर या बैलों की जोड़ी का बेहतर विकल्प हो सकता है।
दूसरी तरफ एक अहम सवाल यह भी है कि विगत दस वर्षों में भारत में कारों की कीमत या तो वही हैं या उससे भी कम हो गई पर टैक्ट्ररों कीमतें चार से आठ गुणा तक बढ़ गई हैं और तकनीक तथा सहूलियत के हिसाब से भी उनमें कोई बदलावा नहीं आया है। इस बाबत सोनालिका टैक्ट्रर्ज के चेअरमैन एलडी मित्तल का कहना है कि कार निर्माताओं के पास पहले से ही बहुत ज्यादा मुनाफा था इसलिए कारों की कीमत गत दस सालों में स्थिर रही पर हमारे पास पहले से ही कम लाभ था और स्टील की कीमत दूगनी से ज्यादा हो गई तो रेट बढ़ाने के अलावा चारा क्या था? रही बात तकनीकी रूप से सुधार की तो बहुत सारे बदलाव टैक्ट्ररर्ज में आएं हैं जैसे-ऐवरेज बढ़ी है, सीआरडीआई इंजन तथा पावर स्टेरिंग आ गए हैं। इस विषय में जब एस्कॉर्ट लिमिटेड के मुख्य महाप्रबंधक (विक्रय) एसपी पाण्डे का तर्क वाजिब लगता है, वे कहते हैं कि- एक ट्रैक्टर बनने में काम आने वाली डाई तथा मोल्डिंग टूल उतने ही मंहगे हैं जितने एक कार बनाने में काम आने वाले औजार। लेकिन उन औजारों से बनने वाले ट्रैक्टर मात्र दो-तीन हजार बिकते हैं पर कारें दो-तीन लाख, इसलिए ट्रैक्टर की लागत बहुत ज्यादा बैठती है। वे कहते हैं कि आज देश में छोटे-बड़े मिलाकर कुल 5 लाख ट्रैक्टर बिकते हैं जबकि कार का एक मॉडल ही इतना बिक जाता है।  इंडोफार्म ट्रैक्टर्ज के विक्रय और विपणन निदेशक अंशुल खडवालिया से पूछा गया तो उन्होंने विस्तार से बताया कि-इसके पीछे दो-तीन कारण है। पहला तो यह कि सरकारी नीतियां पर्यावरण के मामले में अमेरिका का अनुसरण कर रही है, जिसकी वजह से हमें यूरो-4 मानकों के तहत ट्रैक्टर बनाने पड़ रहे हैं, जबकि अन्य विकासशील देशों में यहां तक कि चीन में भी यूरो-3 मानक पर ही ट्रैक्टर बन रहे हैं। इसी बात का दूसरा पहलू यह भी है कि हम तो यूरो-4 मानकों में ट्रैक्टर बना रहे हैं जबकि देश में अभी तक बिना यूरो मानक के ट्रैक्टर दौड़ रहे हैं।
सरकार देश की स्थितियों को देखते हुए व्यवहारिक नीयम नहीं बनाती जिसकी वजह से हमें बदलाव के लिए शोध तथा विकास पर बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है, इस वजह से प्रति वर्ष ट्रैक्टर 4 से 5 प्रतिशत तक मंहगा हो जाता है। मूल्य वृद्धि का दूसरा कारण है स्टील, रबर और लेबर का मंहगा होना, विगत दस वर्षों में ये तीनों वस्तुएं ढाई से तीन गुना तक मंहगी हुई हैं।

Saturday, January 12, 2013

तकनीक की भेंट चढ़ गए मित्र पक्षी


किसानों के मित्र समझे जाने वाले मित्र पक्षियों की कई प्रजातियां काफी समय से दिखाई नहीं दे रहीं हैं। किसान मित्र पक्षियों का धीरे-धीरे गायब होने के पीछे बहुत से कारणों में एक बड़ी वजह किसानों द्वारा कृषि में परंपरागत तकनीक छोड़ देने, मशीनीकरण व कीटनाशकों के व्यापक इस्तेमाल को माना जा रहा है। गाँव-गाँव में मोबाइल फोन के टावरों से निकलने वाली तरंगों से भी मित्र पक्षियों तथा कीटों पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है।
कौन से हैं किसानों के मित्र
किसान मित्र पक्षियों में मोर, तीतर, बटेर, कौआ, शिकरा, बाज, काली चिड़ी और गिद्ध आदि हैं, जो दिन-प्रतिदिन लुप्त होते जा रहे हैं। ये पक्षी खेतों में बड़ी संख्या में कीटों को मारकर खाते हैं। आज से एक दशक पहले तक ये पक्षी काफी अधिक संख्या में थे लेकिन अब इनमें कुछ पक्षियों के दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं। सबसे ज्यादा असर तो खेतऔर घरों में आमतौर पर दिखने वाली गौरया चिड़ी पर पड़ा है। खेतों में तीतर व बटेर जैसे पक्षी दीमक को खत्म करने में सहायक थे, क्योंकि उनका मनपंसद खाना दीमक ही है। इनके प्रजनन का माह अप्रैल, मई है और ये पक्षी आम तौर पर गेहूं के खेत में अंडे देते है। आज किसान गेहूँ कम्बाइन से काटते हैं और बचे हुए भाग को आग लगा देते हंै। इससे तीतर, बटेर के अंडे, बच्चें आग की भेंट चढ़ जाते है। इसी कारण इनकी संख्या में कमी आ रही है। नरमा, कपास के खेतों में दिन-प्रतिदिन कीटनाशकों का जरूरत से ज्यादा छिड़काव हो रहा है। जिससे बड़ी संख्या में तीतर-बटेरों की हर साल मौत हो जाती है। कमोबेस यही स्थिति मांसाहारी पक्षियों बाज, शिकरा, गिद्ध और कौवों की भी है।
खूबसूरत मोर भी हुए लुप्तप्राय
गाँव का सबसे खूबसूरत पक्षी और वर्षा की पूर्व सूचना देने वाले मोर भी अब लुप्त होते जा रहे है। ये पक्षी किसानों को सांप जैसे खतरनाक जंतुओं से भयमुक्त रखता है और साथ ही पक्षी शिकार कर खेतों से चूहे मारकर खाने में मशहूर है। वर्तमान में जहरीली दवाओं की वजह से मोरों की संख्या बहुत कम हो गई है।
मुर्दाखोर गिद्ध भी गायब हैं
भारत मे कभी गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती थी, लेकिन अब बिरले ही कहीं दिखाई देते हैं। संरक्षण कार्यकर्ताओं का मानना है कि पिछले 12 सालों में गिद्धों की संख्या में अविश्वसनीय रूप से 97 प्रतिशत की कमी आई है। गिद्धों की इस कमी का एक कारण बताया जा रहा है: पशुओं को दर्दनाशक के रूप में दी जा रही दवा डायक्लोफ़ेनाक, और दूसरा, दूध निकालने लिए के लगातार दिए जा रहे ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन। उपचार के बाद पशुओं के शरीर में इन दवाओं के रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो ये रसायन उनका मांस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं। मुर्दाखोर होने की वजह से गिद्ध पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते है और सड़े हुए माँस से होने वाली अनेक बीमारियों की रोकथाम में सहायता कर प्राकृतिक संतुलन बिठाते है। गिद्धों की जनसंख्या को बढ़ाने के सरकारी प्रयासों को मिली नाकामी से भी इनकी संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इनकी प्रजनन क्षमता भी संवर्धन के प्रयासों में एक बड़ी बाधा है, एक गिद्ध जोड़ा साल में औसतन एक ही बच्चे को जन्म देता है।
कीटनाशकों के प्रयोग से मरे अधिकांश पक्षी
कीटनाशकों का प्रयोग लगातार बढऩे से अन्य कीटों के साथ-साथ चूहे भी मर जाते हैं और इन मरे हुए चूहों को खाने से ये पक्षी भी मर जाते हैं। इसी प्रकार कौवे तथा गिद्ध भी जहर युक्त मरे जानवरों को खाने से मर रहे हैं। खेतों में सुंडी जैसे कीटों को मारकर खाने वाली काली चिडिया व अन्य किस्म की चिडियों पर भी कीटनाशकों का कहर बरपा है। अब ये पक्षी कभी-कभार ही दिखाई देते हैं।
वृक्षों का कटना भी है कारण
खेतों से पक्षियों के गायब होने का एक बड़ा कारण है किसानों द्वारा वृक्षों का काटना। किसानों द्वारा किसी जमाने में खेतों में वृक्षों के नीचे पक्षियों के लिए पानी व खाने का प्रबंध किया जाता था, परंतु अब ठीक इसके विपरीत हो रहा है, जिससे अब पक्षियों का रूख खेतों की तरफ नहीं हो रहा है।

कृषि यंत्रों का ऐतिहासिक सफर


विश्व में खेती का इतिहास जितना पुराना है कमो-बेश कृषि यंत्रों का इतिहास भी उतना ही पुराना है। खेतों को तैयार करने, जोतने बोने, फसल काटने आदि के लिए मनुष्य को आरंभ से ही उपकरणों की जरूरत रही है। आरंभ में वे सब औजार लकड़ी, पत्थर या हड्डी के रहे होंगे लेकिन धातु के आविष्कार के बाद पत्थर और हड्डी की जगह धातु ने ले ली और लकड़ी के हल में भी लोहे के फल लगने लगे। इसी प्रकार कुदाल, फावड़ा, खुरपी, हँसिया आदि दूसरे प्रकार के उपकरण भी बनाए और मानवशक्ति के साथ-साथ पशुशक्ति का उपयोग किया जाने लगा। इसके लिए बैल, घोड़ा, खच्चर, ऊँट अधिक लाभदायक सिद्ध हुए। इन्हीं साधनों और पशुओं में थोड़े से बदलाव के साथ संसार के सभी देशों में 18वीं शताब्दी के आरंभ तक खेती होती रही। अठारहवीं शताब्दी में उद्योगों में यंत्रीकरण के बाद कृषि क्षेत्र में भी लोगों का ध्यान इस ओर गया तथा धीरे-धीरे कृषि उपकरण यंत्र बनते गए। उन्नत देशों में सन 1840 से ही लगभग लोहे के हलों का उपयोग होने लगा था। 20वीं शताब्दी में हलों में पर्याप्त सुधार किए गए, जिनके कारण हलों पर भार घट गया। कोल्टर्स के उपयोग के कारण हलों में खरपतवार भी कम फसते है तथा ये आसानी से चलते भी हैं। अब रबर के पहिए के कारण कृषि यंत्रों और ट्रैक्टरों द्वारा भार के खिंचाव में सुविधा हो गई है। अच्छे डिजाइन और बनावट तथा सुदृढ़ धातु के उपयोग के कारण घर्षण कम हो गया है। पिछड़े हुए देशों में आजतक भी अच्छे प्रकार के कृषि यंत्रों का मिलना एक समस्या है। सन 1900 के बाद विशेषत: प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात, रूस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिणी अमरीका और अफ्रीका में कृषि के यंत्रीकरण का प्रचलन अधिक हुआ। श्रम की महत्त्व समझने वाले अनेक देशों के कृषक जुताई तथा फसल की बटाई आदि कार्यों के लिए ट्रैक्टर का इस्तेमाल करने लगे, किंतु अफ्रीका और एशिया के बहुत से देशों में अभी यांत्रिक शक्ति का उपयोग अधिक मात्रा में नहीं हो रहा है। रूस के साइबीरिया क्षेत्र में सामूहिक खेतों पर तथा दक्षिण व मध्य अमरीका में मक्का उगाने के लिए, अर्जेंटाइना में कपास तथा ईख आदि के लिए यंत्रों का उपयोग विशेष रूप से होता है।
आधुनिक यंत्रों के प्रयोग से खाद्य एवं पहनने की वस्तुओं के उत्पादन में काफी प्रगति हुई है। क्षेत्र और विभिन्न प्रकार की फसलों का ध्यान रखते हुए अनेक प्रकार के यंत्रों का निर्माण होने लगा है। खेती के काम के लिए शक्ति के बढ़ते हुए उपयोग के कारण, मशीनों को चलाने वाली मोटरों तथा विद्युत का प्रयोग तीव्र गति से बढ़ रहा है। संयुक्त राज्य अमरीका में, खेती की वृद्धि के साथ-साथ विद्युत शक्ति का उपयोग मुर्गी तथा सूअरों के पालने, घास सुखाने, आटा पीसने तथा डेअरी मशीनें आदि चलाने के कार्यों में भी होने लगा है। जिसकी वजह से घोड़ों और ऊँटों का प्रयोग बहुत ही कम हो गया। हाथ तथा पशुओं से चलाए जानेवाले यंत्रों में भी पर्याप्त सुधार हुआ और शक्तिचालित यंत्रों का आविष्कार एवं उपयोग बढ़ता गया। कृषि अनुसंधानकर्ताओं तथा अभियंताओं ने अब पौधे लगाने वाली, चुकंदर के बीज अलग करनेवाली एवं दाना तथा भूसा अलग करने आदि, कृषि कार्यों के लिए उपयोगी मशीनों को भी शक्तिचालित बनाने में सफलता प्राप्त करली है। संयुक्त राज्य अमरीका में कृषि कार्य में शक्ति और यंत्रों के उपयोगों के प्रारंभ का क्षेत्र बड़ा व्यापक था, वहाँ के खेत विभिन्न प्रकार की मिट्टी के होने के कारण छोटे-छोटे भागों में बँटे हुए थे। अत: वहाँ छोटे से छोटे खेतों में उपयोग करने के निमित्त मशीनें बनीं, जिसका ज्वलंत उदाहरण छोटे ट्रैक्टर हैं। ये पारिवारिक तथा छोटे खेतों के लिए उपयोगी सिद्ध हुए है। यही बात प्लांटिंग मशीन और फर्टिलाइजर डिस्ट्रिब्यूटर के विषय में भी कही जा सकती है।
ग्रेट ब्रिटेन में जुताई के लिए भाप से चलने वाले ट्रैक्टर उपयोग में लाए जाते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वहाँ पेट्रोल से चलने वाले ट्रैक्टरों की संख्या अधिक हो गई। कृषि संबंधी श्रमिकों की कमी ने खेतों पर शक्ति तथा यंत्रों के उपयोग में दिनों दिन वृद्धि की है। वहाँ के किसानों ने घास से अधिक लाभ उठाने के हेतु मशीनों का उपयोग विशेष रूप से किया। वर्षा के कारण घास को अच्छी दशा में रखना कठिन था, अत: घास को साइलों में रखने की प्रथा का पर्याप्त विकास हुआ। परिणामस्वरूप इनसाइलेज कटर (चारा काटने की मशीन), साइलोफियर, साइलेज हारवेस्टर जैसी मशीनें प्रचलन में आई। वहाँ कुछ फसलों की कटाई रीपर के द्वारा होती है, जो फसल को बिना ग_र बनाए ही भूमि पर डाल देता है। यह कटी हुई फसल ट्रकों में भरकर मड़ाई के लिए जाती है। वहाँ की थ्रेशिंग मशीनें केवल भूसे को ही दाने से अलग नहीं करतीं, वरन छोट-छोटे खरपतवार, लकड़ी, पत्थर और मिट्टी को भी अनाज से अलग करती है। हवा में अधिक नमी होने के कारण ब्रिटेन के बहुत से चरागाहों में काई पैदा हो जाने से गर्मी में हैरो का उपयोग होने लगा है।
सोवियत रूस में सहकारी खेती, पंचवर्षीय योजना, भूमिसुधार और छोटे-छोटे खेतों को तोड़कर बड़े फार्म बनाने की योजनाओं के कार्यान्वित होने से ही यांत्रिक खेती की प्रगति हुई है। सुनिश्चित समय में योजनाओं के अंतर्गत यंत्रीकरण उन्नति की ओर विशेष तथा सस्ते ईधंन की प्राप्ति, रूस के कृषियंत्रीकरण में विशेष सहायक सिद्ध हुई। देश में ट्रैक्टर बनाने के बहुत से कारखाने खोले गए तथा आदमियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। लगभग सन 1940 तक रूस में खेती का एक बड़ा भाग सामूहिक खेती के रूप में होता रहा। अंत में इन छोटे भागों को मिलाकर बड़ी इकाई का रूप दे दिया गया, जिसके प्रबंध में पर्याप्त सुविधा हुई। मध्यम तथा छोटे सामूहिक खेत वाले आवश्यकता पडऩे पर राजकीय खेतों से मशीनें लाकर कार्य करते हैं। सन 1936 के बाद रूस में मशीनें गेहूँ, जौ, जई, राई और दूसरे अनाज उगाने के काम में आने लगीं और जो मशीनें अन्यत्र यांत्रिक खेती के लिये प्रयुक्त होती रहीं उनका उपयोग कपास, चुकंदर इत्यादि फसलों की खेती में भी किया जाने लगा। अब वहाँ लगभग सभी कृषि कार्य मशीनों के द्वारा होते हैं। दूसरे शब्दों में कृषि का 95 प्रतिशत यंत्रीकरण हो चुका है, वहाँ विभिन्न प्रकार के 1,000 कृषियंत्र बनने लगे हैं। 
जर्मनी में लोगों का झुकाव डीजल तथा सेमिडीजल छोटे ट्रैक्टरो के निर्माण की ओर अधिक है। यांत्रिक शक्ति के उपयोग से फसल उगाने के लिये पुरस्कार स्वरूप जर्मनी के कृषकों को 3 से 5 एकड़ ज़मीन मिल जाती थी। स्वभावत: लोगों का झुकाव ट्रैक्टरों एवं ट्रकों से कृषि उत्पाद बाजार ले जाने की ओर हुआ। वहाँ मशीनों के डिजाइन में खाद्योत्पादन की वृद्धि की और विशेष ध्यान दिया गया, जिससे वहाँ के छोटे छोटे फार्मों से अत्यधिक लाभ उठाया जा सके। कतारों में बुनाई करनेवाली इस देश की मशीनों की सूक्ष्मता दूसरे देशों के लिये एक उदाहरण है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व भी जर्मनी के खेतों पर विद्युत शक्ति का उपयोग होता था। सिफ्ट जर्मनी का एक विख्यात ट्रैक्टर है, जिसका निर्माण सन 1947-48 में प्रारंभ हुआ। ट्रैक्टरों से चलनेवाले स्पाइक टुथ हैरो तथा पल्वराइजर इत्यादि इस देश में बहुताएत निर्मित होते हैं।
फ्रांस में छोटे छोटे खेतों की अधिकता के कारण यांत्रिक खेती का उतना विकास नहीं है जितना इंगलैंड, रूस तथा जर्मनी में है। फ्रांस के कृषक अपने शक्तिशाली घोड़ों के लिये प्रसिद्ध हैं। कृषि कार्यों के लिये इनका उपयोग बड़ी मात्रा में होता है, इसके बावजूद इस देश में छोटे ट्रैक्टरों का उपयोग बढ़ा है। इस देश में स्प्रेइंग तथा डस्टिंम मशीनों का प्रयोग एवं फलों तरकारियों की खेती में अधिक तथा कुछ सीमा तक व्यापारिक उर्वरक के लिये होता है। दक्षिणी अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा अर्जेंटाइना में भी कृषि यंत्रों की ओर लोगों का झुकाव है किंतु जहाँ कही भी ईंधन मंहगा और पशु रखने की सुविधा है वहां के किसानों ने पशु शक्ति पर निर्वाह करना उचित समझा। इन देशों में यांत्रिक शक्ति का उपयोग केवल खेत तैयार करने तथा फसल की कटाई तक ही सीमित है। न्यूजीलैंड में डेअरी उद्योगों की उन्नति होने के फलस्वरूप वहाँ पर डेअरी से संबंधित यंत्रों का अत्यधिक मात्रा में उपयोग तथा विकास हुआ है। अफ्रीका में नील नदी की घाटी और दक्षिणी अफ्रीका के अतिरिक्त अन्य सभी जगह खेती अब भी पुराने ढंग से की जाती है और सामान्य यंत्र तथा पशु उपयोग में लाए जाते हैं। यही स्थिति एशिया के बहुत से देशों की है।
अधिक जनसंख्या होने के कारण चीन में ट्रेक्टरों तथा बड़ी मशीनों का उपयोग बहुत ही सीमित है। मानव एवं पशुचालित यंत्र ही वहाँ विशेष प्रचलित हैं। चीन में कृषि कार्यों की शक्ति का मुख्य साधन मनुष्य ही है। यहाँ तक कि हल तथा गाडिय़ाँ भी मनुष्यों द्वारा चलाई जाती हैं। साइलेज कटर, पनचक्की, राइस हलर, राइस थ्रैशर, दो पहिए वाले हल इत्यादि कुछ उन्नतिशील कृषि यंत्रों का निर्माण अब चीन में होने लगा है। यूरोप और संयुक्त राज्य अमरीका में विद्युतचलित यंत्रों का प्रयोग होने लगा है क्योंकि वहाँ बिजली अधिक सस्ते दर पर उपलब्ध है एवं इसको उपयोग में लाना भी सरल होता है। इसके अतिरिक्त विद्युत-चालित औजार और यंत्र भी पर्याप्त समय तक ठीक दशा में रखे जा सकते हैं, समय की बचत होती है, कार्य निपुणता बढ़ती है और व्यय कम होता है। भारत में कृषि यंत्रों का व्यवहार हालांकि हरित क्रान्ति के बाद से आरंभ हुआ है और आज उसका तेजी से विस्तार हो रहा है। हमारे यहां किसान की जरूरतों के आधार पर कृषि यंत्र नहीं बनाए जाते, यहां आज तक विदेशों की नकल पर तैयार यंत्रों का चलन है। 

Saturday, January 5, 2013

सरकारी बैंकों से किसानों का मोहभंग

भारतीय बैंकों पर अकसर इल्जाम लगता है कि ये कार लेने वालों से कम और कृषि यंत्र लेने वाले से ऊँची दरों पर ब्याज वसूते हैं। यह अरोप सही भी है क्योंकि जहां कार पर 10 प्रतिशत ब्याज लिया जाता है वहीं ट्रैक्टर 13 प्रतिशत ब्याज से कम पर नहीं मिल सकता। अगर कार लेने वाले की साख अच्छी है और आयकर रिटर्न बड़ी रकम का है तो नियम-कानून के पेच भी थोड़े ढीले हो जाते हैं और ब्याज दर भी कम हो जाती है। जबकि ट्रैक्टर लेने वाला कितना ही बड़ा किसान क्यों न हो उसे कोई रियायत नहीं मिल सकती। इससे भी ज्यादा पक्षपात यह कि ट्रैक्टर या कृषि यंत्रों के लिए किसान को अपनी जमीन गिरवी रखनी पड़ती है जबकि कार लेने वाला महज अपनी दो से तीन साल की आमदनी का प्रमाण दे कर बिना कुछ गिरवी रखे ऋण ले सकता है।
कृषि यंत्रों पर महंगे ऋण की बात करने से पूर्व यह जानना जरूरी है कि बैंकों के ऋण मानदण्ड क्या हैं। कोई भी बैंक ऋण देने से के लिए आवेदक की ऋण लौटाने की क्षमता और अपने धन की सुरक्षा देखता है। सबसे पहले बात करते है धन सुरक्षा कि तो देश में कहीं भी खेती योग्य एक एकड़ भूमि की कीमत तीन लाख से कम नहीं है। अलग-अलग बैंक अपने नियमों के अनुसार एक ट्रैक्टर के 4 से 5 लाख ऋण लिए कम से कम 4 से 6 एकड़ तक जमीन गिरवी रखते हैं जिसकी बाजार कीमत 12 से 18 लाख तक होती है। अब अगर बात करें ऋण लौटाने की क्षमता की तो सबसे सस्ती और जल्द उगने वाली फसल अगर गेहूं को मानें तो मात्र 90 से 120 दिन पैदा होने वाली यह फसल एक एकड़ में कम से कम 15 क्विंटल होती है जिसका सरकारी मूल्य ही 18 से 20 हजार होता है।   
किसान नेता और भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत कहते हैं कि इस विषय में बैंक प्रबंधन मौन है पर प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया है कि बैंकर और किसान प्रतिनिधियों के बीच संवाद की व्यवस्था जल्द करवाएंगे ताकि इस समस्या का समाधान हो सके। टिकैत कहते हैं कि अगर ट्रैक्टर नकद खरीदा जाए तो 40 से 50 हजार तक छूट मिलती है जबकि लोन पर लेने वाले को यह छूट नहीं मिलती। साथ ही वे समूचे ट्रैक्टर उद्योग को भी कटधरे में खड़ा करते हैं कि देश में हर वस्तु का अधिकतम खुदरा मूल्य है जबकि ट्रैक्टर का ऐसा कोई मूल्य तय नहीं है।
यही बडी वजह है कि विगत दो साल से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से किसानों ने ट्रैक्टरों पर ऋण लेना ही बंद कर रखा है। वर्तमान में हर ट्रैक्टर डीलर के यहां एचडीएफसी या कोटक महेन्द्रा का एक प्रतिनिधि बैठा है जो न सिर्फ ग्राहक को तुरंत ऋण उपलब्ध करवा रहा है बल्कि डीलर को भी ज्यादा ट्रैक्टर मंगावने के लिए अग्रिम भुगतान की सुविधा दे रहा है। एक बडे राष्ट्रीय बैंक के अधिकारी नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताते है कि- यह स्थिति रातों-रात नहीं आई, बैंकर खुद लाए हैं। हमारा तरीका बेहद सरकारी है जिस वजह से टैक्टर निर्माता और विक्रेता ही नहीं खरीददार का भी मोहभंग हुआ है। हम विक्रेता को बैंक के कई चक्कर लगावाने के बाद सेवा-चाकरी करने पर ही महीने दो महीने में भुगतान करते थे। हमें हर खरीददार चोर लगता था इसलिए उसके कागजों में कमी न होने पर भी मीन-मेख निकालते रहते। उन्होंने बताया कि कारें इसलिए कम ब्याज पर मिल जाती हैं कि शुरू में कोई भी राष्ट्रीय बैंक कारों पर ऋण नहीं देता था केवल निजी कम्पनियां और बैंक ही ऐसा करते थे। ये बैंक कार निर्माताओं से कुछ पैसा लेकर ग्राहकों को जीरो प्रतिशत पर भी कार लोन दे देते थे। जब राष्ट्रीय बैंक इस दौड़ में शामिल हुए तो उसी रास्ते पर चल पड़े। पंजाब नैशनल बैंक के कृषि महाप्रबंधक आई एस फोगाट बेहद ईमानदारी से स्वीकार करते हैं कि ऐसा इसलिए है कि खेती के लिए ऋण देना आज भी जोखिम का काम है क्योंकि यह सौ प्रतिशत मौसम पर निर्भर है। इसमें वित्त उपलब्ध करवाने के तरीकों में सुधार की गुंजाइश है। वे इस सुझाव पर तुरंत काम करने को तैयार हो गए कि कारों की तरह ट्रैक्टर उद्योग को भी ब्याज का कुछ हिस्सा देने को तैयार किया जाए ताकि किसानों को राहत मिल सके।

Friday, January 4, 2013

कितना जरूरी है कृषि यंत्रीकरण

केंद्रीय बजट से पूर्व कृषि क्षेत्र में यंत्रीकरण पर फिक्की-यस बैंक की रिपोर्ट को हालांकि अब बहुत समय हो चुका है, पर इसकी प्रासंगिता पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। इस अध्ययन में कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए, पहला यह कि प्राकृतिक संसाधनों में कमी और जलवायु परिवर्तन जैसे कारणों से उपजी चुनौतियों के कारण कृषि में मशीनों का इस्तेमाल बेहद जरूरी हो गया है। अत: मुख्य कृषि कार्यकार्यों के दौरान नए उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ाया जाना इस क्षेत्र के मौजूदा 2 प्रतिशत के स्तर को दोगुना करने के लिए बेहद जरूरी है। दूसरा यह कि यंत्रीकरण से ग्रामीण रोज़गार सृजन पर जितना विपरीत असर पड़ेगा, उससे अधिक रोज़गार के नए मौके इन उपकरणों के रखरखाव के जरिए तैयार हो जाएंगे। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना कानून (मनरेगा) के कारण कृषि मजदूरों की कमी हो गई है। खासतौर से कृषि प्रधान राज्यों में बुआई और कटाई सत्र के दौरान यह समस्या और भी गम्भीर हो जाती है, और जमीन और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों की कमी के कारण भी यह जरूरी हो गया है कि संसाधनों का संरक्षण करने वाली प्रौद्योगिकी में निवेश किया जाए, जैसे जुताई रहित खेती, वैज्ञानिक कृषि और ड्रिप सिंचाई। इसके लिए विशेष किस्म की मशीनों और उपकरणों की जरूरत है। यह सारे उपकरण देश में मौजूद नहीं होने के कारण इनमें से कुछ का आयात भी करना पड़ेगा। लागत कम करने के लिए बाद में इन उपकरणों को स्थानीय स्तर पर भी तैयार करना होगा। इसका एक उदाहरण लेजर लैंड लेवलर से कृषि भूमि को समतल करने का है। इससे सिंचाई के लिए करीब 30 प्रतिशत पानी की बचत हो जाती है और पैदावार भी एक समान होती है। कुछ समय पहले तक इनका आयात किया जाता था और इसलिए यह काफी महंगे भी थे, लेकिन अब यह देश में बेहद कम कीमत पर तैयार हो रहे हैं। स्थानीय विनिर्माताओं द्वारा तैयार किए ये उपकरण इतने सस्ते नहीं हुए कि कोई भी किसान इन्हें खरीद ले। सारे उपकरण खरीदना एक बडे किसान के बूते से आज भी बाहर हैं। इसका एक बेहतर विकल्प यह निकाला गया कि कुछ कम्पनियों और राज्य सरकार द्वारा पंचायत स्तर पर उपकरणों को जरूरतमंद किसानों को किराए पर उपलब्ध करवाया जाए। इन उपकरणों से समय और मजदूरी दोनों की काफी बचत होती है, उत्पादन लागत घटती है तथा फसल तैयार होने के बाद नुकसान में कमी आती है। पिछले एक दशक से जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तरी राज्यों में अक्सर गर्मी जल्दी आ जाती है। ऐसे में गेहूं की बुआई में एक सप्ताह की देरी होने पर गेहूं का उत्पादन प्रति हेक्टेअर 1.5 क्विंटल तक घट जाता है। इस नुकसान की भरपाई गेहूं की जल्द बुआई करके पूरी की जा सकती है लेकिन ऐसा तभी संभव है जब धान की पिछली फसल की कटाई मशीन से की जाए और विशेष उपकरणों की मदद से गेहूं की बुआई की जाए, इसके जरिए जलवायु परिवर्तन के कारण फसल की बुआई के समय में होने वाले बदलावों को नियंत्रित किया जा सकता है। जल्दी बुआई तभी संभव हो सकेगी जब उपकरणों की मदद ली जाए। इन बातों पर विचार करने के बाद लगता है कि फिक्की-यस बैंक की गई रिपोर्ट पर विचार करना चाहिए।

यंत्रों की नकल में अक्ल का अभाव

इंसान ने कब, कहाँ और कैसे खेती करना आरंभ किया, इसका उत्तर देना आसान नहीं है। सभी देशों के इतिहास में खेती के विषय में कुछ न कुछ दावे जरूर किए गए हैं। माना जा सकता है कि आदिम समय में जब मनुष्य जंगली जानवरों का शिकार पर ही निर्भर था तथा बाद में जब उसने कंद-मूल, फल और अपने-आप उगे अन्न का उपयोग आरंभ कर दिया होगा। ऐसे ही शायद कभी किसी समय खेती द्वारा अन्न उत्पादन करने का आविष्कार किया गया होगा। वर्तमान में सारी पृथ्वी पर जहां भी संभव है खेती की जा रही है, यहां एक यह जानकारी भी रोचक हो सकती है कि दुनिया में आज भी ऐसे देश हैं जहां कुछ भूमि ऐसी है जहाँ पर खेती नहीं हो सकती जैसे अफ्रीका और अरब के रेगिस्तान, तिब्बत एवं मंगोलिया के ऊँचे पठार तथा मध्य आस्ट्रेलिया आदि और इंसानों में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो खेती नहीं करते जैसे कांगो के बौने और अंडमान के बनवासी।
फ्रांस में मिली आदिमकालीन गुफाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पूर्वपाषाण युग में ही मनुष्य खेती से परिचित हो गया था। बैलों से हल जोतने का प्रमाण मिश्र की पुरातन सभ्यता से मिलता है। अमरीका में केवल खुरपी और मिट्टी खोदने वाली लकड़ी का पता चलता है। भारत में पाषाण युग में कृषि का विकास कितना और किस प्रकार हुआ था इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है, किंतु सिंधु नदी के पुरावशेषों के उत्खनन से इस बात के बहुत से प्रमाण मिले है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में कृषि उन्नत अवस्था में थी और लोग राजस्व अनाज के रूप में चुकाते थे। ऐसा अनुमान पुरातत्वविद मुअन-जो-दड़ो में मिले बडे-बडे कोठरों के आधार पर करते हैं। हमारे देश में आधुनिक कृषि यंत्रों की अवधारणा बाकी सभी यंत्रों की तरह विदेश से ही आई है। आज देश में अस्सी प्रतिशत कार्य मशीनों की मदद से होने के बावजूद भी बहुत काम होना बाकी है। हमारे कृषि यंत्र निर्माता विदेशी यंत्रों की आंख बंद कर नकल कर रहे हैं, बिना यह सोचे-समझे कि देश की जमीनें, फसलें और उन्हें इस्तेमाल करने वाले लोग कैसे हैं?
नकल के सहारे हमारा काम अब तक जितना चल चुका वह बहुत है, आगे हमें अपनी जरूरतों के हिसाब से न केवल यंत्र बनाने होंगे, बल्कि उन यंत्रों के लिहाज से बीज भी तैयार करने होंगे। उदाहरण लिए देश की एक प्रमुख फसल कपास को ही लें। अब तक कपास चुनने के लिए मजदूर बहुत ही सस्ती दरों पर उपलब्ध थे लेकिन मनरेगा के कारण आज कपास चुगाई के लिए किसी भी भाव पर मजदूर नहीं हैं। हालांकि कपास चुगाई कि एक देशी और एक विदेशी मशीन तैयार खड़ी है मगर उनके लिहाज से बीज तैयार नहीं हैं। मौजूदा कपास की किस्मों को इस मशीन से नहीं चुना जा सकता। अब इसके लिए या नई मशीन चाहिए या मशीन के अनुरूप बीज। ऐसे ही गेहूँ के लिए एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि यूरिया खाद उसके बीज के ठीक एक इंच नीचे होनी चाहिए लेकिन हम आज तक एक भी ऐसी मशीन तैयार नहीं कर सके। गेहूँ काटने के लिए हमने कम्बाइन की नकल तो करली पर यह बात भूल गए कि गेहूँ के दाने निकालने के बचा हुआ भाग पशु चारे के काम आता है। कम्बाइन से गेहूँ निकालने इस चारे की मात्रा आधी भी नहीं मिल पाती। क्या हम एक भी मशीन ऐसी तैयार नहीं कर सकते जो गेहूँ के बाद चारे को बचाले?